फ़ाउस्ट – भाग 1 आरंभ – समर्पण, मंच पर प्ररोचना – स्वर्ग मेँ पूर्वपीठिका

In Culture, Drama, Fiction, Poetry, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

 

 


महाकवि योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे कृत

जरमन काव्य नाटक

फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

अविकल हिंदी काव्यानुवाद

भाग 1 समर्पण, मंच पर प्ररोचना, स्वर्ग मेँ पूर्वपीठिका

अरविंद कुमार

इंटरनैट पर प्रकाशक

अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा लि

ई-28 पहली मंज़िल, कालिंदी कालोनी

नई दिल्ली 110065


© अरविंद कुमार – सर्वाधिकार सुरक्षित

 

स्वत्वाधिकारियोँ की पूर्वलिखित अनुमति के बग़ैर फ़ाउस्टएक त्रासदी हिंदी काव्य अनुवाद का पूर्णतः या अंशतः, संक्षिप्त या परिवर्धित रूप मेँ, किसी भी प्रकार का और किसी भी वर्तमान और भावी विधि या तकनीक से, पुनरुत्‍पादन, पुनर्मुद्रण और रूपांतरण पूरी तरह वर्जित है. इस के संक्षिप्त अंश समीक्षाओँ मेँ उद्धृत मात्र किए जा सकते हैँ.

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मंचन, फ़िल्मांकन, टेलिविज़न पर प्रदर्शन के लिए लिखेँ -

अरविंद कुमार

सी-१८, चंद्र नगर, ग़ाज़ियाबाद २०१०१

समर्पण

घिर आए फिर तुम, झिलमिल प्रेत पुराने,

छाए थे पहले जो उद्वेलित मन पर मेरे.

क्या बाँधूँ तुम को, ओ मेरे आधे पहचाने?

उल्लास पुरातन क्या छाएगा मन पर मेरे?

कुहरित छायादल से उमड़े घुमड़े नियराने.

लो, राज करो जैसे तुम चाहो मन पर मेरे.

माया ने चिलमन के पीछे जो पथ दिखलाए

यौवन के उद्दाम भाव अब फिर से गहराए.

 

उल्लास भरे दिन थे जो, उन का हर्षद दर्शन.

फिर से उभरे स्वप्न, पुराने प्रियजन आए.

विस्मृत गीतोँ की धुन पर अतीत का नर्तन.

प्रथम प्रेम, यौवन के मीतोँ के दर्शन पाए.

विगत पथोँ पर फिर से चलना है क्रंदन.

अनबूझ भुलैयाँघुसने से जीवन घबराए.

जो अच्छे थे, काल छीन कर उन्हेँ ले गया,

उन की मीठी दर्दीली यादेँ मुझे दे गया.

 

 

 

 

जिन्हेँ सुनाए मैँ ने अपने गीत पुराने,

नहीँ करेँगे नए स्‍वरोँ का वे आस्वादन.

अंधकार मेँ अब विलीन हैँ मीत पुराने,

शांत हो चुके प्रीत भरे वे गीत पुरातन.

मेरे दुःख के श्रोता हैँ अब जन अनजाने

वे हर्षित हैँ, जगते हैँ मुझ मेँ नित भय नूतन.

कुछ हैँ अब भी मेरे गीतोँ के साथी.

धरती पर दूर दूर बिखरे हैँ वे साथी.

 

बरसोँ बरजा जिस इच्छा को मैँ ने,

फिर उत्सुक चलने को मानस पथ पर मंथर.

देवोँ के मद्धम गीत सुने जो मन मेँ मैँ ने

गूँज रहे हैँ पवन झकोरोँ से अब झंकृत हो कर.

आतंकित हूँ. बहते जलते आँसू के झरने.

गिरता पड़ता पीड़ा से विह्वल मन निष्ठुर.

जो कुछ मेरा हैदूर दूर फैला धरती पर.

जो कुछ खोया हैहोता जाता है सत्य अनश्वर.

