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फ़ाउस्ट – भाग 2 अंक 2 दृश्य 2 – प्रयोगशाला

In Culture, Drama, Fiction, History, Poetry, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

 


फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे

काव्यानुवाद -  © अरविंद कुमार

 

 

 


२. प्रयोगशाला

मध्ययुगीन प्रयोगशालाओँ सी एक प्रयोगशाला. विलक्षण प्रयोगोँ के वास्ते अनेक भारी भरकम यंत्र उपकरण इधर उधर बिखरे हैँ.

वाग्नर (भट्ठी पर)

घनघना उठीँ घंटियाँ करती टंकार.

कंपित गुंजित हैँ कालिख पुती दीवार…

शीघ्र ही हो जाएगा अनिश्चय का अंत.

पूर्ण हो जाएँगी मेरी आशाएँ अनंत.

छँट रहा है अंधकार.

परख नली के अंतर्तम कक्ष मेँ

चमचमाया वह जैसे जलता अंगार.

जी, हाँ, वाष्‍पित अंधकार मेँ

दैदीप्यमान अर्बुद सा चिलकता है,

कौँधता है, लपलपाता सा दमकता है.

स्फटिक सा श्वेत प्रकाश हो गया दृश्यमान.

होने से रह न जाए वह फिर एक बार. –

हे भगवान!

कौन खटखटा रहा है द्वार?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (आता है – )

कीजिए स्वागत! मैँ आया हूँ करने उपकार.

वाग्नर (चिंतित सा – )

स्वागत है – शुभतम अवसर है महान!

(आहिस्ता मंद स्वर मेँ)

निवेदन है – बोलेँ मत, मत लेँ श्वास.

पूरी होने वाली है चिरंतन अभिलाष.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (और भी आहिस्ता – )

क्या है?

वाग्नर (और भी आहिस्ता – )

    बनने वाला है एक मानव!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

मानव? कहाँ छिपा रखे हैँ कामासक्त युगल मानव?

वहाँ, चिमनी के धूम्र अवकाश मेँ?

वाग्नर

ना करे भगवान! जैसे जनते आए हैँ मानव –

प्रेम के, काम के, आवेश मेँ –

हमारा कथन है वह पुरातन विधि है मूर्खतापूर्ण, बेकार.

वह जो चलन था – कोमल से भावावेश मेँ,

अंतस् के बाह्य उद्दीप्त कामावेश मेँ,

करना शारीरिक आदान प्रदान,

करने को अपने प्रतिरूप का निर्माण,

अब नहीँ रहा है उस मेँ शालीनता का लवलेश.

केवल पाशविक रोमांचातिरेक है शेष.

मानव को जो मिला है उच्चतम ज्ञान का उपहार,

उस के योग से खोजना चाहिए कोई उच्चतर उपचार.

(भट्ठी की ओर मुड़ता है – )

देखेँ – चमकारे! सच ही अब होँगे दर्शन –

सैकड़ोँ तत्वोँ के मिश्रण से – बड़ी चीज़ है मिश्रण –

मिश्रण के अनुपात पर ही है सब कुछ निर्भर –

वातावरुद्ध परख नली मेँ जो है मिश्रण

अब वह धीरे धीरे सहज भाव से होगा संपुंजित,

विधिवत परस्पर गुँधेगा, मिलेगा, होगा संकुलित.

सारे श्रम का होगा सुखद शांत सफल अंत.

(एक बार फिर भट्ठी की ओर मुड़ता है – )

होगा! हो कर रहेगा!

समग्र अब हो रहा है निर्मल…

विश्वास जग रहा है, जगेगा…

निकट, और निकट, आ रहा है सत्य का क्षण.

विमल, विमलतर, विमलतम हो रहा है तरल.

जो कुछ भी था प्रकृति का रहस्य संसार

खुलेगा वह सब, अब होगा मानव को गोचर –

कसा जाएगा वह सब अब तर्क की कसौटी पर.

जो कुछ अब तक करती थी प्रकृति निर्मित

वह सब होगा अब मानव से सर्जित.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

जिस ने भी देखा है दीर्घ काल, विस्मित

नहीँ करता उसे कुछ भी कहीँ भी.

