हंस – मई 1991 अंक
श्रव्य और दृश्य भाषा का हथियार ले कर मानव संपूर्ण सृष्टि की विजय यात्रा पर निकल पड़ा… आज किसी भी भाषा मेँ जो भी शब्द है या जो भी शब्द भविष्य मेँ होगा, उस के पीछे मानव भाषा का पूरा इतिहास खड़ा है.
ज्ञानेंद्रियोँ से हम सब से पहले जो जान पाते हैँ वह है मूर्त पदार्थ.
ज्ञानेंद्रियोँ के ऊपर है मन. उसे छठी ज्ञानेंद्रिय माना गया है. वह उन का नियंत्रक है. उन से प्राप्त ज्ञान के आधार पर वह अमूर्त विचारोँ तक पहुँचता है. वह कल्पनाएँ करता है. धारणाएँ बनाता है. विभिन्न वस्तुओँ मेँ साम्य और असाम्य देख कर कोटियाँ बनाता है. उन मेँ संबंधोँ की स्थापना की प्रक्रिया मेँ वह भगवान और देवीदेवताओँ के अस्तित्व की कल्पना करता है.
मन सहित छहोँ ज्ञानेंद्रियोँ का उपकरण है भौतिक शरीर जो पदार्थ अथवा पंचतत्वोँ से बना है. शरीर की संचालन शक्ति – चेतना, ऊर्जा – भौतिक है या अभौतिक – यह अभी तक अनिर्णीत प्रश्न है. अगर वह ‘है’, तो भाषाशास्त्र की कसौटी पर, हमेँ उस की गणना ‘भू’ धातु के अंतर्गत आने वाले तत्वोँ से करनी होगी, और इस प्रकार वह भौतिक बन जाती है. ‘ज्ञान’ की प्रकृति और शक्ति क्या है – यह और भी रहस्यपूर्ण और विवादास्पद विषय है.
जो बात तर्कातीत है, वह यह है कि जीव जगत के क्रमिक विकास मेँ हम मन और मन की शक्ति का उत्तरोत्तर विकास देखते हैँ. मनोविकास की कसौटी पर अभी तक भौतिक प्रकृति के विकास की चरम अवस्था है मानव. मन… मनु… मानव – इस प्रकार यह शब्द अँगरेजी के कोटि नाम ‘होमो सैपियंस’ का निकटतम हिंदी पर्याय बन जाता है.
मानव ने कंठध्वनियोँ का वर्गीकरण कर के संकेत बनाए और इन्हेँ अर्थ प्रदान किए. सार्थक ध्वनि का नाम है शब्द. शब्दोँ के माध्यम से ज्ञान संकलन और विचारोँ के आदान प्रदान के सशक्त माध्यम के रूप मेँ भाषा का विकास हुआ. भाषा ने प्रकृति पर मानव की विजय का द्वार खोल दिया.
जब तक शब्द मात्र ध्वनि था, तब तक विचारोँ का संवहन केवल मौखिक स्तर पर हो सकता था. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक, एक देश से दूसरे देश तक, सूचना और विचार का संवहन करने के लिए स्मृति का सहारा लेना पड़ता था. स्मृति से संवहन की जो रीतियाँ बनीँ, उन की अपनी सीमाएँ थीँ.
ध्वनि की सीमा से निकल कर जब शब्द चित्रलिपि और अक्षर लिपि तक पहुँचा तो मानव की सूचना और विचार संवहन की क्षमता लगभग असीम हो गई. अब स्मृति को लिखित भाषा के रूप मेँ संजो कर मानव अपने विचार देश और काल के पार पहुँचा सकता था. इस श्रव्य और दृश्य भाषा का हथियार ले कर मानव सचमुच संपूर्ण सृष्टि की विजय यात्रा पर निकल पड़ा.