 

मंच पर प्ररोचना

पहले फ़ाउस्ट मेँ केवल स्वर्ग मेँ पूर्वपीठिकाथी, जिस मेँ भगवान और शैतान के बीच शर्त लगती है. कालिदास का संस्‍कृत नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम् गोएथे ने अपने जीवन मेँ काफ़ी बाद मेँ पढ़ा. इस से प्रभावित हो कर फ़ाउस्ट के लिए उन्होँ ने संस्‍कृत नाटकोँ की शैली की एक प्ररोचना लिखी. इसे मंच पर प्ररोचना कहते हैँ. यह सूत्रधार, कवि और विदूषक के बीच नाटक विधा के उद्देश्योँ के बारे मेँ बहस जैसा वार्तालाप है.

 

सूत्रधार. कवि. विदूषक.

सूत्रधार

ऊँच नीच मेँ तुम दोनोँ हरदम मेरे साथ रहे हो.

देश जरमन मेँ दर्शक को कैसे बाँधोगे, बोलो.

जनता जनार्दन ख़ुद जीती है, मुझे जिलाती.

वे आएँ, देखेँ, ख़ुश हो कर जाएँ – इच्छा है मेरी.

मंच बन चुका, दृढ़ हैँ उस के पाए.

दर्शक बैठे हैँ – उत्सुक , मुँह बाए.

देखो उन को – कैसे बैठे हैँ उत्सुक नयनोँ से.

उन की इच्छा है – कोई उन का मन भरमाए.

मुझे पता है – क्या है उन के मन मेँ.

इस से पहले नहीँ पड़ा मैँ ऐसे संकट मेँ.

समझो मेरी बात… नहीँ हैँ वे सर्वोत्तम के आदी.

लेकिन बहुत पढ़ा है सब ने, उन की आशा है ऊँची.

इन का रंजन हो कैसे? – नूतनता, ताज़ापन तो हो ही.

औरोँ से ऊपर उठ कर हो, उदात्त हो – कुछ ऐसा भी.

समझे तुम – मुझे चाहिए ऐसा दर्शक मंडल

जो हो दरवाज़े मेँ घुस पड़ने को व्याकुल, उतावला.

उस की करतल ध्वनि से गुंजित हो जाए शाला.

संध्या ढलने तक वे ऐसे लगते होँ

जैसे अकाल मेँ रोटी पाने को भूखे लड़ते होँ.

कवि, केवल तुम – सच्चा कर सकते हो यह सपना.

बिकवा दो सब टिकट. होने दो घक्कम घक्का.

दरवाज़े मेँ घुसने को होने दो मुक्कम मुक्का.

कवि

मत न्योतो तुम भीड़ भड़क्का, जन साधारण.

उन के दर्शन से करती है कविता तत्काल पलायन.

है मेरा करबद्ध निवेदन – रोको, उन को रोको,

कवियोँ पर सस्ती गालीगुफ़्ता को रोको.

हमेँ ले चलो ओलिंपस पर्वत के एकाकी बादल मेँ.

कवियोँ का उल्लास बसे उन्नत बादल मेँ.

उन के मन के उपहार जनमते हैँ बादल मेँ.

प्रेम और सौमनस्य पनपते हैँ प्रभु के अपने संरक्षण मेँ.

कवियोँ के मन मेँ जो अंकुर उगते हैँ

पहले वे सकुचाते शरमाते छंदोँ मेँ ढलते हैँ –

टूटे फूटे कभी, कभी मोती से निखरे सँवरे.

भूखा काल तत्काल गाल मेँ डाले.

कभी कभी तो एक चरण चमकाने मेँ लगता है जीवन.

चमक दमक अकसर ही क्षणभंगुर है होती.

कविता का सच्चा मोल पाती है आने वाली पीढ़ी.

विदूषक

आने वाली पीढ़ी! मुझे नहीँ है उस की चिंता, राई रत्ती!

हम ने चला दिया जो पीढ़ी का चक्कर, देने लगे यदि हम भाषण,

तो – जो आज यहाँ है – कौन करेगा उस का रंजन!

