फ़ाउस्ट – एक त्रासदी
योहान वोल्फ़गांग फ़ौन गोएथे
काव्यानुवाद - © अरविंद कुमार
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४. अजा सागर तट – पथरीली कंदराएँ
क्षितिज पर चंद्रमा ठहरा ठिठका है. शिलाओँ पर साइरनेँ वंशी बजाती गा रही हैँ.
साइरनेँ
थेसाली की तीन चुड़ैलेँ –
कर के जादू टोने काले
खीँच रही थीँ तुझ को नीचे –
पापभरे मन कलुषित काले
देखो, अवलोको, अर्णव उर्मिल –
जगमग दिपदिप चकमक झिलमिल
वक्र चक्र से अपने देखो –
सागर अबाध है ज्योतित चंचल
लूना, स्वीकारो पूजन अर्चन –
बरसे दया, करो अनुकंपन.
निरीइद और ट्रिटन गण (सागर के विलक्षण जीवोँ के रूप मेँ – )
आवाहन, है सब का आवाहन –
उन्नत स्वर से है आमंत्रण
विस्तृत सागर, गुंजित आमंत्रण –
गह्वर से उभरे चर चेतन
था तल पर घनघोर प्रभंजन –
शांत सलिल पैठे हम चेतन
सुना गीत – वंशी का वादन –
आए ऊपर पा कर आमंत्रण
देखो देखो सब के हर्षित मन –
सजा सँवारे हैँ हम ने तन
मुकुट विराजे शीश हमारे –
कटि सोनल करधनियाँ धारे
रत्नमाल, मणिकांचन, कुंदन –
सारे तन – सज्जित आभूषण
ये सब हैँ उपहार तुम्हारे –
जो भग्नपोत सागर को अर्पण
महाप्रबल पा कर आमंत्रण
आए हम, ओ प्रभु देमन
साइरनेँ
निश्चल सागर जल – निर्मल दर्पण
हर्षित तिमिदल रत क्रीड़ित नर्तन
संकटहीन निर्भय जल जीवन
तल से निकल साजे सुख साधन
मछली से कुछ बढ़ कर हो तुम
सजधज आए दरशाते भूषण
निरीइद और ट्रिटन गण
आने से पहले था मन मंथन –
गहन गूढ़ औ मौलिक चिंतन
लक्ष्य दूर तो तीव्र पलायन –
धीरज पूरा – पथ का कुंचन
यह प्रमाण है – मत्स्य नहीँ हम
उन से ऊपर बढ़ कर हैँ हम
(जाते हैँ.)
साइरनेँ
गए. गए, चले गए
गए, सामोथ्रेस द्वीप गए
गए, पवन के साथ गए
गए गए, क्योँ गए?
उजाड़ है देश
ऊँचे हैँ काबीरी
देवता हैँ वे
अजीब हैँ काबीरी
रचते हैँ अपने को निरंतर
अपने से अनजान हैँ निरंतर
ठहरो, ठहरो, लूना
बीत न जाए रैना –
निज अंचल मेँ
हम को थामे रहना
निकले अभी ना सूरज
ना निकले, ना निकले
हम को नहीँ खदेड़े….
सूरज ना निकले, ना निकले
थलीस (तट पर मनुडिंभ से)
मैँ स्वयं ही ले जाता तुम्हेँ बूढ़े नीरेस तक –
शीतल है उस की कंदर, पहुँच ही गए हैँ हम लगभग उस तक.
स्वभाव से है वह पूरा अड़ियल और सड़ियल
किसी की सुनता नहीँ मानता नहीँ है कड़ियल.
मनाते आ रहे हैँ उस को मानव जाने कब से –
भुनभुनाता है अकड़ता है वह सब से,
पसीजता नहीँ है वह किसी से…
भविष्य के कपाट वह खोलता है
इसी से मानव उस की जय बोलता है,
किसी किसी पर वह कृपा के घट उँडेलता है.
मनुडिंभ
करना तो है ही हमेँ निस्संकोच प्रयास –
मेरे कलश का और शिखा का व्यर्थ न हो प्रकाश.
नीरेस
यह क्या – क्या सुन रहा हूँ मैँ – बोल रहे हैँ मानवजात!
उमड़ रहा है क्रोध – उन्मत्त हूँ मैँ – कर के रहूँगा नाश!