हमारे पास आज किसी भी भाषा मेँ जो भी शब्द है या जो भी शब्द भविष्य मेँ होगा, उस के पीछे मानव भाषा का पूरा इतिहास खड़ा है. कहीँ भी, कभी भी, कोई भी जब किसी नए शब्द की रचना करता है तो उस के पीछे इस समृद्ध संपदा का कोई न कोई संदर्भ अवश्य होता है. हर शब्द के पीछे मानवीय अनुभव, कर्म और विचार की एक पूरी अटूट शृंखला होती है.
यही कारण है कि हर शब्द का अपना व्यक्तित्व होता है. किन्हीँ भी दो शब्दोँ का पूर्णत: पर्यायवाची होना लगभग असंभव है. ऐसा बहुत कम होता है कि यदि हम किसी एक शब्द के स्थान पर कोई अन्य शब्द रखेँ तो दोनोँ से एक ही ध्वनि या अर्थ निकले. और जब दो भाषाओँ के बीच पूर्णत: समानार्थी शब्द ढूँढ़ने की बात हो तो सफलता की संभावना और भी कम हो जाती है. दो भाषाओँ के समानार्थी लगने वाले शब्दोँ के पीछे उन के अपने समाज और संस्कृति का इतिहास होता है, संदर्भ होता है, जो उन्हेँ अ-समान, भिन्न और विशिष्ट बना देता है.
सफलता के तीन रूप – फलयुक्तता. कामयाबी. पहुँच
उदाहरण के लिए ‘सफलता’ को ही लीजिए: ‘सफलता’, ‘कामयाबी’ और ‘सक्सैस’ के पीछे और इन तीनोँ के विपर्ययोँ – ‘असफलता’, ‘नाकामयाबी’ और ‘फ़ेल्योर’ – के पीछे अपनी अपनी अलग सामाजिक गतिविधि और संस्कृति है, और एक पूर्णत: भिन्न अर्थ संदर्भ है.
‘सफलता’ की पृष्ठभूमि मेँ है कृषि कर्म और बाग़बानी. किसी वृक्ष पर फल आने पर कर्ता की जो मनोरथ पूर्ति होती है, वही है सफलता. इस लिए इस का पूर्ण विपर्याय ‘फलहीनता’ नहीँ है, बल्कि एक अन्य नकारात्मक शब्द ‘असफलता’ है, जिस से ध्वनि निकलती है: कर्ता को फल न मिल पाना.
‘कामयाबी’ शब्द हमारे पास फ़ारसी से आया है. इस के मूल मेँ हैँ भारोपीय मूल के शब्द – काम, कामना, इच्छा, मनोरथ और कर्म. हमारी कामना का और कर्म का पूर्ण होना है कामयाबी – यानी सफलता. फल की प्राप्ति भी हमारी कामना है, हमारा मनोरथ है, इस लिए ‘कामयाबी’ और ‘सफलता’ के बीच एक दूर का रिश्ता बन जाता है. पर इसे संदर्भ और अर्थ का पूर्ण ऐक्य तो नहीँ कहा जा सकता. जिस प्रकार ‘सफलता’ का विपर्याय ‘फलहीनता’ नहीँ हो कर ‘असफलता’ है, उसी तरह ‘कामयाबी’ का विपर्याय ‘काम-हीनता’ या ‘कर्महीनता’ या ‘बेकारी’ नहीँ, बल्कि नकारात्मक ‘नाकामयाबी’ है: काम से वांछित फल की प्राप्ति न हो पाना.
और ‘सक्सेस’?
‘सक्सेस’ का संदर्भ देखने के लिए पहले हमेँ जाना पड़ता है ‘सक्सीड’ पर. इस का शाब्दिक अर्थ है अनुगमन, पश्चगमन. इस से भी अधिक सही अर्थ हैँ – अनु-आगमन, किसी के पीछे आना या पहुँचना, विशेषत: किसी के बाद उस के स्थान पर पहुँचना या उसे ग्रहण करना, जो योजना बनाई थी उसे प्राप्त कर पाना, इस प्रकार ‘सक्सेस’ का एक ध्वनित अर्थ बनता है: परिणाम अथवा मनोनुकूल परिणाम.
