क़ब्र मेँ क़ैद एक कारवाँ

In Culture, Journalism, People by Arvind KumarLeave a Comment

महावीर अधिकारी

जीने की ललक, भरपूर भोगने की चाह, जीवन रस को तलछट तक सोख़ जाने की कुलबुलाहट मात्र इतनी ही हो सकती है अधिकारी की परिभाषा.

 

 

जो लोग बहुत क़रीब होते हैँ, अकसर उन के होने के ग़ुमान नहीँ रहता. वे हवा पानी और दाल रोटी की तरह दैनि‍क जीवन का अंग बन जाते हैँ. और जब उन के बारे मेँ किसी को बताने बैठो तो मालूम नहीँ पड़ता कि कहाँ से शुरू करो, क्‍या बताओ और क्‍या छोड़ दो.

बेहद नज़दीक से देखने पर अनुपात भी बिगड़ जाता है. बड़ी चीज़ेँ ग़ायब हो जाती हैँ. छोटी चीज़ेँ बड़ी मालूम पड़ने लगती हैँ. अच्‍छी सुंदर काया बड़े छेदोँ से भरी नज़र आने लगती है. नज़दीक से देखे गए व्‍यक्ति की बड़ी बड़ी आकांक्षाएँ, छोटे छोटे स्‍वार्थ नज़र आने लगते हैँ.

अधिकारी जी के बारे मेँ आप को बताते समय मेरी हालत कुछ ऐसी ही है. मेरी पूरी कोशिश रहेगी कि नज़दीकी मेरे नज़रि‍ए को बिगाड़ न दे.

लाखोँ बातेँ हैँ चौदह पंदरह साल के हमारे बेहद नज़दीकी के समय गुज़रीँ. अब अलग शहरोँ मेँ रहने के पाँच छह साल बाद भी वे यादेँ उतनी ही सरगर्म हैँ.

अधिकारी किसी एक आदमी का नहीँ, पूरे एक कारवाँ का नाम मालूम पड़ता है जिस मेँ दुनिया भर की चीज़ेँ भरी हैँ, जो सदियोँ पहले चला था, और चला आ रहा है, दुनिया के लोगों को माल बाँटने और बेचने.

अगर मन मेँ अधिकारी जी की तसवीर बनाओ तो नजर आता है बंबई महानगर मेँ रहने वाला एक आदमी जिसे अँगरेजी मेँ टाल, डार्क एंड हैँडसम कहते हैँ लंबा, काला और सुंदर. यह सुंदरता अपने आप को नवीनतम फ़ैशन के गरिमायुक्‍त वस्त्रोँ से सजाए रखती है, जिस से यह शब्‍द नगरीयता का अप्रतिम उदाहरण मालूम पड़ता है. उसकी चाल मेँ मस्‍ती है, मलंगी है. तो चाहे संस्‍कृतनिष्‍ठ हिंदी हो, अरबी फ़ारसी से भरी उर्दू हो, या मुहावरेदार अँगरेजी हो, भाषा पूरे उतार चढ़ाव के साथ ठाठेँ मारने लगती है. लेकिन गहरे या हलके रंगोँ के सूट बूट के पीछे झाँको तो जिला बिजनौर के पैग़ंबरपुर गाँव का देहाती दिखाई देगा जो मन ही मन अपने गँवारपन पर अपरिचित श‍हरियोँ के काल्‍पनिक कटाक्षोँ से डर रहा है और डर के मारे एक एक क़दम फूँक फूँक कर रख रहा है. उस का आत्‍मगौरव और आत्‍मविश्‍वास न जाने कब तिरोहित हो जाता है. वह बड़ोँ बड़ोँ से बड़ा है और छोटे से छोटा. बड़ी सरलता और सलीक़े से बात करने वाला यह आदमी कभी कभी उजड्ड हँसोड़ोँ जैसी बातेँ करने लगता है.

उस के अनंत आयामोँ की झलक उस के नाम तक मेँ है महावीर, जिस से मुनियोँ का स्‍मरण होता है और हनुमानोँ का भी. यह महावीर कभी महावीरा रहा हो या नहीँ, लेकिन अधिकारी के पीछे त्‍यागी ज़रूर छिपा है. गाँव का, स्‍कूल का, नाम इस आदमी का महावीर त्‍यागी ही था, जिस का त्‍याग इस ने पत्रकार के रूप मेँ चर्चित होने पर इसलिए कर दिया कि उस से पाठकोँ को उस समय के एक नेता स्‍वर्गीय श्री महावीर त्‍यागी का भ्रम हो जाता था. ग़लती से मैँ को वह समझ लिया जाना महावीर के बस का नहीँ था. एक दिन उस ने अधिकारपूर्वक अपने को अधिकारी बना लिया.

