गीता तथा अन्य प्राचीन भारतीय धर्म ग्रंथोँ के ऐसे अनुवाद नहीँ मिलते जिन मेँ व्याख्या न हो, भाष्य न हो. जो मात्र अनुवाद होँ, शुद्ध अनुवाद होँ. सच्चे होँ और खरे होँ. ऐसे अनुवाद होँ जो महान ऋषियोँ, दार्शनिकोँ, पैग़ंबरोँ की वाणी को तोड़ेँ मरोड़ेँ नहीँ, बल्कि जैसे का तैसा सामने रख देँ! सच्चे दुभाषिए की तरह. एक ऐसी आधुनिक और सहज भाषा मेँ जिसे आज का आम आदमी आसानी से समझ सके.
गीता के अधिकांश गद्य अनुवाद वांछित संतोष नहीँ दे पाते. इस के अनेक कारण हैँ.
कई अनुवाद दार्शनिकोँ, विचारकोँ, समाज सुधारकोँ या राष्ट्रनेताओँ ने किए. वे अनुवाद कम हैँ, भाष्य अधिक हैँ. उन मेँ अनुवादक अनुवाद कम करता है, अपने निजी मत का प्रचार और प्रसार ज़्यादा. वह गीता के श्लोकोँ मेँ अपने मत का समर्थन ढूँढ़ता नज़र आता है. उस के शब्दोँ के अर्थ को ताड़ मरोड़ कर वह अपनी राय को गीता की राय सिद्ध करने पर तुल जाता है. वह अपना जीवन दर्शन वासुदेव कृष्ण पर थोप देता है. महर्षि वेद व्यास और पाठक के बीच पुल बनने के बजाए वह दीवार बन कर खड़ा हो जाता है.
कई बार अनुवादक अपने को अच्छा हिंदू मानता है, और गीता को विश्व के अन्य सब धर्म ग्रंथोँ से बेहतर सिद्ध करने पर तुल जाता है, या वह अन्य धर्म वालोँ को यह बताने मेँ लग जाता है कि तुम्हारे और हमारे धर्म मेँ अमुक समानता है. वह बस एक काम नहीँ करता! वह ऐसा अनुवाद नहीँ करता जो प्राचीन ग्रंथ को आज के आदमी की भाषा मेँ उस की समझ के अनुसार पेश कर सके.
गीता के बहुत से हिंदी अनुवाद तब हुए थे जब खड़ी बोली की आधुनिक गद्य शैली का विकास आरंभ हुआ था. इन मेँ से अनेक अनुवाद उन लोगों ने किए थे जो पेशेवर धार्मिक प्रवचनकर्ता, पंडित और पुरोहित थे. आज का हिंदी पाठक पुराने ज़माने का धार्मिक कथा प्रवचन सुनने वाला नहीँ है. उसे उन पुराने अनुवादोँ की भाषा पंडिताऊपन के बोझ से दबी मालूम पड़ती है.
अधिकांश अनुवादोँ मेँ एक और बड़ी कमी खलती रही है. उन मेँ संस्कृत के एक वाक्य को हिंदी के एक वाक्य मेँ उतारने की नाकाम कोशिश की जाती रही है. अनुवादक यह भूल जाता है कि संस्कृत और हिंदी वाक्य रचना मेँ बहुत अंतर है. संस्कृत मेँ एक विशेषण या क्रिया विशेषण कई बार उतना सब बड़ी आसानी से कह देता है जो बोलचाल की हिंदी मेँ कोशिश करने पर एक वाक्य मेँ नहीँ कहा जा सकता. कोशिश करो तो एक वाक्य मेँ अनेक उपवाक्य बनाने पड़ते है. अनेक उपवाक्योँ से लदी भाषा बोझिल बन जाती है. ऐसे उलझे वाक्योँ को पढ़ना और समझना कठिन हो जाता है.
संसार मेँ कोई भी पाठक ऐसा नहीँ है जो अपनी भाषा के सब शब्दोँ के अर्थ जानता हो. शब्दोँ का अर्थ मालूम करना कठिन नहीँ होता, कठिन होता है कठिन वाक्योँ को पढ़ना. मेरा अपना अनुभव है कि भाषा की बोझिलता, विशेषकर हिंदी की बोझिलता तथाकथित कठिन या संस्कृतनिष्ठ शब्दोँ से नहीँ होती. वह दुरूह वाक्य रचना से होती है.
किसी संस्कृत रचना का ऐसा हिंदी अनुवाद पढ़ कर पाठक को यह भ्रम हो जाना स्वाभाविक है कि मूल संस्कृत रचना भी इतनी ही बोझिल होगी. गीता के अनेक हिंदी अनुवादोँ मेँ यही कमी पाई जाती है.
