फ़ाउस्ट – एक त्रासदी
योहान वोल्फ़गांग फ़ौन गोएथे
काव्यानुवाद - © अरविंद कुमार
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२. पीन्योस
पीन्योस नदी अप्सराओँ और सहायक नदियोँ से घिरी है
पीन्योस
लहर लहर लहराओ, मर्मर शैवालो
सर सर सर सरको, वेतस शाखालो
नरकुल वंजुल बहनो, साँस लो हौले हौले
पौपलार शाखाओ, बोलो धीमे धीमे
चुपके चुपके बात करो खंडित सपनोँ से!
शंकित आशंकित आकुल व्याकुल मेरा मन
अज्ञात भयोँ से कंपित और विकंपित है तन
लहराती श्लथ मंथर धारा – घिर कर तट अपनोँ से.
फ़ाउस्ट (सरिता की ओर बढ़ता हुआ – )
लगता है जैसे सघन कुंज से
लटके गहरे लता जाल के पीछे से
सुन पाता हूँ मैँ मानव स्वर से.
लगता है जैसे कल कल करती लहरेँ बोल रही हैँ
क्रीड़ारत खिल खिल पवन झकोरे बातेँ करते खेल रहे हैँ.
अप्सराएँ (फ़ाउस्ट से – )
अच्छा है लेटो – शीतलता मेँ विश्राम करो
उद्यम से श्रांत गात को नव जीवन दान करो
विश्राम तुम्हेँ छलता आया. अब भोगो. उन्मुक्त बनो.
सुनो, हमारे अस्फुट से मर्मर स्वर का मदगान सुनो.
फ़ाउस्ट
जाग्रत हूँ मैँ! बिलमाती बालाएँ –
तन को हिलकोरे देते से विलक्षण आकार –
नयनोँ से देखे जो मैँ ने उस पार!
कैसा है उन का आकर्षण –
मुझ पर लगभग छाया जाता उन का सम्मोहन!
क्या हैँ वे? केवल सपने? मात्र विस्मरण?
पहले भी मुझ को ऐसा वरदान मिला था.
लताकुंज मेँ ढँपी छिपी सी
परिप्लावित, परिपूर्ण, मंद, मगन, मंथर, नव लहरेँ
कोमल प्रवाह सी तैर रही हैँ.
उन की कल कल तक है शब्दहीन निस्तब्ध मौन.
चतुर्दिशा से निर्मल जल स्रोतस् बहते आते हैँ
पावन स्नान-सरोवर को भरते प्लावित करते आते हैँ.
दर्पण से जल तल को खंडित करती बालाएँ,
कोमल तन को दोहरा सा कर देता जल दर्पण,
और दोगुना हो कर मिलता है नयनोँ को सुख दर्शन.
सब की सब जलक्रीड़ा मेँ सब की साथिन.
कोई बढ़ कर तैर रही है, कोई शरमाती सी जल मेँ चलती
खिल खिल करती, चिल्लाती, लहरेँ छपकाती खेल रही हैँ.
मन भरने को काफ़ी है इतना दृश्य मनोरम –
मेरे नयनोँ मेँ फिर से है नव जीवन.
लेकिन – शेष अभी तक है अनदेखे का दर्शन.
वह जो है गहरा पल्लव दल का अवगुंठन
उसे चीर पाने को लालायित हैँ लोचन –
मनोहारिणी मनोभाविनी रानी के पाने को दर्शन.
कैसा विचित्र है! भास्वर मणि सी जलराशि पर तिरते
श्यामल जलद्रोणी से बाहर आते
हंसोँ के दल बढ़ते आते.
संयुत, शांत, जुड़े से, गर्वित, प्रमुदित
शीश और ग्रीवा को उन्नत करते…!
रोमल पक्ष्मपुटोँ को जो गर्वोन्नत सा कोँद रहा है,
अपने वैभव से मंडित वह सब के आगे है.
उज्ज्वलतम पंखोँ वाला वह लहरोँ पर लहरोँ सा चलता
पावन सर तक सत्वर बढ़ता आता है.
शेष सभी आगे पीछे होते तिरते आते
साथ साथ बहते चलते.
खेल खेल मेँ सभी अभी आपस मेँ झपटेँगे
अकुलानी सी बालाओँ को डरपाते अपने दायित्व भुलाते…
अप्सराएँ
बहनो, झुको,
नदी तट पर कान लगाओ, सुनो!
मुझे सुन पड़ती है टाप अश्वारोही सी.
तेज़ी से कोई इधर आ रहा है. धरती है कंपित सी.
आ रहा है कौन गहन निशा को देता संदेशा.