समझते हैँ अपने को देवता – छूना चाहते हैँ आकाश,
फिर भी रहते हैँ मानव के मानव – बुद्धि का हो चुका है नाश!
संभव था, जब पुरातन था काल – करना दिव्य विश्राम.
तब भी – जो थे उत्तम – देना पड़ता था उन को वरदान.
क्या था परिणाम? संपूर्ण हो जाए जब काम –
लगता था निरर्थक था प्रयास, पराजित था काम.
थलेस
फिर भी, सागर के धूसर डढ़ियल, हमेँ है तुझ पर विश्वास!
महाबुद्ध है तू, महाज्ञानी. भगा मत हमेँ, रहने दे पास.
देख इस ज्योतिशिखा को देख – मानव सा है इस का आकार
शरणागत है यह, आया है लेने परामर्श का उपहार.
नीरेस
क्या! परामर्श? मानव कब करता है परामर्श का सम्मान?
बहरे कानोँ मेँ निर्जीव पत्थर हैँ सुभाषित सुविचार.
मन मेँ आते ही कुविचार – कर्म हो जाता है उन पर सवार.
अभी तक वैसे ही हैँ लोग – स्वच्छंद, उद्दंड, दुर्निवार.
परदेसन ने फैलाया सम्मोहन – उस से पहले, बहुत पहले –
कैसे कैसे समझाया मैँ ने पैरिस, वरजा पिता के समान!
मन की आँखोँ से देख सब बतला दिया था मैँ ने बहुत पहले –
धुँधुआती हवा, कष्टोँ का अंतहीन वारापार
ऊपर जलती कड़ियाँ – नीचे हत्या मौत का व्यापार
ट्राय की क़यामत, दुर्भाग्य – छंद मेँ बंद
सहस्रोँ वर्षोँ का आर्तनाद, आतंक.
मेरे शब्द तब लगे थे खिलाड़ी को खिलवाड़!
दौड़ता रहा लिप्सा के पीछे, गिर गया ट्राय.
शस्त्रोँ से क्षतविक्षत – विशाल कंकाल
पिंडस पर्वत के गिद्धोँ का स्वादिष्ट आहार!
और यूलीसस! क्या उसे नहीँ समझाया मैँ ने?
नहीँ बताई थी मायाविनी सिर्के की चाल?
नहीँ जताया था महाकाय साइक्लोपोँ का कोप?
उस का अपना विचलन, नाविकोँ का कार्यलोप?
और क्या कुछ नहीँ बताया था मैँ ने? क्या हुआ लाभ?
उस की सहायक बन गई एक धारा
दिखा गई खोए भटके नाविक को स्नेही किनारा.
थलेस
सच है, कष्ट पहुँचाता है महाज्ञानी को ऐसा व्यवहार.
फिर भी भले लोग करते ही हैँ प्रयास, देते हैँ सहारा.
बदले मेँ मिल जाए राई रत्ती कृतज्ञताज्ञापन
भूल जाते हैँ कृतघ्नोँ का मन भर दुर्व्यवहार.
तुझ से जो चाहते हैँ हम, नहीँ है कोई छोटा मोटा उपकार.
इस डिंभ की इच्छा है – जन्म लेना और होना.
नीरेस
निवेदन है – मनमगन हूँ मैँ. मत डालेँ व्यवधान.
किसी और ही काम मेँ रमा है मेरा ध्यान
लहरोँ पर, बयार पर, किया है आवाहन
आती ही होँगी वे – दोरिदे – सागर की शोभा.
ओलिंपस पर या जगमग वक्र लूना पर नहीँ है इन के समान
एक भी सुंदर आकार और इन के जैसी सहज हलकी चाल.
उन्मत्त सी झूमती आती हैँ ये, उन्मुक्त सी हो कर सवार
नेपट्यून के सागरनागोँ पर, तत्वोँ मेँ रम कर जैसे एकाकार…
लगता है लहरोँ के फेनोँ पर नहीँ है इन का लेशमात्र भार.
और अब वीनस के रथ के उपस्थ मेँ भोर के उजास सी
आती है गालातिया – सुंदरतम, मधुरतम.
जब से साइप्रिस ने हमारी ओर से फेर दिया था उस का मुख
उस के स्थान पर पाफोस द्वीप पर वह करती है राज.