मैँ समझता हूँ कि अनुवाद बस अनुवाद रहना चाहिए, उसे भाष्य या टीका नहीँ बन जाना चाहिए. आज ज़रूरत इस बात की है कि गीता जैसे प्राचीन और महान ग्रंथोँ के भाव उसी भावना के साथ आम आदमी तक पहुँचेँ जिस भाव के साथ मूल लेखक ने उन्हेँ अभिव्यक्त किया था. तभी आज का पाठक उन्हेँ अपनी बुद्धि या श्रद्धा की कसौटी पर कस कर अपने निजी अर्थ निकाल सकता है. महर्षि व्यास जैसे रचेताओँ को न किसी की पैरवी की ज़रूत होती है, न किसी समर्थन की.
मैँ जब गीता का अनुवाद करने बैठा तो मेरे सामने आम पाठक था. मैँ चाहता था कि मेरे हिंदी अनुवाद से पाठक
ü हिंदी वाक्योँ की लंबाई मेँ न उलझ जाए.
ü गीता के मूल भाव को आसानी से ग्रहण कर सके.
मैँ ने गीता को आधुनिक हिंदी मेँ वैसा ही रखने की कोशिश की जैसा कि मूल रचनाकार ने लिखा है. अपनी किसी निजी मान्यता को मैँ ने अनुवाद पर हावी नहीँ होने दिया. मेरा काम मात्र दुभाषिए का काम था–न इस से अधिक और न इस से कम.
मैँ ने श्रीमद् भागवद् गीता उपनिषद मेँ अनुवाद मात्र अनुवाद तक सीमित रखा है, अपनी किसी धार्मिक या दार्शनिक मान्यता को, किसी समर्थन या विरोध को, गीता और पाठक के बीच मेँ नहीँ आने दिया है.
इस अनुवाद मेँ वाक्योँ को सहज और सरल रखने की कोशिश की है. यह ध्यान रखा है कि एक ही वाक्य मेँ बहुत सारे भाव न पिरोए जाएँ. कभी ऐसा करना भई पड़े तो वाक्य मेँ एक के बाद एक भाव पाठक आसानी से ग्रहण कर सके.
गीता के किसी श्लोक मेँ विचार के उद्घाटन और विकास का जो क्रम है, श्रीमद् भागवद् गीता उपनिषद मेँ यथासंभव उसी का अनुपालन किया. कोशिश की श्लोक का पहला विचार हिंदी अनुवाद मेँ भी पहला विचार हो, और अंतिम विचार अनुवाद मेँ भी अंतिम हो, ताकि अगले श्लोक के अनुवाद से उस की संगति बैठ सके.
गीता एक दार्शनिक ग्रंथ है. उस मेँ भारतीय दर्शन के अनेक पारिभाषिक शब्द भरे पड़े हैँ. उन मेँ से बहुत से शब्द ऐसे हैँ जो आज रोज़मर्रा की हिंदी मेँ बोले जाते हैँ. लेकिन समय के प्रवाह मेँ उन का अर्थ थोड़ा बहुत बदल गया है. यह अर्थांतर स्पष्ट किए बिना ग़लतफ़हमी की संभावना रहती है. ऐसे पारिभाषिक शब्दोँ का वांछित अर्थ स्पष्ट करने के लिए मैँ ने कई बार एक वाक्यांश या आवश्यकता पड़ने पर एक पूरा वाक्य लिख दिया है. उन का अर्थ और अधिक स्पष्ट करने के लिए कई बार अनेक पर्यायवाची या समांतर शब्द लिख दिए हैँ. पारिभाषिक शब्दोँ की व्याख्या कहीँ पर भी फ़ुटनोट मेँ नहीँ की है. फ़ुटनोट पढ़ना कोई आसान काम नहीँ होता, और उसे पढ़ने से विचार क्रम टूट जाता है.
जहाँ किसी एक श्लोक या शब्द के कई अर्थ संभव थे, वहाँ वे सब लिख देने से पाठक के भ्रमित होने की संभावना थी. ऐसे अवसरोँ पर केवल वही एक अर्थ लिखा गया है जिसे महान विद्वानोँ ने संस्कृत भाषा के कोशोँ मेँ स्वीकृति दी है या जो संदर्भ विशेष मेँ मुझे सही लगा.
गीता मेँ कई स्थानोँ पर (जैसे, तेरहवेँ और सोलहवेँ अध्यायोँ मेँ) बहुत सी चीज़ेँ गिनवाई गई हैँ. ऐसे स्थलोँ पर पाठक की सहायता के लिए मैँ ने क्रम संख्या डाल दी है. यह इस लिए किया है कि इन स्थलोँ पर उन चीज़ों के अर्थ स्पष्ट करने के लिए कई बार अनेक पर्यायवाची शब्द लिखने पड़े हैँ. अगर क्रम संख्या न डाली जाती तो पाठक के भ्रमित होने की संभावना थी.
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©अरविंद कुमार
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