देखे हैँ मैँ ने अनेक मर्त्य कृत्रिम, सर्जित.

वाग्नर (अभी तक परख नली को ध्यान से देख रहा था.)

उठा. चमका, ठहरा, गहराया…

बस, एक पल, और फल आया.

महान था आयोजन, लगता था उन्माद.

अब कर सकेँगे हम प्रजनन मेँ दैवयोग का उपहास.

विवेकशील और पराचिंतन मेँ सक्षम मानव

की रचना अब कर सकेँगे स्वयं मानव.

(परख नली को हर्षातिरेक से देखते हुए – )

काँच की बोतल मेँ चेतना का संचार.

मधुर, मंद्र, तीव्र, स्वच्छ, विशद…

अब होगा जीवन का समारंभ.

सुंदर, मनहर आकार से मेरे नयन हैँ विभोर.

दृश्यमान है नन्हा सा वामन मानव किशोर.

हमेँ और विश्व को शेष है अब जानना क्या और?

हमारी मुट्ठी मेँ है रहस्योँ का संसार.

सुनो, आओ, सुनो – ये बोल,

मिल गई इसे वाणी. सुनो, इस के पहले बोल…

मनुडिंभ (काँचकलश मेँ से. वाग्नर से – )

पिता, कैसे हैँ आप? तो यह नहीँ था परिहास?

सटा लीजिए वक्ष से मुझे. आइए पास.

टूट जाएगा काँच जो ज़ोर से भीँचेँगे आप.

पदार्थ का धर्म है क्षणभंगुरता – यह जानते हैँ आप.

प्रकृत के लिए विस्तृत है सर्वाकाश.

कृत्रिम माँगता है सीमित अवकाश.

(मैफ़िस्टोफ़िलीज़ से – )

तो, चचा, आप भी हैँ यहाँ विद्यमान?

सही समय पर! धन्यवाद, श्रीमान!

आप को यहाँ ले आए हैँ नियति और सौभाग्य.

मैँ हूँ, तो मुझे होना है सक्रिय,

अविलंब ही मैँ चाहता हूँ कोई कार्य.

चतुर हैँ आप – आप हो सकते हैँ मेरे सहाय.

वाग्नर

एक शब्द! लज्जित हूँ मैँ क्योँ कि अवाक् हूँ मैँ.

ऐसे अनेक प्राचीन और अर्वाचीन प्रश्नोँ से घिरा हूँ मैँ

कोई भी जान नहीँ पाया है अब तक – जैसे –

आत्मा और देह का मिलाप होता है कैसे?

परस्पर विपरीत हैँ वे, एक साथ रहते हैँ कैसे?

अतः…

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

ठहरो! एक महाप्रश्न है मेरा भी –

सहमत भी और असहमत भी – पति पत्नी साथ रहते हैँ कैसे?

अनुत्तरित रहने वाला है, मित्र, प्रश्न यह भी.

मनुडिंभ को चाहिए कोई कार्य,

अतः करने दो उसे कुछ कार्य…

मनुडिंभ

                    कहेँ, क्या है कार्य?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (एक पार्श्वद्वार की ओर संकेत करता है – )

वहाँ – उधर – करना है तुम्हेँ क्षमता का उपयोग!

वाग्नर (काँचकलश को एकटक देखता रहता है – )

निश्चय ही, शिशु डिंभक, तुम हो सुंदरतम सुकुमार.

(पार्श्वद्वार खुलता है, पलंग पर पड़ा फ़ाउस्ट दिखाई देता है.)

मनुडिंभ (विस्मयपूर्वक)

रहस्यपूर्ण! महत्वपूर्ण!

(काँचकलश वाग्नर के हाथोँ से निकल कर फ़ाउस्ट पर मँडराता है और उसे प्रकाशित करता है.)

सुंदर दृश्यावली! चंचल जल.

छाया. जंगल. वसन उतारते मनमोहक नारी दल.

छवि सुंदरतम! धीरे धीरे दृश्योँ का संपुंजन.

