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भारत के टकराते बढ़ते क़दम

In Art, Culture, History, People by Arvind KumarLeave a Comment

–अरविंद कुमार

 

 

आज की तेजी से बढ़ती दुनिया मेँ हम लंबी छलाँगें लगाते नहीं दौड़े, तो पिछड़ेपन के गहरे दलदल मेँ धँसते चले जाएँगे.

 

 

द्वंद्व, संघर्ष, टकराव जीवन की, प्रगति की, पहली शर्त हैँ. सृष्टि के आरंभ से हर जीवजाति, वनस्पति, समूह, इकाई आपस मेँ टकराते लड़ते भिड़ते कमज़ोर के विध्वंस और मज़बूत के उत्कर्ष के साथ आगे बढ़ते रहे हैँ.

clip_image002ये बड़ी बड़ी वैज्ञानिक सिद्धांत की बातें वैज्ञानिकों विचारकों के पल्ले डाल कर हम आधुनिक भारत के टकरावोँ पर नज़र डालेँ. आज के भारत की शुरूआत मैं सन 47 से मान कर चलता हूँ. तब मैं 17 साल का था… देशभक्ति से भरपूर, दिल्ली काँग्रेस मेँ छोटे से स्वयंसेवक के तौर पर सक्रिय… उस साल की 14-15 अगस्त की रात हम लोगों की टोली ट्रक मेँ लद कर करोलबाग़ की सड़कों पर मस्ती मेँ झूमती नारे लगाती चक्कर लगाती रही. सुबह हुई तो नए जोश से भरपूर हम लाल क़िले जा पहुँचे… पंडितजी का भाषण सुनने… हज़ारोँ लाखों सुनने वाले थे. पंडितजी ने पूरे लंबे इतिहास का कम शब्दों मेँ जायज़ा लेते हुए सीधी सादे शब्दों मेँ बता दिया कि हम कौन हैँ, कितने पुराने हैँ और अब आगे कहाँ जाना है.

 

सरकार के पास ख़ुशियों मेँ खो जाने का समय नहीं था. पाकिस्तान बन चुका था. इतिहास के सब से भारी टकराव से देश जूझ रहा था. हर तरफ़ दंगा, मारपीट, ख़ूनखच्चर से पार हो जाने पर ही देश बच सकता था. देश न सिर्फ़ बचा बल्कि आज दुनिया के सब से बड़े स्वतंत्र प्रजातंत्र के रूप मेँ सब की आँखों का तारा है.

विभाजन हिंदु-मुस्लिम टकराव का परिणाम था. आज़ादी से पहले मुसलमान नेता कहते थे कि हिंदु-बहुल भारत मेँ मुसलमान पिच जाएँगे. हिंदु नेता हिंदुत्व ख़तरे मेँ है का नारा लगाते रहते थे. कमाल की बात यह है कि वह टकराव आज साठ साल बाद भी चल रहा है. कुछ नेताओं की रोज़ी रोटी इसी बात पर चलती है टकराव को जितना बढ़ाएँगे चढ़ाएँगे, जितने उत्तेजक नारे लगाएँगे, जितने भ्रामक तर्क पेश करेँगे, उतना ही दोनों कमाएँगे, सत्ता के क़रीब आएँगे… कई बार लगता है दोनों मेँ मिलीभगत है…

इसी से जु़ड़ा है आतंकवाद का सवाल. जिस आतंकवाद से दुनिया आज जूझ रही है वह इसलामी आतंकवाद के नाम से जाना जाता है. हर धर्म समय समय पर कई लहरोँ से आंदोलित होता रहा है. कभी उग्रवाद ज़ोर पर होता है, कभी उदारतावाद. पिछले कई दशकों से इसलाम उग्रवाद के भीषण दौर मेँ है. उग्रवाद से लड़ाई भारत मेँ ही नहीं, पाकिस्तान मेँ, मिस्र मेँ, सूडान मेँ, जार्जिया मेँ, सिंकियांग (चीन) मेँ चल रही है. हल किसी एक के पास नहीं है. निपटने का रास्ता मात्र हथियार नहीं हैँ. यह लड़ाई वैचारिक स्तर पर बहुत देर तक चलने वाली है. 

हिंदु मुसलमान, सिख ईसाई से हट कर देखें तो तरह तरह के छोटे बड़े टकराव हैँ. सब का आधार है आर्थिक हिस्सेदारी. हमारे पास जितनी भी रोटी है उसमेँ से किसको कितनी मिलेगी?

