कभी बहुत पहले पिछली सदी के पचासादि दशक मेँ
मारलो के फ़ाउस्टस नाटक के अंतिम दृश्य का अनुवाद
– क्रिस्टोफ़र मारलो
–अनुलाद – © अरविंद कुमार
मारलो लिखित यह एकल संवाद ‘पापी’ मानवता के मनोभय की त्रासपूर्ण अभिव्यक्ति है. यहाँ इस का प्रकाशन फाउस्ट कथा के प्रति दोनोँ महाकवियोँ की भिन्न काव्य चेतना दर्शाने के लिए किया जा रहा है.
गोएथे ने फ़ाउस्ट के भोग काल की सीमा स्वयं फ़ाउस्ट के हाथोँ मेँ रखी है. शर्तेँ तय करते समय फ़ाउस्ट ने शैतान से कहा था – जब कभी मुझे प्रमाद ग्रस ले, शांत हो कर मैँ विश्राम करने लगूँ, अपने को पूर्णकाम मान कर संतुष्ट हो जाऊँ, आनंद भोग मेरा मन मोह लेँ, और उड़ते पल से मैँ कहूँ – ‘कुछ और ठहर, मेरे पल सुंदर’ तो समझ लेना मैँ ने हार मान ली, और मैँ मौत की गुहा मेँ पदार्पण के लिए हूँ तैयार. एक प्रकार से यह समय सीमा मानव मात्र के असंतोष की अनंत सीमा है – न कभी वह पूरी तरह संतुष्ट होगा, न कभी उस का अंत होगा. यह और बात है कि सौ वर्ष का होने पर एक दिन असंतुष्ट फ़ाउस्ट के मुँह से बेध्यानी मेँ यह कूट वाक्य निकल ही गया, और उस का अंत हो गया. लेकिन यह अंत दुःखदायी नहीँ था…
दंतकथाओँ मेँ फ़ाउस्ट के भोगकाल की सीमा हैँ सत्तरह जमा सात कुल चौबीस वर्ष. मारलो ने यह सीमा एक ही साथ चौबीस वर्ष तय कर दी है. इस प्रकार फ़ाउस्टस का अंत उस के अपने हाथ मेँ नहीँ है. वह अवश्यंभावी है, और दुःखद है.
चौबीस साल के बाद आधी रात को वह कठोर घड़ी आनी ही थी. एक घंटा पहले से फ़ाउस्टस को होनी का भय सताने लगता है…
आह फ़ाउस्टस,
अब है तेरे पास एक घंटा जीने को
और बाद मेँ सदा सदा के लिए नरक मुँह बाए.
ठहरो, अरे गगन के हर दम चलने
वाले तारो, ठहरो – बंद समय की गति
हो जाए, और न आए आधी रात
कभी भी. खुलो, सूर्य की आँख, खुलो अब
फिर से, कभी न छिपने वाला दिन अब
कर दो. या इस घंटे का कर दो एक
साल, महीना, हफ़्ता, या पूरा दिन
ताकि फ़ाउस्टस कर ले तौबा, और बचा ले
अपना जीवन. धीरे धीरे बीत,
समय, तू धीरे धीरे बीत…
लेकिन तारे अब भी चलते हैँ. दौड़
रहा है समय. बजेँगे बारह… और
फिर – आएगा शैतान, फ़ाउस्टस नरक पड़ेगा.
आह, उड़ूँ, पहुँचूँ अल्लाह की गोदी मेँ. कौन
खीँचता मुझ को नीचे?… देखो, देखो,
ईसा का ख़ून गगन मेँ फैल रहा है.
एक बूँद से बच जाएगी आत्मा मेरी –
आधा बूँद सिर्फ़, ओ ईसा मेरे!… आह
न बॉँधो मेरी छाती लेने पर
ईसा का नाम! लूँगा मैँ फिर भी उस
का नाम. शैतान, बख़्श दे. लूसीफ़र!
अरे, कहाँ अब? चला गया! हा! देखो वह हाथ
ख़ुदा का बढ़ा आ रहा, और तनी
है पेशानी कैसी ग़ुस्से मेँ. आओ,
पर्वत, गिरिशिखरो, आओ, गिर जाओ
मुझ पर. मुझे छिपा लो ईश कोप से.
नहीँ?… नहीँ!…
तो मैँ धरती की छाती मेँ छिप जाऊँ.
फट जा, धरती! हाय, नहीँ, धरती भी मुझ
को शरण दे रही! ओ भाग्य सितारो
मेरे, जो थे बली जनम पर मेरे,
जिन ने मुझ को मौत नरक बख़्शे थे,
अरे, कुहासा धुँध बना कर फ़ाउस्टस को
उस गड़ गड़ करते बादल मेँ खो दो.
उगलो ऐसा पवन भयंकर, मेरे
अंग उछल बादल से पहुँचे सीधे स्वर्गधाम मेँ.
(घड़ी मेँ आधा घंटा बजता है.)
हाय, लो बीत गया आधा घंटा. पूरा
समय अभी होता है… हाय ख़ुदा!
गर तरस न हो तुझ को इस पापी पर,
तो ईसा के लिए कि जिस ने दे कर
अपना ख़ून बचाया हर पापी को,
उस ईसा के लिए कभी तो मेरी पीड़ा
का अंत मनोहर करना. कह दो, बस इतने
साल फ़ाउस्टस जले ज्वाला मेँ.
हज़ार, दस हज़ार, लाख…? कभी तो मुक्ति
दिलाना! हाय, नहीँ अंत पापियोँ की
विपदा का. हा, हुआ न क्योँ मैँ बिना रूह
का? या फिर रूह अमर ही क्योँ है?
आह, पैथागोरस का योनिपरिवर्तन!
सच होता गर, उड़ जाती यह रूह छोड़
कर मुझ को. बन जाता मैँ कोई दरिंदा.
सभी जानवर ख़ुश रहते हैँ, क्योँ कि जब भी
वे मरते हैँ, मर जाती है आत्मा उन की.
लेकिन मेरी रूह रहेगी ज़िंदा
सड़ने को उस घोर नरक मेँ! अरे, बुरा
हो उन का, पैदा किया जिन्होँ ने! नहीँ,
फ़ाउस्टस, ख़ुद को रोओ, ख़ुद को कोसो
या फिर कोसो लूसीफ़र को, जिस ने
तुझ से छीन लिया आनंद स्वर्ग का.
(घड़ी मेँ बारह बजते हैँ.)
ओह, बज गया घंटा! ओ जिस्म
हवा मेँ घुल जा! अरे, नहीँ तो ले जाएगा
शैतान तुझे अब.
(बिजली और गड़गड़ाहट.)
ऐ रूह, बूँद पानी की बन जा, मिल जा
सागर मेँ! कभी न पाना! हाय, ख़ुदा,
हाय, ओ अल्लाह! मुझ पर इतने कठिन न होओ.
(राक्षस आते हैँ.)
साँप सँपोलो! एक साँस तो जी लेने दो!
घोर नरक! मत मुँह बाओ. आओ,
ओ शैतान, नहीँ तुम. अभी जला दूँगा मैँ
सारी जादू की पोथी. हाय शैतान!
(पचासादि दशक मेँ सरिता परिवार की पत्रिका मुक्ता मेँ प्रकाशित)
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