(यह भावक्रम अँगरेजी थिसारस मेँ तत्काल ही हमेँ ‘सक्सैशन’ यानी विरासत तक ले जाता है, जो हिंदी मेँ सफलता के संदर्भ मेँ कहीँ भी नहीँ आ सकता. ‘सक्सैसर’ का उलटा है ‘प्रीडैसैसर’.)
‘सक्सेस’ का विपर्याय ‘फ़ेल्योर’ नकारात्मक तो है, लेकिन ‘असफलता’ जैसा नकारात्मक नहीँ है. ‘फ़ेल’ क्रिया के मूल मेँ है हमारी संस्कृत भाषा की धातु ‘ह्वेल’ जिस का अर्थ है: काँपना, थरथराना, तिरछा हो जाना, लक्ष्य तक न पहुँच पाना. हमारा ‘विह्वल’ इसी धातु से बना है.
इस प्रकार हम ने देखा कि आम तौर पर कोई भी दो शब्द एक से नहीँ होते, और हर शब्द के पीछे उस का एक विशिष्ट सामाजिक संदर्भ होता है.
इस का एक अर्थ यह भी होता है कि किसी वस्तु या मान्यता या धारणा को अभिव्यक्ति देने वाले शब्द के इतिहास की भाषाशास्त्रीय गवेषणा कर के हम उस शब्द की रचना करने वाले समाज के बारे मेँ काफ़ी जानकारी हासिल कर सकते हैँ.
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भगवान के विभिन्न नामोँ और विशेषणोँ से हम उन की रचना करने वाले समाज की तकनोलजी, व्यवस्था, आकांक्षा और रीतिरिवाज़ोँ तक का पता लगा सकते हैँ. भगवान वह है जो वितरण करता है (भक्ति शब्द की एक ध्वनि है विभाजन, भाग कर्म; भग का एक अर्थ है धन, संपत्ति, तब भगवान बन जाता है धनवान, भगवान की छह विभूतियोँ का संयुक्त नाम है भग), ईश्वर वह है जो स्वामी है और संपन्न है. गाड वह है जिसे पुकारा जाता है.
भगवान को कुंभकार कहने वाले समाज के पास चाक पर मिट्टी के बरतन बनाने की कला थी. शिव और विष्णु को अंबरीष (भाड़; वह मिट्टी का बरतन जिस मेँ भड़भूजे लोग गरम बालु डाल कर दाना भूनते हैँ. (हिंदी शब्द सागर) -अरविंद, मार्च 2015) कहने वाला समाज भाड़ मेँ अनाज भूनने की कला मेँ पारंगत हो चुका था. शरीर को क्षेत्र और आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहने वाला समाज मुख्यत: कृषिधर्मी था. यही बात तमाम देवीदेवताओँ के नामोँ और क्रियाकलापोँ पर भी लागू होती है. जब हमारे पास भगवान और तमाम देवीदेवताओँ के नामोँ का यथासंभव संपूर्ण और ससंदर्भ संग्रह तैयार हो जाएगा तो हम भाषाशास्त्र के आधार पर ‘पुरासमाज’ के अध्ययन की एक नई शाखा खोल सकते हैँ.