चाहते हैँ वे केवल मनरंजन! देँगे हम उन्हेँ मात्र मनरंजन!

अच्छा कलाकार वही है – जो करता जनरुचि का मार्जन!

खुल कर कहता रह सकता है जो – निज मन की बात

नहीँ सताता उस को, प्यारे, जनता का भय. सच है बात –

रच दो नया उदाहरण – दौड़ा दो कल्पना के घोड़े,

ठूँस दो गाने ढेर सारे – नहीँ कम या थोड़े.

तर्क, बुद्धि, भाव, उन्माद – सब के सब भर दो भरपूर.

ध्यान रहे, विदूषक की भूमिका जाना मत भूल.

सूत्रधार

ध्यान रहे – घटनाएँ होँ भरपूर!

देखने वालोँ के लिए मसाला हो भरपूर!

होँ ढेर सारे सूत्र – भव्य आडंबर से भरपूर!

मार लोगे मैदान! होगी तालियोँ की गूँज!

भर जाएगा कविता का कोश! पाओगे संतोष!

लगा दो ढेर! खोल दो पिटारा! परोस दो ऐसा माल

जिस मेँ हरएक को मिल जाए पसंद का माल.

लगा दो ढेर! कर दो ख़ुशियोँ से सराबोर!

हो जाएँ दर्शकोँ की आँखेँ चकाचौँध!

एक साथ चलेँ कई प्‍लाट – जोड़ दो जैसे तैसे!

थोड़ा है माल, तो परोसो टुकड़े टुकड़े.

भूल जाओ साहित्य के सिद्धांत ऊँचे ऊँचे.

पका दो खिचड़ी, डाल दो बारह मसाले –

बनाने मेँ आसान, कर दिखाने मेँ आसान.

कवि

क्योँ नहीँ समझते आप लोग!

सच्चे कलाकार को गिरा देती है धकापेल.

लगता है – चाहते हैँ आप लोग

बहरूपिए भाँडोँ की रेलपेल!

सूत्रधार

मैँ दूँगा तुम्हारे आरोप का उत्तर, कलाकार!

हर अच्छा कारीगर चुनता है काम के हिसाब से ही औज़ार.

मुलायम है – चीरना है जो तुम्हेँ काठ!

हमेशा रखो याद – कौन हैँ तुम्हारे दर्शक.

जीवन से ऊबे लोग! भरपेट खाए पीए मस्त लोग!

यही नहीँ, ऐसे भी होते हैँ लोग – जो पढ़ते हैँ अख़बार –

अख़बार जो ठूँसते हैँ दिमाग़ मेँ भाँति भाँति के विचार.

थेटर मेँ आते हैँ सब के सब ऐसे

मुखौटोँ के नाच मेँ जाते होँ जैसे.

नएपन की तलाश भरती है उन के क़दमोँ मेँ उड़ान!

महिलाएँ आती हैँ सज सँवर कर ऐसे

मुफ़्त की अभिनेत्री दिखाती है फ़ैशन जैसे.

कवि, किस काम की है कल्पना की उड़ान!

किन लोगोँ से भरा है खचाखच सभागार!

सोचो – कौन हैँ, क्या हैँ तुम्हारे दर्शक!

आधे लाते हैँ ऊँचे संस्कार, आधे आते हैँ पूरे बोर!

वह जो बैठा है – परदा गिरने पर जाएगा खेलने ताश!

और जो बैठा है उस के पास –

वह बिताएगा रात छिनाल के साथ!

जाने क्योँ, तुम कवि होते हो पागल –

सरस्वती की साधना के दीवाने!

जनता को दो और! और! और!

कर दो सराबोर!

सफलता का सेहरा लग जाएगा सिर पर.

नहीँ दोगे सुख, तो पाओगे सुख कैसे…

क्योँ, क्या हुआ? हँस रहे हो या रहे हो रो?

कवि

मुझ से नहीँ होगा यह काम! पकड़ लाओ कोई और!

चाहते हो – मैँ? – करूँ कविता देवी का निरादर!