आजादी किस के लिए

नेताओं ने इन टकरावोँ की संभावना 1930 मेँ ही देख ली थी. पंडित नेहरू ने तब कहा था कि हमेँ तय करना चाहिए कि आज़ादी किसके लिए होगी. देश–मतलब क्या? गाँव, शहर, किसान, व्यापारी, उद्योगपति, दिल्ली, पंजाब, बंगाल… हिंदु, मुसलमान, ईसाई, सिख, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र… अहीर, यादव… नागा, गोरखा… आदिवासी… भील, संथाल… टाटा बिरला, किसान, मज़दूर… ? आख़िर देश इनमेँ कोई एक है या सब को मिला कर एक है? जातीय, स्थानीय, सांप्रदायिक, भाषाई–तरह तरह के टकरावोँ की पूरी संभावना थी. योजना आयोग बने तो सब से पहले तय किया गया कि उद्योग किसी एक इलाक़े मेँ नहीं पूरे देश मेँ फैलाए जाएँगे. विकास का मतलब होगा — सब का विकास.

पर देखा गया कि अधिकांश मलाई उच्च वर्गोँ के मुँह मेँ जा रही है. पिछड़े वर्गोँ के लिए आरक्षण की माँग उठना अपरिहार्य था. (अगर हिंदुओं का ही देश मान लिया जाता तो भी बहुत देर तक हिंदु का मतलब मात्र द्विज जातियाँ नहीं रह सकता था. पिछड़ी जातियाँ पिछड़ी रहेँ यह देर तक नहीं चल सकता था.) आरक्षण की ज़रूरत न भी पड़ती अगर समाज, सरकार, व्यापारी, कल कारख़ाने सब वर्गोँ के लोगों को काम मुहैया करने के लिए सचेत सक्रिय क़दम उठा रहे होते. हम जानते हैँ कि कितने उच्च वर्गीय युवकों को नौकरियाँ क्षमता या क्वालिफ़िकेशन के आधार पर मिलती हैँ और कितनों को सिफ़ारिश से. हम कहते कुछ भी रहेँ, सिफ़ारिश नौकरियों का मुख्य स्रोत रही है. क्वालिफ़िकेशन की बात तब आती है जब कोई सिफ़ारिशी सामने न हो.

क्वालिफ़िकेशन की बात तब तक बेमानी है जब तक उँची नीची सभी जातियों के लोगों को पढ़ाई का समान अवसर न मिले, यानी जब तक ग़रीबों को कम फ़ीस पर बड़े कालिजों मेँ दाख़िला न मिल सके. मैं अपनी ही बात कहता हूँ. मैं वैश्य वंश से हूँ पर निर्धन घर से हूँ. मेरी पढ़ाई मेरठ मेँ मुफ़्त के म्यूनिसिपल स्कूल मेँ हुई. मैट्रिक की पढ़ाई भी लगभग मुफ़्त सी, बेहद कम फ़ीस वाले स्कूलोँ मेँ हुई. चार विषयों मेँ डिस्टिंक्शन पाने के बाद भी पारिवारिक क्षमता नहीं थी कि मुझे कालिज भेजा जा सके. बाल श्रमिक के रूप मेँ मैंने 1945 मेँ काम करना शुरू किया. मित्रों की प्रेरणा से शाम के समय सस्ते प्राइवेट स्कूलोँ मेँ पढ़ना शुरू किया. भला हो पंजाब विश्वविद्यालय का कि पचासादि दशक मेँ दिल्ली मेँ उन्होंने शाम के समय उच्च शिक्षा का सस्ता कालिज–कैंप कालिज–खोल दिया. नाममात्र की फ़ीस पर मैं वहाँ से अच्छे नंबरोँ इंग्लिश साहित्य मेँ ऐमए कर पाया. उसी के बूते पर बाद मेँ मैं समांतर कोश हिंदी थिसारस और द पेंगुइन इंग्लिशहिंदी/हिंदीइंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी जैसे मानक कोश दे पाया. मेरे बेटे और बेटी की डाक्टरी और न्यूट्रीशन की उच्च शिक्षा भी नाम मात्र की फ़ीस पर हुई. लेकिन बेटी के बच्चों की फ़ीस आसमान को फाड़ रही है.

तो मुख्य टकराव अमीर ग़रीब सभी के लिए तरक्की के समान रास्ते खोलने के हैँ. यह तभी होगा जब उच्च शिक्षा सभी को सुलभ हो. लेकिन आजकल उच्च तकनीकी शिक्षा महँगी की जा रही है. यह एक और तरीक़ा है धनी वर्गोँ के हाथोँ मेँ सत्ता बनाए रखने का. आईईटी जैसे संस्थानों मेँ नाममात्र की फ़ीस और आरक्षण ही निम्न वर्ग को सत्ता मेँ भागीदारी देने के कारगर तरीक़े हैँ.