सुमुखि, सुरूपिणी, मंजुलगाता, दिव्यलक्षणा,

महाकुलीना है – या है नैसर्गिक – यह नरबाला.

मंथर छलछल निर्मल झिलमिल जल मेँ पग धरती,

अग्निशिखा सी इस की काया लहरोँ मेँ धँसती,

शीतल धारा स्वागत करने को हटती, आलिंगन करती.

लेकिन – कैसी यह फरफर!

दर्पण से जल तल पर हलचल सत्वर!

सहटी सिमटी सुंदरियाँ भागीँ डर कर.

लेकिन वह, केवल वह, रूपगर्विता देख रही है संयत, निर्भय.

गौरवमंडित उस के नयनोँ मेँ केवल नारीवत् विस्मय!

हर्षित है वह – उस के घुटनोँ से चिपका सा,

अभ्रित पंख पसारे राजहंस ठिठका सा,

उत्सुक सा, पालित पोषित सा, उस को ही देख रहा है,

उस मेँ अपनापन खोज रहा है.

लेकिन – सहसा – सीकर जलमेघ उमड़ता

कुहरित चिलमन सा अवगुंठन करता

सुंदरतम मोहकतम चित्रित वर्णोँ को रोध रहा है.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तू भी है पूरा कथाकार! करता है सुंदरतम वर्णन.

इतना छोटा, फिर भी करता है सपनोँ का सर्जन.

मैँ तो कुछ भी देख न पाता –

मनुडिंभ

सचमुच, कैसे देखेगा तू – उत्तर का वासी,

धुंध और कुहरे मेँ जनमा

मुल्लोँ और पुजल्लोँ के दलदल मेँ पनपा

तेरी आँखेँ हो सकती हैँ – मात्र धुआँसी.

तेरा आवास ठहरा – अंधकार.

(चारोँ ओर देखता है.)

फफूँद लगे पत्थर, सीलन भरे, गंदे, बदबूदार –

नोकीले मेहराब, दबाते, दमघोँटू, नक़्क़ाशीदार!

ऐसे मेँ इसे आया होश, तो जाएगा बंटा ढार,

जागते ही हो जाएगा यह ढेर.

इस के सपनोँ मेँ हैँ खिले खुले वन, बहते निर्झर,

राजहंस, निर्वसन सुकुमारियाँ – सौंदर्य अपार…

स्वप्न मेँ और यथार्थ मेँ है कठोर अंतर –

मैँ तक नहीँ कर पा रहा दोनोँ मेँ संतुलन –

कैसे सह पाएगा यह स्वप्न से गिरना धरा पर?

ले चलो इसे यहाँ से!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

  कहाँ? सुनना चाहूँगा मैँ उत्तर.

मनुडिंभ

योद्धा को मिल जाए संग्राम का अवसर

सुंदरी के पैर थिरकेँ स्‍वरोँ पर –

तो हो कर रहेगा उपयुक्त संगम.

अभी तो – मेरे मन मेँ आता है बस एक अवसर –

ले चलेँ इसे सांस्कृतिक वालपुरगिस रात मेँ तत्पर.

इस के लिए कुछ और नहीँ हो सकता बेहतर –

ले जाएँ इसे – इस का मन है जहाँ पर.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

यह नाम सुनने को मिला नहीँ कोई अवसर.

मनुडिंभ

बताएँ तो, श्रीमान – कैसे सुन पाते आप?

बस, रूमानी पिशाचोँ से पड़ा है आप को काम!

सच्चे प्रेतोँ को होता है प्राचीन संस्कृति से काम.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तो बताएँ, श्रीमान – किधर करना है प्रयाण?

आप के पौराणिक यार – पहले ही आ रही है घिन.

मनुडिंभ

पश्चिम उत्तर मेँ है तेरा डेरा, अधम,

दक्षिण पूर्व की ओर हमेँ करना है प्रयाण –

विस्तृत मैदान – जहाँ बहती है पीनियस की धार

मौन कुंडोँ मेँ ठहरती, कुंजवनोँ मेँ मठराती,

चलती है मस्‍ती मेँ शाद्वलोँ मेँ इठलाती.

पर्वती दर्रोँ तक फैला है मैदान.