भूल जाऊँजो कवियोँ को मिला है आदेश!

पालना ऊँचे आदर्श! देना मानवता का संदेश!

त्याग दूँ कर्तव्य – भरने को तुम्हारा धनकोश!

जानते हो –

क्योँ थिरकते हैँ मन – कविता की तान पर?

भौतिक तत्व क्योँ नाचते हैँ – कविता की लय पर?

क्योँ नाचती है घरती – कविता की ताल पर!

प्रकृति की देवी जब कातती है चरख़ा

तो निकलता है उस से धागा अंतहीन.

घूमती है धरती – करती कोलाहल अर्थहीन.

कौन है जो खोज पाता है उस मेँ तारतम्य?

कौन है जो देख पाता है विश्व का तालबद्ध नर्तन?

कौन है जो समझ पाता है सृष्टि का संपूर्ण आरोह अवरोह?

कौन है जो उस एक को जोड़ पाता है सब से?

किस की लय पर घड़कता है संसार का कलेजा?

किस की क़लम ने लिखा है तूफ़ान का उन्मत्त गान?

शोकाकुल मनोँ मेँ कौन भरता है सूर्यास्त की लाली?

कौन है जो फूलोँ से पाट देता है प्रेम की राह?

कौन है जो कलियोँ से, पत्तियोँ से, गूँथता है

सम्मान का मुकुट, विजेताओँ के कंठ की माल?

कौन है जिस ने सुरक्षित रखा है ओलिंपस पर्वत?

कौन है जो जोड़ता है देवता से देवता?

वह है मानव के मन मेँ कवि की, कविता की, सत्ता!

विदूषक

तो, बंधु, यह सब –

जो है तारतम्य, विश्व का नर्तन, कविता की सत्ता!

जिस सब से चलता है सृष्टि का संपूर्ण व्यापार!

प्रिय बंधु, इसी से चलता है प्रेम का व्यवहार!

मानो मेरी बात…

अचानक एक मुलाक़ात,

मन मेँ उथलपुथल, दिलोँ की धड़कन, उलझन,

हर्ष उल्लास, झगड़ा, तकरार!

एक दिन का सुख बन जाता है दुःख का आधार!

आप को लगता है – आप लिख सकते हैँ इस पर उपन्यास!

तो, मेरे दोस्त, इसी पर क्योँ नहीँ रचते नया नाटक!

आप चाहते हैँ पूरा मानव जीवन!

हर मानव जानता है – क्या है जीवन.

अधिकतर लोग नहीँ जानते जीवन का अर्थ.

सच, दुर्लभ है जानना जीवन का अर्थ.

आओ, अब मैँ दिखाता हूँ तुम्हेँ –

कैसे बनता है प्याला मनमादक –

अच्छा हो, ताज़ा, और पीने के लायक़!

नहीँ हो वह हलका. हो दृश्योँ से भरपूर!

हो पूरी तरह भ्रामक, साथ मेँ हो सत्य की थोड़ी सी झलक!

पूरे देश के नौजवान टूट पड़ेँगे देखने को प्रदर्शन!

उतावले हो जाएँगे, हो जाएँगे भावुक,

उन के मन मेँ होगी ललक –

चाटने को तुम्हारे दर्दीले शहद की एक एक बूँद!

पहले झूम उठेगा यह, फिर गरमाने लगेगा वह.

हरएक को दिखेगा बस वही, जो देखना चाहता है वह!

मेरे दोस्त, हँसने रोने को तैयार रहते हैँ नौजवान.

छलावे मेँ खोने को तैयार रहते हैँ नौजवान.

जब ढलने लगती है उम्र, तो निढाल हो जाता है मन.

बढ़ रहे हैँ जो, स्वागत मेँ बढ़ते हैँ उन के मन.

कवि

तो लौटा दो मुझे वे दिन – जब मैँ था जवान,

जब प्रेरणा फूट पड़ती थी अधरोँ से बन कर गान.

जब मायावी कुहरे मेँ छिपा था अनजाना अनचीन्हा संसार.