कितनी मलाई किस को

भाषा के टकराव भी देश मेँ उपलब्ध कम दूध मेँ से मलाई पाने की कोशिशोँ के टकराव हैँ. चाहे आंध्र प्रदेश का मुल्की-ग़ैरमुल्की टकराव हो, मुंबई मेँ पहले मराठी-मद्रासी या आज हिंदी-मराठी के नाम पर टकराव हो, मलाई के और नेतागिरी के टकराव हैँ. भाषा के सवालोँ मेँ इंग्लिश भाषा के पुनरुत्थान का सवाल भी है. आज़ादी से पहले हम लोग अँगरेजी को विदेशियों द्वारा हम पर लादी गई भाषा के तौर पर देखते थे. आज़ादी के नारोँ मेँ एक नारा अँगरेजी के विरोध का भी था. बाद मेँ यह नारा कई पार्टियाँ साठ सत्तर वाले दशक मेँ भी लगाती रहीं. पर जनता ने इस नारे को सिरे से रीजैक्ट कर दिया है. 47 के बाद हमने देखा कि अँगरेजी हमारे पास एक ऐसी खिड़की या महापथ है जिससे हम संसार से संपर्क तो कर ही सकते हैँ, बाहर काम करके धनदौलत भी बटोर सकते हैँ. आज अँगरेजी सामाजिक और निजी तरक़्क़ी की सीढ़ी के तौर पर अगड़े पिछड़े वर्गोँ के मन मेँ बस गई है. इस का मतलब हिंदी का या अन्य भारतीय भाषाओं की अवनति क़तई नहीं है. साथ साथ हिंदी भी तेज़ी से बढ़ रही है. हाँ, वह हिंदी नहीं जो सरकारी संस्थानों द्वारा करोड़ों रुपए बरबाद करके बनाने की काशिश की गई थी, बल्कि वह हिंदी जो जनता, लेखक, पत्रकार और टीवी वाले बना रहे हैँ–एक जीतीजागती हिंदी.

टकरावोँ के मूल मेँ एक नारा रहा है जो कुछ भी है सबमेँ बराबर बाँट दो. पिछले दो सौ सालोँ से यह संसार के सब से मोहक नारोँ मेँ रहा है. इसके पीछे भावना बिल्कुल सही है. मैं स्वयं इस नारे के साथ कई दशक रहा हूँ. पर हमेशा यह सवाल मन को सालता था कि बँटवारा किसका? ग़रीबी का या अमीरी का? अमीरी होगी तब बँटेगी न! हम ग़रीबी का वितरण करेँगे तो परिणाम क्या होगा? ग़रीब को ग़रीबी का बराबर हिस्सा मिले तो ग़रीबी ही पल्ले पड़ेगी.  वैसा ही भूखापन, नंगापन मिलता रहता जो 47 मेँ ग्रामीण भारत का अभिशाप था!

आतंकवाद से लड़ने के लिए भी ग़रीबी मिटाना ज़रूरी है. हाल ही मेँ पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने चार बातें बताईं–1) नागरिक सचेत रहेँ, 2) देश मेँ एकीकृत इंटैलिजेंस विभाग हो, 3) अदालतों मेँ मुक़दमों का निपटारा जल्द से जल्द हो, और 4) आर्थिक प्रगति के माध्यम से ग़रीबी का सफ़ाया हो.

यह चौथी बात सब से महत्त्वपूर्ण है. आज की तेजी से बढ़ती दुनिया मेँ हम लंबी छलाँगें लगाते नहीं दौड़े, तो पिछड़ेपन के गहरे दलदल मेँ धँसते चले जाएँगे. आर्थिक विकास के लिए सबसे पहली ज़रूरत है ऊर्जा उत्पादन मेँ तेज़ी से बढोतरी. यही कारण है कि परमाणु समझौते के समर्थन मेँ डाक्टर कलाम ने आवाज़ बुलंद की थी. इसके लिए आर्थिक मामलोँ के विशेषज्ञ हमारे प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने सरकार तक दाँव पर लगा दी. जैसे भी हो हमेँ आण्विक ऊर्जा का उत्पादन तेज़ी से बढ़ाना होगा. तभी आर्थिक उन्नति होगी.

आर्थिक क्षमता बढ़ने से देश की ताक़त बढ़ेगी. ताक़तवर देश की तरफ़ टेढ़ी नज़र से देखने की हिम्मत बड़े से बड़ा देश नहीं कर सकता, चाहे वह अमरीका हो, रूस हो, चीन हो, पाकिस्तान तो चीज़ क्या है! आज सन 47 वाला भूखा नंगा भारत नहीं है. कल वह दुनिया के सब से धनी देशोँ मेँ होगा. तब के टकराव कुछ अलग तरह के होंगे.

 

© अरविंद कुमार

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