भगवान को कुंभकार कहने वाला समाज घड़े बनाना सीख गया था, और क्षेत्रज्ञ कहने वाला समाज कृषिधर्मी था
अमरकोश मेँ निर्विकार और निर्गुण भगवान नामक मान्यता का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीँ है, जबकि यह मान्यता इतिहास के दृष्टिकोण से उस की रचना से बहुत पुरानी है. ऐसा इस लिए भी हो सकता है कि अमरकोशकार के बौद्ध धर्म मेँ भगवान का अस्तित्व ही नहीँ है. अमरसिंह ने भगवान को ‘बुद्ध’ का एक पर्यायवाची मात्र माना है. बुद्ध के कुल अठारह पर्याय गिनाए गए हैँ. उन मेँ ‘भगवत्’ अथवा ‘भगवान’ सातवाँ पर्याय है. इस के बाद अमरकोशकार अनेक बुद्धोँ मेँ से सातवेँ बुद्ध शाक्यमुनि के सात नाम गिनवाने लगता है.
हिंदू त्रिमूर्ति का स्थान इस के बाद आता है. इस मेँ सर्वप्रथम ‘ब्रह्मा’ के कुल उनतीस नाम हैँ. ‘विष्णु’ के उनतालीस जमा सात नामोँ मेँ महत्व कृष्णावतार का है.
‘राम’ का संदर्भ हम चाहेँ तो विष्णु के एक नाम ‘पुरुषोत्तम’ से लगा सकते हैँ लेकिन ध्यान रहे यह मर्यादा पुरुषोत्तम नहीँ है – और वामनावतार की कल्पना ‘त्रिविक्रम’ और ‘बलिध्वंसी’ पर्यायोँ से की जा सकती है. सीधे राम का ज़िक्र पूरे अमरकोश मेँ बस एक स्थान पर है जहाँ तीन ‘राम’ – बलराम, परशुराम और दाशरथि राम – गिनाए गए हैँ. अत: राम जन्मभूमि विवाद के संदर्भ मेँ यह नोट करना असमीचीन न होगा कि अमरकोश के रचना काल मेँ राम किसी महत्वपूर्ण भारतीय देवता के रूप मेँ मान्य नहीँ था. उस से अधिक महत्व कृष्ण का था. स्वयं कृष्ण जब गीता मेँ अपने रूपोँ को गिनवाता है तो राम के विषय मेँ बस इतना कहता है: “धनुर्धरोँ मेँ मैँ राम हूँ.”
विष्णु के तुरंत बाद कृष्ण के पिता वसुदेव (दो नाम), भाई बलराम (सतरह नाम) के होने से भी विष्णु का तात्कालिक संदर्भ कृष्ण ही बनता है. कृष्ण के प्रपौत्र अनिरुद्ध को कामदेव का अवतार माना जाता है, इस लिए अब अमरसिंह कामदेव, उस के बाणोँ और पुत्र की चर्चा करने के बाद फिर विष्णु संबंधी नामोँ पर लौट आता है, और विष्णु की पत्नी लक्ष्मी, और विष्णु के शंख, चक्र, गदा, तलवार, मणि, धनुष, चिह्न, अश्व, सारथी, अनुज, गद, और फिर वाहन गरुड़ के पर्याय बताता है. यहाँ जिस अनुज ‘गद’ का ज़िक्र है वह भी रोहिणी से उत्पन्न कृष्ण का ही छोटा भाई है.
इसी के बाद अमरकोश आता है त्रिमूर्ति की अंतिम कड़ी ‘शिव’ पर. शिव के संबंध मेँ उस मेँ जो अन्य संबंध शब्द समूह दिए हैँ, वे हैँ – शिव का जटा समूह. धनुष. सभासद. लोकमाताएँ. सिद्धियाँ, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय. नंदी.
आधुनिक भारत मेँ रहने वाले किसी भी शब्द प्रयोक्ता के लिए यह सूची पूर्णत: अपर्याप्त है और इस का क्रम भी ससंदर्भ नहीँ बन पाता.
रोजेट के अँगरेजी थिसारस के जो अनेक बड़े बड़े संस्करण आज मिलते हैँ, उन मेँ धर्म और धार्मिकता को सब से अंत मेँ लिया गया है. स्वयं रोजेट के प्रथम संस्करण मेँ भी लगभग यही क्रम था. तदुपरांत किसी भी संपादक ने इस मेँ कोई मूलभूत परिवर्तन नहीँ किया है.