जब कली कली मेँ दिखता था चमत्कारी निखार.

जब हर वादी थी मेरे अपने फूलोँ से सराबोर.

हर तरफ़ कुछ नहीँ था, बस थी बहार ही बहार.

थी सत्य की खोज, था मन मेँ उल्लास.

फिर से बहने दो वह उन्माद, पीरभरा हर्ष उल्लास,

नफ़रत की ताक़त, प्रेम का उद्दाम प्रवाह.

हाँ, लौटा दो मुझे वे दिन – जब मैँ था जवान.

विदूषक

मेरे दोस्त, बड़ी अच्छी है जवानी.

बड़े काम आती है जवानी –

जब सामने हो दुश्मन,

मदमाती प्रेमिका जब चाहती हो चुंबन, कस कर आलिंगन,

दौड़ मेँ जब कुछ ही दूर हो जीत का पत्थर.

जब चहकती हो महफ़िल, जब डुबोने होँ ग़म,

तो, बंधु, बड़े काम की चीज़ है जवानी.

लेकिन कविता – जब कविता को चाहिए

संयम की शक्ति और शैली का विधान

और दोनोँ का संगम आलीशान,

जब छाया हो गहन अंधकार

और चलना हो टटोलते राह, ले कर दैवी आधार –

तो, प्रिय बंधु, काम आता है बुढ़ापा,

काम आता है अनुभव, अभ्यास.

सम्मान पाता है ऐसा ही प्रयास.

बुज़ुर्गों ने कहा है –

आदमी को बच्चा बना देता है बुढ़ापा.

मैँ कहता हूँ – ग़लत है यह बयान, बच्चा!

आदमी रहता है हमेशा बच्चा!

सूत्रधार

बहुत हो चुकी शब्दोँ की बौछार.

अब दिखाना है कर्म का व्यवहार.

हमेँ करने हैँ बड़े काम –

क्योँ चलती रहे यह बातोँ की गुत्थमगुत्था,

आपसी शिष्टाचार.

कला के सृजन का मूड! हमेँ क्या है मूड से काम!

फिर तो सारी रात करना पड़ेगा इंतज़ार!

तुम कहते हो – कवि हो तुम!

तो आरंभ हो – कविता का पाठ!

 

समझ गए हो तुम – क्या है दरकार.

मुझे चाहिए उन्मादक पेय.

तो – चलो, खीँचो शराब.

टालते रहे आज की रात

तो अनकिया रह जाएगा कल भी!

इस लिए मत बिलमाओ, मत गँवाओ एक पल भी.

संकल्प को करने दो अवसर पर वार.

पूँछ से पकड़ लो अवसर.

लटक गए एक बार –

तो छोड़ नहीँ पाओगे – होँ कितने ही लचर लाचार.

 

जरमन नाटक मेँ काम का अर्थ है भरसक प्रयोग.

इसी लिए कहता हूँ –

सब यंत्र उपकरण पहले से तैयार कर लो

परदोँ के दृश्य पहले से तय कर लो.

 

आकाश तक उड़ो, तोड़ लाओ चाँद और सूरज

तोड़ लो हर तारा…

जल से, ज्वाला से, पर्वत शिखर से,

उड़ते पंछी से, दौड़ते डंगर से,

सृष्टि की सीमा से भर दो दृश्य.

जाने दो जहाँ भी जाता है मन –

स्वर्ग से उतर कर

घरती तल पर

फिर नरक के भीतर तक.

स्वर्ग मेँ पूर्वपीठिका

फ़ाउस्ट के आरंभ मेँ पहले केवल यह पूर्वपीठिका ही थी. इस से पहले वाली मंच पर प्ररोचना बाद मेँ जोड़ी गई थी. स्वर्ग मेँ पूर्वपीठिका ही नाटक मेँ अंतर्निहित संघर्ष का आधार स्थापित करती है. यह है भगवान और मैफ़िस्टोफ़िलीज़ के बीच लगी शर्त. मैफ़िस्टोफ़िलीज़ इस बात पर ध्यान नहीँ देता कि फ़ाउस्ट पर उस का आधिपत्य काल इन शब्दोँ मेँ सीमित कर दिया गया है: ‘जब तक है उस के जीवन का व्यापार/तब तक होगा उस पर तेरा अधिकार.’