सरिता के तट पर बसा है प्राचीन फारशाला महान.

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मैफ़िस्टोफ़िलीज़

बस, बस. मत कराएँ अब फिर से स्मरण –

आतताइयोँ और दासोँ मेँ जो हुआ था भीषण संग्राम.

नाम सुनते ही होने लगती है थकान.

बार बार दोहराता है इतिहास ऐसे संग्राम.

कोई भी कठपुतली नहीँ पाती पहचान –

पीछे अस्मोदी के हाथ मेँ है डोर की कमान.

सब समझते हैँ – वे हैँ स्वाधीनता के योद्धा महान.

ध्यान से देखो तो पाओगे दासोँ से दासोँ का हो रहा है संग्राम.

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मनुडिंभ

छोड़ो भी! लड़ता भिड़ता ही रहता है मानव से मानव.

बचपन से सीखना पड़ता है हर एक को अपना बचाव

तभी मानव बन पाता है मानव.

आओ, देखेँ – कैसे कर सकते हैँ हम इस मानव का बचाव.

नहीँ है तेरे पास कोई उपाय, तो करने दे मुझी को युक्ति.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

होती हार्ट्ज़ पर्वतमाला मेँ ब्रौकन शिखरोँ की बात

तो दिखलाता मैँ भी दोचार हाथ.

बंद होँगे मेरे वास्ते देवपूजकोँ के द्वार.

ग्रीकोँ का नहीँ था कोई भी मूल्य,

उन के उन्मुक्त भोग करते हैँ इंद्रियोँ पर चमत्कार,

मानव मन को मोहित कर लेते हैँ पाप – आह्लादमय.

हमारी करनी मानी जाती है – दुर्गुण, अपराध.

तो, अब?

मनुडिंभ

आप पर नहीँ लगा सकता कोई लाज का आरोप!

हाँ, मैँ ले बैठूँ जो थेसाली की डायनोँ का नाम,

तो मेरा कहा नहीँ जाएगा निष्फल, निष्काम.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़ (वासना से भर उठता है.)

क्या कहा! डायनेँ थेसाली की!

युगोँ से रही है मुझे उन की तलाश.

करना विश्राम रात रात – लेटना उन के साथ

नहीँ होगी मेरे लिए सर्वोत्तम अभिलाष.

फिर भी, थोड़ा सा आस्वाद…

मनुडिंभ

तो, लेँ, लपेट देँ मायावी चादर मेँ नायक.

पहले के समान ले जाएगी चादर की माया

वायवी मार्गोँ पर इस की और आप की काया.

मैँ बनूँगा अब आप का मार्गदर्शक.

वाग्नर (अवसादपूर्वक)

और मैँ?

मनुडिंभ

        मैँ क्या? आप रहेँगे यहीँ घर पर.

आप के लिए शेष हैँ अभी अनेक महत्वपूर्ण काम.

आप को खोजने पढ़ने समझने हैँ पुराने दस्तावेज, ग्रंथ,

करना है जीवन के तत्वोँ का संकलन,

साध कर ध्यान – बनाने हैँ नए से नए मिश्रण,

रचने हैँ नवीन से नवीन जीवन.

करना है विचार – क्या पर,

कैसे और क्योँ से बढ़ कर!

इस बीच मैँ करूँगा विश्व मेँ भ्रमण –

खोजने को मैँ की बिंदी.

प्राप्त होगा महालक्ष्य तभी,

तभी तो करणीय है ऐसा प्रयास अभी –

पाने को स्वर्ण, गौरव, संचेतना, सम्मान,

विज्ञान… और संभवतः पुण्य महान.

 

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वाग्नर (दुःखी मन से)

विदा! मेरे मन मेँ है अवसाद.

भय है – यह न हो हमारी अंतिम मुलाक़ात.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तो उतरेँ नीचे पीनियस तट पर

मनुडिंभ से सहायता ले कर!

अच्छे सहायक सिद्ध होँगे यह श्रीमान.

(दर्शकोँ से – )

सचमुच, यह सत्य है महान –

हम निर्भर हैँ उन जीवोँ पर

जिन का हम करते हैँ निर्माण.

 

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