रोजेट के नवीनतम बड़े संस्करणोँ मेँ भी भगवान से ले कर समस्त देवीदेवताओँ की फ़हरिस्त कुल दो शीर्षकोँ और दो पृष्ठोँ मेँ समाप्त हो जाती है. स्पष्ट है यह चलताऊ सी सूची किसी भी भारतीय संदर्भ मेँ बेहद नाकाफ़ी है.
इस के अतिरिक्त अमरकोश और रोजेट – दोनोँ – मेँ एक अन्य दोष यह है कि वे विपर्यायोँ को यथास्थान नहीँ रख पाते.
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अभी तक मेरे मन मेँ इन शब्द समूहोँ का क्रम इस प्रकार है:
जड़/ चेतन
पदार्थ/जीव (यहाँ केवल अमूर्त कल्पनाओँ का ज़िक्र होगा. विभिन्न पदार्थों और जीवोँ के ससंदर्भ नामोँ के लिए हम पाठक को ग्रंथ मेँ अन्यत्र देखने के लिए निर्देश दे देँगे.)
पंचभूत/ शरीर (अन्यत्र देखने का निर्देश)
आत्मा/ परमात्मा (देखिए: भगवान[1])
शैतान/भगवान – यहाँ हम शैतान देखने के लिए पाठकोँ को असुरोँ के पास भेज देँगे. हमारे यहाँ भगवान का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीँ है. जो काम शैतान करता है हमारे यहाँ वह भगवान की माया करती है. पश्चिमी शैतान का असुरोँ से साम्य होने के कारण उसे उन के निकट रखना होगा.
भगवान संबंधी विविध मान्यताओँ मेँ ब्रह्म भी आता है. कभी ब्रह्म और ब्रह्मा एक दूसरे के पर्याय थे. अब ब्रह्म निराकार भगवान का प्रतीक है और ब्रह्मा एक साकार देवता का जो हिंदू त्रिमूर्ति का पहला घटक है.
भगवान संबंधी मान्यताओँ मेँ विश्व के अन्य भगवानोँ, जैसे अल्लाह, गाड आदि के पर्याय यथास्थान आएँगे.
त्रिमूर्ति
ईसाई त्रिमूर्ति-सूची
वैदिक त्रिमूर्ति-सूची
हिंदू त्रिमूर्ति-सूची
ब्रह्मा, ब्रह्मा संबंधी अन्य शब्द समूह
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शिव पार्वती और शेषनाग पर विराजमान विष्णु और लक्ष्मी
शिव को विष्णु से पहले रखने का प्रस्ताव जानबूझ कर किया गया है. विष्णु के अनेक अवतारोँ और अनेक नामोँ सहित शिव संबंधी शब्द समूहोँ का प्रकरण विष्णु से बहुत दूर हो जाता. अत: पाठक के लिए हिंदू त्रिमूर्ति के संदर्भ मेँ शिव को ढूँढ़ पाना कठिन हो जाने की संभावना थी. हाँ, यह कमी हम त्रिमूर्ति सूची मेँ शिव के आगे अन्यत्र देखने का निर्देश दे कर दूर अवश्य कर सकते हैँ.
विष्णु, संबद्ध शब्द समूह
विष्णु के अवतार, संबद्ध शब्द समूह.
विष्णु के अवतारोँ मेँ ‘बुद्ध’ का केवल नाम गिनाएँ और फिर उसे कहीँ अन्यत्र देखने का निर्देश दे देँ या बुद्ध संबंधित सारे शब्द समूह यहीँ ले आएँ – यह बात विचारणीय हो जाती है. बुद्ध प्रकरण अपने आप मेँ बहुत लंबा है, और स्वतंत्र शीर्षक की माँग करता है.