फ़ाउस्ट
हाँ, मुझ को भी लगता है –
कोई अश्वारोही दौड़ा सा इस ओर चला आता है.
देखो! देखो! सौभाग्य चला आता है.
शुभ है जो आता है.
क्या इस से मुझ को वरदान मिलेगा?
शब्दातीत है जो आता है.
उन्मुक्त सा अश्वारोही दुलकी भरता है
ओज और तेज और बल से परिपूर्ण सा लगता है –
हिमश्वेत है अश्व – वात सा चलता है…
समझ गया मैँ – जय हो!
फिलीरी के विख्यात पूत, तेरी जय हो,
ठहरो, किरोण, ठहरो!
मुझे तुम से कुछ कहना है.
किरोण
क्या है? कौन है?
फ़ाउस्ट
ठहरो, गति थामो, रुको!
किरोण
रुकता नहीँ हूँ मैँ.
फ़ाउस्ट
मुझे साथ ले लो!
किरोण
तो हो जाओ सवार. आराम से पूछूँगा मैँ –
जाते हो कहाँ. तट पर खड़े हो तुम,
महाप्लव के पार सहर्ष ले चलूँगा मैँ.
फ़ाउस्ट (सवार होता है – )
ले चल जहाँ चाहे. आभारी हूँ मैँ.
महान है, महागुरु है तू.
उस महावंश महाजाति का गुरुवर है तू…
महानाविक के दिव्य अंतर्चक्र के उद्यम थे महान,
उस की जयगाथाओँ के वर्णन मेँ गूँजा था महाकवि का गान.
किरोण
अब और नहीँ करेँगे हम उन की बात…
गुरु के पद पर स्वयं वाग्देवी पलाश पाती नहीँ सम्मान.
कितना ही किसी को सिखाओ, दो ज्ञान,
जब आती है कर्म की बात –
सब का व्यवहार होता है कोरा अज्ञान.
फ़ाउस्ट
महावैद्य है तू. तुझे है जड़ीबूटियोँ की पहचान,
महामूल तक है तेरा विशद ज्ञान.
रोगियोँ को निरामय करता है तू,
दुखती रग़ोँ को सहलाता है तू.
तन और मन से करता हूँ मैँ तेरा आलिंगन प्रगाढ़.
किरोण
हाँ, जब भी नायकोँ को लगते थे आघात –
अपर्याप्त नहीँ पाया गया था मेरा ज्ञान.
सौँप दिया पुजल्लोँ और बूढ़ियोँ को तत्पश्चात
मैँ ने बरतने को जो कुछ भी था मेरा ज्ञान.
फ़ाउस्ट
महापुरुषोँ के अनुकूल ही है तेरा आख्यान.
सुन नहीँ सकते वे अपने गुणोँ का बखान,
विनम्रता ही होती है उन की पहचान.
भरमाते हैँ वे कह कर – उन के समकक्ष अब भी हैँ वर्तमान.
किरोण
ऐसे संवादोँ मेँ लगते हो तुम निष्णात –
जन और राजन की समान प्रशस्ति मेँ हो पारंगत.
फ़ाउस्ट
इतना तो मानेगा तू –
देखे थे तू ने अपने समय के महानतम मानव.
चला था उन गौरव पथोँ पर – चले थे जिन पर वे मानव.
उन महामानवोँ के बीच देवताओँ के समकक्ष जिया था तू.
बता तो – उन मेँ से किसे महानतम योग्यतम मानता है तू?
किरोण
स्वर्णिम लोम की खोज मेँ महानाविक जेसन के ध्वज के नीचे
निकले थे जो भी, महानतम योग्यतम सभी थे.
हरएक मेँ थी कुछ विशेषता, कुछ शक्ति,
जिस की दूसरोँ मेँ कमी थी.
सौंदर्य और यौवन के क्षेत्र मेँ विजेता थे -
कास्टर और पौलुक्स – द्युपति के युगल किशोर.
जहाँ तक प्रश्न है प्रत्युत्पन्नमति का,
संकटोँ से त्राण का, शीर्ष पर था बोरियास – उत्तर का देवता.
चतुर था, धीर गंभीर था, और था मंत्रणा मेँ प्रवीण,
सच, नारियोँ के हृदय का सम्राट था जेसन.
विचारोँ मेँ खोया सा विनम्र ओर्फ़ियुस था शांत, सुशील,
लेकिन बन जाता था महातेजस्वी जब उठा लेता था वीण.
तीक्ष्णदर्शी लिंसियस दिन रात चलाता था बेड़ा.
उफनते सागर मेँ उसी ने तट तक था सब को उतारा.
प्रचंडतम संकट झेल सकते हैँ मानव बन कर सहचर
जब एक के उद्यम का गुणगान सब करते हैँ मिल कर.