वह है हमारी प्रियंका – प्रियतम, सुंदरतम,
रथासीन युवरानी, मंदिरोँ के नगर की राजरानी…
जाओ, दूर हो जाओ!
पिता के मुदित सपनोँ ने हर लिए मन से ताप,
अधरोँ से अभिशाप, जाओ. जाओ,
प्रोटियस के पास जाओ. वह मानव है विलक्षण
पूछो उसी से – उद्भव और उत्परिवर्तन का क्रम!
(वह सागर की ओर चला जाता है.)
थलीस
कुछ नहीँ मिला यहाँ आ कर.
प्रोटियस से मिलेँगे तो, पल भर मेँ, पर
वह लय हो जाता है, पिघलता है तत्पर.
वह रहता है, पर कहता है बस वह जो है भ्रामक,
श्रोता को देता है चकित कर.
जो भी हो, तुझे तो चाहिए ही परामर्श
जो भी हो, चल हो जाए एक यह भी प्रयास.
(दोनोँ जाते हैँ.)
साइरनेँ (ऊपर शिलाओँ पर – )
क्या है वह, दूर…
दूर – उस ओर
ज्वार के उछाल पर
लहरोँ की ताल पर
नाचता सा आता?
तैरता सा आता?
उज्ज्वल हैँ पाल
जल पर चमकार
सागर की कन्या –
सुंदर साकार!
चलो, चलो उतरो
नैना कृतार्थ करो
सुनो, सुनो, सुन लो
मन को रसाल करो
निरीइद और ट्रिटन
लाए हम जो लाए उपहार
मन को दे संतोष अपार
शेलीनी का कवच विशाल
चमके सुदृढ़ शुभ आकार
देवोँ को लाए हैँ हम
गाओ वंदन ले बंदनवार.
साइरनेँ
देखने मेँ हैँ ये छोटे
ये हैँ शक्ति के अवतार
भूले भटकोँ के रखवाले
देव पुरातन दल मतवाले.
निरीइद और ट्रिटन
शांत लहर है, उत्सव मंगल
लाए लाए हम काबीरी
जहाँ जहाँ है इन का राज
नेपट्यून का रहता साथ.
साइरनेँ
हमेँ कथन है यह स्वीकार
पोतभंग जब हो साकार
आते हो बन कर रखवाले
नाविक दल के हो रखवाले.
निरीइद और ट्रिटन
यहाँ तीन को लाए हम
चौथा कर बैठा इनकार
मैँ इन का चिंतक हूँ असली
कहता था वह बारंबार.
साइरनेँ
देवोँ के निंदक हैँ देव
करते रहते कठिन प्रहार
भय का करते काम तमाम
करते हैँ सब कृपा अपार!
निरीइद और ट्रिटन
सच पूछो तो वे हैँ सात.
साइरनेँ
कहो, कहाँ हैँ फिर बाक़ी तीन?
निरीइद और ट्रिटन
हम क्या जानेँ क्या है सच,
पूछो ओलिंपस जा कर!
देवदार भूले अष्टम को
नहीँ किसी ने किया विचार.
हम को मिला परम वरदान
पूरा हुआ नहीँ है काज.
ये अनुपम हैँ और अबाध
और अधिक इन की अभिलाष
तृष्णा इन की अपरंपार
इच्छा इन की जो उस पार!
साइरनेँ
यही है हमारा जीवन मार्ग
जिस से चलता है संसार
चंदा सूरज दिव्य अपार
उस की पूजा करते हम
पाते उस की दया अपार.
निरीइद और ट्रिटन
हम पर बरसे कृपा अपार!
हर्षद मंगल की बौछार!
साइरनेँ
असफल थे नायक प्राचीन
पूरे हुए न उन के काज
जब जैसे भेद खुलेँ खुल जाएँ
लाए जीत स्वर्ण के तार –
तुम – काबीरी!
पूरा कोरस
लाए जीत स्वर्ण के तार –
हम! तुम! काबीरी!
(निरीइद और ट्रिटन मंच पार करते हैँ.)
मनुडिंभ
ये हैँ जितने भी आकार –
सब कुरूप हैँ – घट जैसा इन का आकार.
अब भी इन से टकरा जाते – बुद्धिमान खाते हैँ मार
बचेँ ना इन से हठी कपाल.