विष्णु के अवतारोँ के संदर्भ मेँ कुछ समस्याएँ और भी हैँ: जैसे, तिरुपति वाले बाला जी. दक्षिण मेँ बाला जी की पूजा विष्णु के अवतार के रूप मेँ की जाती है. बाला जी का अवतार पुराणोँ की रचना के बहुत बाद हुआ माना जाता है – विजय नगर साम्राज्य के काल मेँ. वह कल्कि अवतार से अलग है. हमेँ बाला जी जैसे नए अवतारोँ के लिए भी अनुकूल स्थान निकालना होगा.
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हिंदी मेँ थिसारस का निर्माण करते समय ऐसी एक नहीँ हज़ार समस्याएँ आ खड़ी होती हैँ. इन समस्याओँ मेँ देवीदेवताओँ के नामोँ की समस्या बहुत छोटी है. लेकिन सक्सेस, सक्सीड और सक्सैशन के संदर्भ मेँ जो उदाहरण मैँ ने दिया उस से स्पष्ट हो जाता है कि रोजेट का भावक्रम हिंदी भाषियोँ के लिए नितांत अनुपयुक्त है.
इस से मिलती जुलती अन्य बहुत सारी समस्याएँ हैँ. जैसे, जब सफलता और असफलता की बात हो रही है, तो क्या विजय और पराजय वहीँ होने चाहिएँ अथवा युद्ध और शांति के साथ. वहीँ पर संदर्भ कारण और परिणाम का तथा प्रतियोगिता का भी आ सकता है, लेकिन नहीँ भी आता. जब युद्ध की बात होगी, तो क्या मित्रता और शत्रुता भी वहीँ कहीँ होनी चाहिएँ? और संधि स्थापना कहाँ होगी? युद्ध के साथ युद्ध के उपकरणोँ को भी लाना पड़ेगा, और युद्ध करने वाले सैनिकोँ को भी और सैनिकोँ के नायकोँ को भी.
कोई भी समस्या ऐसी नहीँ है जिसे सुलझाया न जा सकता हो. हाँ, बार बार उलझ जाना पड़ता है. इस लिए अब मैँ ने जो रास्ता अपनाया है वह ऐसा है कि कोई भी उलझन आ पड़ने पर मुझे सारा काम फिर से न आरंभ करना पड़े.
मेरे काम के कमरे मेँ कार्डों की ट्रेओँ की संख्या बढ़ती जा रही है. हर कार्ड पर लिखे शब्दोँ की संख्या बढ़ती जा रही है. कार्डों के बीच नए नए कार्ड बनते जा रहे हैँ. ज़रूरत पड़ने पर मैँ कार्डों के समूह इस ट्रे से उस ट्रे मेँ रख देता हूँ, या फिर उसी ट्रे मेँ आगे पीछे करता रहता हूँ या पूरी की पूरी ट्रेओँ की जगह आपस मेँ बदल देता हूँ. धीरे धीरे हर चीज़ अपने आप एक भावक्रम और संदर्भ क्रम से उपस्थित होने की प्रक्रिया मेँ है.
हंस के संपादक और मेरे मित्र राजेंद्र यादव के उदार और साग्रह निमंत्रण का अनुचित लाभ उठा कर मैँ इस अंक के बाद वाले अंकोँ मेँ अपनी समस्याओँ का वर्णन करते रह कर आप को उबाना नहीँ चाहता. अत: मैँ यह लेखमाला सधन्यवाद समाप्त करने की अनुमति चाहता हूँ.
बस, एक बार और आप के सामने आऊँगा. अगले अंक मेँ अपने शब्द संकलन की संभावनाओँ का आप को एक अंदाज़ा भर देने के लिए आत्मा से त्रिमूर्ति तक के कुछ कार्डों पर जो शब्द मैँ अभी तक लिख पाया हूँ, वे आप के सामने पेश करूँगा.
(शब्दवेध से)
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