फ़ाउस्ट
लेकिन हरकुलीस – अन्याय कर रही है आप की वाणी…
किरोण
आह! मत जगाओ मेरा मन, ओ प्राणी.
इलीसियम क्षेत्रोँ मेँ दमकते नहीँ देखे मैँ ने
फीबस, आरीस, हर्मीस.
लेकिन देखा था मेरे नयनोँ ने वह आकार
जिसे मानते हैँ सब मानव दिव्य, जन्म से राज्याधीश,
अनुपम था वह, यौवन की प्रतिमा था साकार.
उस के देखे से बढ़ जाती थी नयनोँ मेँ उजास,
अग्रज का सेवक था वह और था सुंदरियोँ का दास.
धरती माँ गाइया ने बख़्शा नहीँ वैसा कोई और
न परलोक ले गई द्युपति की लाडली हीबी कोई और.
उस के लिए जो गाए जाते हैँ गीत – हैँ बेकार.
बेकार है मर्मर मेँ उतारना उस का सच्चा आकार.
फ़ाउस्ट
सच, करते रहते हैँ शिल्पी निरर्थक अभ्यास –
संपूर्णता पाता नहीँ कभी उन का कोई प्रयास…
कर दिया आप ने अन्यतम पुरुष का वर्णन,
अब कहिए – कौन है नारी सुंदरतम.
किरोण
क्या! – नारी का रूप है निस्सार.
अक्सर दिखता है उन का बुद्धिहीन आकार.
केवल कर्तव्य के अधीन अपने को पा कर
कर रहा हूँ मैँ उस का वर्णन –
दिव्य थी जो, आह्लादमय था जिस का आकर.
रूपराशि थी सुंदरता साकार – सुखप्रद प्रियंकर.
आघात सा लगता था अपने को उस के निकट पा कर.
शोभा और श्री का थी वह मधुरतम संगम
जब किया था मैँ ने हेलेना का संवहन.
फ़ाउस्ट
तू ने किया था उस का संवहन?
किरोण
हाँ, इसी पीठ का किया था उस ने आलिंगन.
फ़ाउस्ट
पहले था मैँ उच्छृंखल घनघोर,
अब हूँ आनंद से विभोर –
यहीँ बैठी थी वह!
किरोण
तेरी ही तरह मेरे केशोँ को जकड़े थी वह.
फ़ाउस्ट
भावनाओँ को नहीँ पा रहा मैँ रोक!
बता, बता – कुछ और!
वही है, वही है – मेरी आकांक्षाओँ की कोर!
कहाँ से ले गया था तू उसे, किस ओर?
किरोण
कठिन नहीँ बतलाना तब हुआ था जो.
बात है तब कि जब द्यौस के दोनोँ किशोर
आए थे चोरोँ के चंगुल से छुड़ाने बहन को.
मान जाने के हार – आदी नहीँ थे चोर.
शीघ्र ही साहस जुटाया था उन्होँ ने,
क्रोध मेँ आ कर पीछा किया था उन्होँ ने.
ऐलूसिस नगर के बाहर जो दलदल है
भागते भाई बहनोँ की गति को रोका था उस ने.
दलदल मेँ पैठे थे किशोर,
लतरोँ को पकड़ते बढ़ रहे थे किशोर.
तैर कर पहुँचा था मैँ, उछल कर चढ़ी थी वह
गीले केशोँ से चिपकी थी वह, सहलाती थी वह.
मधुर बैनोँ से करती थी धन्यवाद ज्ञापन.
कितनी सुंदर थी वह! वयस्कोँ को प्रिय, साकार यौवन!
फ़ाउस्ट
वय क्या थी – बस, सात वर्ष!
किरोण
भाषाविद ठगते हैँ अपने को, ठगा है तुझे भी.
मिथक नारियाँ होती हैँ विलक्षण.
कवियोँ का क्या है! जब जैसे चाहे जाते हैँ मिथकोँ की शरण.
वे कभी होती नहीँ बूढ़ी. चिरयौवना हैँ वे.
चिरंतन है उन का ओज, महान है आकर्षण.
छली जाती हैँ यौवन मेँ, बुढ़ापे मेँ भी रहता है सम्मोहन.
बस, समय बाँध नहीँ पाता कवियोँ की कल्पना.
फ़ाउस्ट
तो मत होने दो उस पर काल का बंधन!
ऐसे ही तो काल की सीमाओँ के पार
फेराई द्वीप पर मिला था उसे अखिलीस.
कैसा वरदान! दुर्लभ अन्यतम!
भाग्य की वर्जनाओँ के पार पाना उस का प्यार!
