फ़ाउस्ट – भाग 2 अंक 5 दृश्य 6 – महल की दीवार के बाहर बड़ा मैदान

In Culture, Drama, Fiction, History, Poetry, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

 


फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

६. महल की दीवार के बाहर बड़ा मैदान

मशालेँ.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़, लंगूर जैसे नर कंकाल, फ़ाउस्ट.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (ओवरसीयर के रूप मेँ. सब से आगे – )

तेज़! और तेज़! चलाओ हाथ!

लचकीले नर कंकाल!

हड्डियोँ माँसपेशियोँ के जंजाल,

आधे मुरदे, आधे जानदार…

नर कंकाल

मुस्‍तैद हैँ हम

आप के साथ हैँ हम

आप की सेवा मेँ लगे हैँ – हर दम

चल रहे हैँ मिला के क़दम से क़दम…

क्या है – हमेँ जो सौँपा गया है काम?

खोद डालना यह लंबा चौड़ा मैदान?

नापने का फ़ीता साथ मेँ लाएँ हैँ हम.

निशान के खूँटे भी लाए हैँ हम.

क्या करना था हमेँ यहाँ पर –

बस, यही भूल गए हैँ हम…

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

नहीँ छाँटनी है हमेँ बारीक़ी!

रहा नाप का सवाल –

खोदने वाला खुद ही है नाप.

जो सब से लंबा है लेट जाए औँधा – मुँंह के बल.

जो हैँ बाक़ी – खोद देँ माटी.

पुरखोँ के लिए जो किया गया था विधान –

वही है हमारा आज का काम –

खोदना गड्ढा चौकोर लंबाकार.

महल से निकल कर – मिलती है सँकरी सी खाई.

यही है जीवन का अर्थहीन सार, भाई.

नर कंकाल

कभी थी मुझ मेँ भी जान.

कभी मैँ भी था प्रेमी जवान.

दिनचर्या क्या थी? बस मधुपान.

चारोँ ओर होता था नाच और गान.

नाचना कूदना था पैरोँ का काम.

मार दिया मुझे वय ने

बैसाखी ने कर दिया लाचार…

टटोलता था अँधेरे मेँ लाचार…

गिर पड़ा – जहाँ था समाधि का द्वार.

जाने किस मूर्ख ने खुला छोड़ा था द्वार?

फ़ाउस्ट

कुदाल की मार मेँ है मधुरिम संगीत.

लहरोँ की सीमा खीँचते हैँ दास.

बंजर धरती को बनाते हैँ उर्वर.

लहरोँ को देते हैँ धरती का आँचल.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

जो कुछ भी तुम्हारा है काम

सागर के घाट, ऊँची दीवार…

जानते नहीँ हो – एक दिन – एक बार…

करेगा तांडव सागर पिशाच.

हो कर रहेगा किया अनकिया.

फ़ाउस्ट

श्रमिक सरदार!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

जी, सरकार!

फ़ाउस्ट

जहाँ से जैसे मिलेँ

ले आओ और मजदूर

जमा करो और भी हाथ…

लालच दो, करो सक़्ती

मत रहो पैसोँ के मोहताज.

ज़रूरत हो – बरसाओ कोड़े.

हर रोज़ बताओ –

खाई बनी कितनी गहरी – कहाँ तक पहुँची…

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

जहाँ तक समझा हूँ मैँ –

प्रश्न नहीँ है आकार का.

प्रश्न है मज़ार का…

फ़ाउस्ट

पर्वतोँ की तराई मेँ दलदल है पानी.

निकालना पड़ता है पानी.

हमारा अभियान है महान.

होगी अंतिम उपलब्धि महान.

सुलझ जाएगी आवास की समस्या

लाखोँ करोड़ोँ के वास्ते बन जाएगा आवास.

नहीँ होगा यह मात्र आवास -

कर्महीन भोग विलास का आगार.

उन्हेँ बनाने होँगे चरागाह,

चराने होँगे ढोर डंगर.

उन्हेँ जोतने होँगे खेत,

उगानी होगी नए सुखोँ की फ़सल.

दीवार के बाद बनेँगे नए से नए आवास.

उस मज़बूत जाति के लोग

खड़ी करेँगे सुरक्षा के लिए दुर्गोँ की ऊँची दीवार.

बनेगा नया अदन का बाग़.

सागर मेँ – दीवार के उस पार

उठेँगे भयानक झंझावात –

कहीँ कहीँ टूट भी जाएगी दीवार…

मिल कर हाथ लगाएँगे नए समाज के लोग

पाट देँगे टूट गई है जो दीवार…

हाँ – यह कहता हूँ मैँ पूरे आत्मविश्वास के साथ –

मुफ़्त मेँ मिलते नहीँ – जीवन – स्वाधीनता.

निरंतर दिन रात इन्हेँ कमाना है पड़ता.

यहाँ रहेँगे बरसोँ बच्चे बूढ़े ज़वान, जीवटदार.

इस देश मेँ होगा समृद्धि का प्रसार.

दूर दूर तक होँगे लोगोँ के जमघट स्वाधीन.

तब उड़ते पल से कहूँगा मैँ पुकार –

हो गए पूरे मेरे सब काम –

कुछ और ठहर, मेरे पल सुंदर.

धरती पर छोड़ जाऊँगा क़दमोँ के निशान –

मिटा नहीँ पाएगा जिन्हेँ कठोर काल.

इस महान सुख की कल्पना का सुखपान

होगा मेरे निरंतर प्रयास का परिणाम…

(फ़ाउस्ट गिरता है. नरकंकाल उसे सँभालते हैँ और घरती पर लेटाते हैँ.)

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

संतोष नहीँ दे पाया उसे कोई हर्ष, कोई उल्लास.

अंतिम साँस तक – परिवर्तन था उस की आस.

लेकिन उस का यह अंतिम क्षण –

कितना बासी, शून्य, रसहीन, निस्सार!

अभागा नर था चाहता था इसे संजोना.

मेरा प्रतिद्वंद्वी था, शत्रु था बुद्धिमान.

लड़ना उस से हर दम था अपने आप मेँ पुरस्कार.

अंत मेँ जीतता है काल.

पड़ा है निर्जीव पांडुर पुतला.

रुक गई है घड़ी

नीरव है जैसे आधी रात.

गिर गई सूई

गिर गई सूई –

सब हो गया संपूर्ण, समाप्त…

 

एक ही है बात –

पूर्णतः व्यतीतऔर शुद्ध शून्य.

किया जाता है जो कुछ -

हो जाता है वह – नष्ट – शून्य.

क्या होती है निरंतर कर्म की उपलब्धि?

हर किया हो जाता है अनकिया –

बन जाता है व्यतीत!

हो गया व्यतीत’ –

कैसे करेँ इस का अर्थ?

जो है व्यतीत –

वह ऐसा है जैसे नहीँ था कभी कुछ.

फिर भी वह भ्रमित है जैसे अभी है…

लेकिन जब हम कहते हैँ नष्ट’ –

तो प्रतिध्वनित होता है – कभी वह था.

निरंतर शून्य’ – कहना होगा समीचीन.

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