भगवान. देवदूत – राफेल, जिब्राएल और माइकेल. मैफ़िस्टोफ़िलीज़.

राफेल

सूर्य का संगीत नभ मेँ गूँजता है.

संगीत के स्वर मेँ ग्रहोँ के स्वर मिले हैँ.

गर्जना कर सूर्य का रथ घूमता है

नियति से सब वर्ष जो उस को मिले हैँ.

दिव्य ज्योति, देवताओँ का बनो बल.

कौन जो इस ज्योति के उस पार देखे.

    दिव्य का विस्तार सीमाहीन केवल.

    है उजागर आज भी संसार देखे.

जिब्राएल

बहुत ही तीव्र चलता है जोमन है

और उस से तीव्रतर चलती धरा है.

दिव्य से ज्योतित सदा रहता गगन है

ज्योति से बनती कुटिल काली निशा है.

क्रोध मेँ सागर उफनता है मचलता

सिर पटकता वह जहाँ गहरी शिला है.

    पिंड धरती का निरंतर गोल चलता

    साथ सागर चल रहा, चलती शिला है.

माइकेल

एक हैललकारता जो दिव्य सत्ता

एक ही तूफ़ानजल थल पर मचलता.

ठोँकता ख़मऔर है खुल कर गरजता

निज राह मेँ संसार का वह नाश करता.

    दिव्य अपना वज्र उस पर कौँध देता

    चोट खा कर वज्र की तूफ़ान रुकता.

सब

दिव्य ज्योति, देवताओँ का बनो बल.

कौन जो इस ज्योति के उस पार देखे.

    दिव्य का विस्तार सीमाहीन केवल.

    है उजागर आज भी संसार देखे.

    सब दूत अब भी भक्त हैँ, भगवान, तेरे

    संसार मेँ हर ओर हैँ गुणगान तेरे…

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

सत्ताधारी दौरे पर आया.

पूछ रहा है – है जग कैसा.

वाह, मुझे भी बुलवाया है.

पर खुद तू चमचोँ मेँ बैठा.

मेरा काम नहीँ नभ वर्णन.

हर देवदूत मुझ पर हँसता है –

सुन जग की पीड़ा का वर्णन.

मुझ पर, प्यारे, तू भी हँसता…

लेकिन तू हँसना भूला है

सुन चंदा सूरज का वर्णन.

मानव को रच कर भूला है

मानव मेँ निशदिन संघर्षण.

अर्धदेवता यह धरती का

अब भी पहले जितना सड़ियल.

वह भी ऊँचा उठ सकता था,

लेकिन वह बन बैठा अड़ियल.

 

हर दम लड़ना, हर दम अड़ना

बात बात मेँ तर्क भिड़ाना

समझा है मूरख गुण अपना.

तेरा यह उपहार पुराना –

है यह कीड़ोँ से भी बदतर.

जैसे हो लमटंगा टिड्डा.

औँधे मुँह गिरता है उड़ कर

लेट घास मेँ रोता रहता.

रोता रहे वहीँ है बेहतर

गोबर मेँ धँसता है अकसर.

भगवान

तेरा हर दम यही कथन है

तेरा हर दम यही रुदन है…

मेरी सृष्टि मेँ बस क्रंदन है?

नहीँ एक भी आकर्षण है?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

हाँ, भगवान, सृष्टि मेँ तेरी

नहीँ एक भी आकर्षण है.

मानव पर विपदा है भारी

चारोँ ओर करुण क्रंदन है.

मानव के दुखड़ोँ का वर्णन

करने का मुझ मेँ साहस कम है.

भगवान

जानता है तू फ़ाउस्ट को?

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

वह डाक्टर? अध्यापक? दार्शनिक?

भगवान

हाँ, वही. सुपंथी – मेरा सेवक!