ईप्सा, प्रेप्सा, लिप्सा, लालसा के बल पर,
पाना है मुझे भी जीवन का आशय अतिशय –
वह आकार – शाश्वत, निरंतर, दिव्योँ का सहचर,
उतना कोमल जितना महान, उतना दिव्य जितना स्निग्ध सराग.
तू ने देखा था उसे कभी एक बार.
मैँ ने देखा उसे आज – करते सपनोँ की बरखा रसाल –
सपने सुंदरता के – सपनोँ जितने सुंदर!
मेरा अंतर्तम, सर्वस्व, अपनापन, सब कुछ
अब बंदी है उस का, जकड़ा है बंधन मेँ दृढ़तर.
नहीँ मिली तो मेरा जीना है दुस्तर, दुष्कर.
किरोण
तू मानव अनजाने! तेरे मन मेँ ऐसा उन्माद भयंकर!
हम हैँ केवल अव्यक्त आत्मा. हम को तू लगता है पागल.
फिर भी, संभवतः, शुभ लक्षण हैँ तेरे साथ.
प्रति वर्ष एक बार जाता हूँ मैँ मंटो के घर –
वह जो ऐस्क्लेपियोस की बेटी है.
उस का सब पूजन अर्चन पिताश्री को है अर्पण –
बढ़े मान, करेँ वह वैद्योँ के मानस का वर्धन –
न करेँ रोगियोँ का वे परलोक पलायन.
भाग्यवाचिका सिबिलोँ मेँ वह मुझ को सब से अच्छी लगती है.
वह उदार है, कल्याणी है, उच्छृंखलता से हीन मनस्क है.
समय दे सके तू तो उस मेँ इतना गुण है –
जड़ीबूटियोँ से तुझ को चंगा कर सकती है.
फ़ाउस्ट
चंगा कर सकती है! चंगा होना नहीँ मुझे है!
मेरा ध्येय नहीँ कमतर है. मेरी चाहत उन्नततम है.
औरोँ जैसा विचलन मेरा नहीँ चलन है.
किरोण
फिर भी दैवी निर्झर के गुण को मत यूँ ही जाने दे.
जल्दी कर, उतर अब. यही जगह है.
फ़ाउस्ट
इस घोर निशा मेँ किस पथरीली सरिता मेँ –
तू मुझ को ले आया?
किरोण
यहाँ रोम और ग्रीस ने अपनी शक्ति को परखा था
यह है पीन्योस नदी की बहती धारा –
वह है ऊपर ओलिंपस पर्वत गर्वीला –
यहाँ सिकता मेँ डूबी थी सत्ता की गागर,
भागा था राजा, डटे रहे थे विजयी नागर.
देख, उठा सिर – जगमग करती चंद्रद्युति मेँ
अनश्वर मंदिर है आलोकित.
मंटो (स्वप्न सा देखती हुई – )
मंदिर के सोपान – अश्वचाप से कंपित!
ये लक्षण हैँ उपदेवोँ के आगम के.
किरोण
सच है! खोल नयन, देख – कौन है.
मंटो (जागती है – )
स्वागत है! आ गया बेचूक!
किरोण
अभी तक खड़ा है तेरा मंदिर बेटूट!
मंटो
और चलता है तू – अभी तक निरंतर!
किरोण
और तू? बैठी है शांत समाधि लगाए!
दौड़ता हूँ मैँ – अशांत, अस्थिर…
मंटो
और मैँ? करती हूँ प्रतीक्षा, काल लगाता रहता है चक्कर.
और यह?
किरोण
कालचक्र इसे लाया है उठा कर
इस निशा मेँ करने को तेरे दर्शन.
उन्मत्त है यह, इस की चाहत है हेलेना.
भ्रमित है, पागल है, पाना चाहता है हेलेना.
नहीँ है ज्ञान – कैसे कब कहाँ करना है प्रयास.
दुरुस्त कर दे इस के होशहवास.
मंटो
असंभव की हो जिस को तलाश –
वही है मेरा प्रिय पात्र.
(किरोण दूर चला जा रहा है.)
आ, दीवाने, आ!
तेरे भाग्य मेँ है हर्ष. मोद मना.
मार्ग यह अँधेरा – तुझे ले जाएगा पर्सीफोनी के पास –
ओलिंपस के कूट तल मेँ, शून्य गह्वर मेँ –
वर्जित अभिनंदन है उस की प्रतीक्षा.
मैँ ही गुपचुप ले गई थी ओर्फियुस को उस के पास.
चूक मत अवसर – कर सदुपयोग.
साहस से ले काम. बढ़! अगे चल!
(दोनोँ नीचे उतरते हैँ.)
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