थलीस
बस, यही तो है सब की कामना!
सच्चा है पुराना सिक्का – है सभी का मानना.
प्रोटियस (अदृश्य)
वाह, क्या बात है, पुराने कथाकार!
सम्माननीय लगता है अजनबी – इस का साथी.
थलीस
कहाँ है तू, प्रोटियस?
प्रोटियस (छलभाषी के समान – कभी पास से, कभी दूर से – )
यहाँ! यहाँ हूँ मैँ! इधर! और इधर!
थलीस
चल, क्षमा कर दिया तेरा पुराना खेला!
मित्र को छलिया संभाषण से मत सता ना.
जानता हूँ मैँ – बोलता है तू – प्रच्छन्न स्थान से.
प्रोटियस (मानो बहुत दूर से – )
तो मैँ चला!
थलीस (आहिस्ता से मनुडिंभ से – )
यहीँ है कहीँ आसपास
अपनी ज्योति को जगा, चमचमा, कर उजास.
मछली सा उत्सुक है वह, कुतूहली है वह.
जहाँ भी छिपा है, जैसे भी छिपा है –
ज्योतिशिखा से आएगा पास.
मनुडिंभ
फेँकूँगा अकस्मात मैँ उजास –
कोमल सी, कहीँ टूट न जाए काँच.
प्रोटियस (महाकच्छप के आकार मेँ – )
क्या चमका दिव्य सा, सुंदर सा?
थलीस (मनुडिंभ को ढाँपते हुए – )
अच्छा! देखना चाहे तो आ और पास.
कष्ट उठा, मत हो परेशान,
दिखा, दोहरा मानव आधार दिखा.
जिस को जो चाहे दिखाएँगे हम, जो भी है हमारे पास –
शर्त है – देखेगा वही वैसे जिसे जैसे दिखाएँगे हम!
प्रोटियस (महान आकार मेँ – )
भूला नहीँ सांसारिक छलछंद अभी तक.
थलीस
बदलना रूप रंग है तेरा खेला अभी तक.
(मनुडिंभ को उघाड़ता है.)
प्रोटियस (चमत्कृत)
ज्योतित वामन! अभूतपूर्व, अभी तक अलक्षित!
थलीस
इसे चाहिए तेरा परामर्श – यह चाहता है – होना.
अभी तक यह है – मैँ ने इसी को सुना है कहते -
(पूरा अचंभा है यह!) अधजनमा, अपूर्ण.
जितने भी गुण हैँ, सभी हैँ इस मेँ रहते,
अत्यधिक स्पृश्य और यथार्थ संपूर्ण.
अब तक केवल काँच है इस का भार,
शीघ्र ही चाहता है धारना कायिक आकार.
प्रोटियस
तू है सच्चा कुमारी का पूत –
आरंभ से पहले हो गया तेरा अंत.
थलीस (फुसफुसाता – )
अन्य कोण से देखो तो बात है गंभीर
मुझे लगता है यह उभयलिंगी क्लीव…
प्रोटियस
तब तो और भी शीघ्र मिल जाएगी सफलता –
आरंभ तो हो एक बार – तत्क्षण हो जाएगी व्यवस्था.
व्यर्थ है करना विचार – क्या था इस का मूल उद्भव.
सागर की विशाल है छाती – कर यहाँ से प्रारंभ.
संकीर्ण से घट मेँ यहाँ से करना होता है आरंभ.
निचली योनियोँ के नाश मेँ मिलने लगता है आनंद.
फिर धीरे धीरे चढ़ते हैँ सीढ़ी –
ऊपर बढ़ते हैँ पीढ़ी दर पीढ़ी.
मनुडिंभ
यहाँ श्वास मेँ है कोमल बयार
गंध मेँ आनंद है और प्यार.
प्रोटियस
सच, मेरे छोने प्रियकर!
आनंद का स्रोत – इस से भी बढ़ कर.
वहाँ – उस धरती के छोटे से कोने के पास – उस ओर
लहरेँ कर रही हैँ शांत कल्लोल,
दिव्य है प्रकाश अनश्वर!
वहाँ जाएँगे हम – सागर पर तैरते
चल वहाँ मेरे साथ चल!
थलीस
साथ चलता हूँ मैँ…
मनुडिंभ
आध्यात्मिक तलाश – त्रिगुणित प्रयास!
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