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

बेहद घटिया सेवक!

नामी डाक्टर का बेनाम पूत

हरदम रहता है अपने मेँ अभिभूत.

नाम का अर्थ है सुभागा

लेकिन है भाग्य से अभागा.

मूरख है पागल विज्ञानी

सुख की कोई बात न जानी.

तारोँ से बातेँ करता है

नामी डाक्टर का बेनाम पूत

हरदम रहता है अपने मेँ अभिभूत.

महाज्ञान का दम भरता है…

चरम सुखोँ का वह इच्छुक है…

निकट दूर जो भी सब कुछ है –

पा कर भी वह दुखी रहेगा.

नई नई बातेँ सोचेगा.

 

भगवान

मानता हूँ – मोह से अब वह घिरा है

ज्ञान का सागर मगर मन मेँ भरा है.

हर एक माली जानता यह बात –

होनहार बिरवान के होत चीकने पात.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

तो फिर हो जाने दे शर्त –

करूँ मैँ कोई भी छलछंद

उसे ले जाऊँगा कुपंथ.

भगवान

ठीक! जब तक है उस के जीवन का व्यापार

तब तक होगा उस पर तेरा अधिकार.

कर्म है यदि धर्म मानव का

तो भूल है अधिकार मानव का.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

अच्छा किया तू ने, भगवान,

दिया कुल जीवन तक वरदान.

मुझे नहीँ भाते मुरदे –

मानव होँ बस चलते फिरते,

मौज मनाते, हँसते, गाते.

मरे चूहोँ से बिल्ली रहती है दूर

और मैँ भी रहता हूँ मुरदोँ से दूर!

भगवान

तो ठीक है – तू जैसे चाहे

उसे बहकाए, फुसलाए, ललचाए,

दिव्य स्रोतोँ से दूर ले जाए,

जितना भी चाहे नीचे को ठेले, धकेले,

माननी पड़ेगी तुझे हार.

होता है उन्नत मन जिन के भीतर

वे करते हैँ सत्य का अनुसंधान – अविराम… निरंतर…

जो भी करता है कर्म अविश्राम

उसे देते हैँ हम मोक्ष का वरदान.

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

ठीक है! देखते हैँ!

पुण्य रह जाएगा सिमट कर

शक नहीँ है इस मेँ राई भर, रत्ती भर.

जमा दूँ मैँ अपना सिक्का,

तो तू भी कर वादा पक्का –

तू करेगा मेरा गुणगान

ख़ूब होगा मेरा विजय गान.

भगवान

चल होगा तेरी विजय का गान.

तेरे जैसे जितने भी गण हैँ मेरे

वे भी प्रिय हैँ मुझे अन्य समान.

जो हर दम बघारते रहते हैँ शान

उन से मैँ होता नहीँ परेशान.

अखंड शांति मेँ हो कर लिप्त

जब मानव को मिल जाता है संतोष

तो वह भूल जाता है अपना धर्म.

मानव का धर्म है कर्म, बस कर्म…

अस्वीकार के दूत, अंधकार के चितेरे!

बड़े शौक़ से भेजता हूँ मैँ तुझे –

जा, बहला और फुसला तू उसे.

(सब देवदूतोँ से : )

तुम सब हो भगवान के प्रिय पूत.

लो सराहो तुम सब सौंदर्य का रूप.

सब मेँ छिपा है यह सौंदर्य का रूप.

तुम्हेँ देता है सर्जनहार अनश्वर

सौंदर्य प्रेम का नित नूतन उपहार.

जो कुछ भी है जग मेँ गोचर

उस मेँ दिखता है परिवर्तन निरंतर,

लेकिन जो कुछ है उन सब के भीतर

अविचल है

परम सत्य है

और अगोचर…

मैफ़िस्टोफ़िलीज़

अच्छा ही है मिलते रहना –

जब भी आए पुरातन पुरुष

बातेँ कर लेता है हँस कर.

काम आता है बनाए रखना

शैतान को भी बड़ोँ से रसूख़…

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