मुझे याद नहीँ कि अधिकारी ने कभी अपनी माँ का ज़िक्र किया हो. लगता है माँ उस के बचपन मेँ हो गुज़र गई थीँ. पर बूढे़ (अब स्‍वर्गवासी) पिता का ज़िक्र अकसर उस के मुँह से सुना. जो तसवीर बनी वह गाँव के ज़मीन जायदाद खेत खलिहान वाले एक सीधे सादे कर्मठ देहाती की थी, जिसे दिल्‍ली, बंबई मेँ रहने के मुक़ाबले गाँव मेँ अपने खेतोँ की देखभाल करना पसंद था. चाचा ताऊ का, शायद चाचा का नहीँ बस ताऊ का, और चचेरे भाइयोँ का ज़िक्र भी सुना, और उन जागीरदार रिश्‍तेदारोँ का भी जिन के यहाँ रह कर अधिकारी ने स्‍कूली शिक्षा पाई. गाँव की पडो़सनोँ और रिश्‍तेदारिनोँ की मिठास भरी याद भी सुनी और खेतोँ की मेँड़ों के आसपास भैँस चराने के रोमांचक क़िस्से भी सुने.

जो चीज़ सब से ज्‍़यादा याद रह जाती है, वह है एक नाला जो शायद काफ़ी बड़ा और गहरा होगा. जिसे पार कर के ही उन के गाँव जाया जा सकता था. इस नाले के पाटे जाने की या इसके किनारे पुख्‍ता किए जाने की आकांक्षा अधिकारी जी के मन मेँ बहुत बलवती रही है. अब तो शायद यह काम पूरा हो भी चुका है.

     असल मेँ गाँव अधिकारी जी की आकांक्षाओँ मेँ बसा है. वह सपने देखते हैँ इस गाँव के, इस गाँव के ही क्‍योँ, आसपास के तमाम गाँवोँ के, अंततोगत्‍वा पूरे भारत के सब गाँवोँ के, पूरी तरह संपन्‍न और आधुनिक बन जाने के. कभी कभी ये सपने शेख़चिल्‍ल‍ि‍योँ की बातोँ जैसे लगने लगते हैँ. पर शेख़चिल्‍ली और स्‍वप्‍नदर्शी एक ही सिक्‍के के दो पहलू हैँ. कई बार उन्होँ ने कहा कि एक दिन वे अपने गाँव मेँ बस जाएँगे, साथ मेँ अपने निकट मित्रोँ को भी ले जाएँगे, और पूरे क्षेत्र के पुनर्निर्माण यज्ञ मेँ लग जाएँगे. लेकिन बंबई शहर ने उन्‍हेँ जकड़ रखा है. उन की बातेँ महज़ बातेँ मालूम पड़ने लगती हैँ. फिर भी किसी दिन इस ख़बर पर किसी को आश्‍चर्य नहीँ होना चाहिए कि पैग़ंबरपुर का महावीर वापस लौट गया है.

अधिकारी जी का और मेरा साथ बंबई मेँ गहरा हुआ. पर बंबई की क़ब्र मेँ रह कर पैग़ंबरपुर के सपने देखने वाला महावीर गाँव से सीधा बंबई नहीँ गया. रास्‍ते मेँ एक बड़ा और लंबा पड़ाव था दिल्‍ली. जहाँ तब मैँ भी रहता था. तब उन से दूर की मुलाक़ात थी. कभी कभी मिलना जुलना हो जाता था. दिल्‍ली के अधिकारी काल की जो भी जानकारी मुझे है, वह सुनी सुनाई बातोँ से है. कुछ बातेँ स्‍वयं अधिकारी जी से सुनी हैँ, कुछ उन के यारोँ से. हज़ारोँ लोग हैँ जो दिल्‍ली मेँ अधिकारी को याद रखे हैँ और हज़ारोँ लोग हैँ जो अधिकारी को याद हैँ. तमाम साहित्‍यकार, शनिवार समाज, रंग महल, दरियागंज, मोरी गेट, नवयुग साप्‍ताहिक जो बाद मेँ धर्मयुग मेँ संयुक्‍त हो गया, समाज कल्‍याण, दैनिक हिंदुस्‍तान….. और दिल्‍ली मेँ काम करते करते काफ़ी दिन अधिकारी गाज़‍याबाद रहे, वहाँ से रोज़ रेलगाडी़ से दिल्‍ली आते जाते.

हर तरह के क़िस्‍से हैँ दिल्‍ली मेँ जवानी की रंगीनियोँ के, रेल के सफ़र मेँ भीड़ भड़क्‍के और हँसी ठठ्ठोँ के, होली के हुडदंगोँ के, साहित्‍यिक उठापटक के, शादी के ब्‍याह के, पीने के, पिलाने के, संयम के, भोग के, योग के…..एक शब्‍द मेँ कहें तो जिजीविषा के.

जीने की ललक, भरपूर भोगने की चाह, जीवन रस को तलछट तक सोख़ जाने की कुलबुलाहट मात्र इतनी ही हो सकती है अधिकारी की परिभाषा.

 

बंबई एक ऐसा नगर है जहाँ आप बड़ी आसानी से आप हो सकते हैँ. वहाँ सब सब से उतना ही लेते हैँ जितना सब सब को देना चाहते हैँ. इस से अधिक माँग बंबई शहर आप के व्‍यक्तित्‍व से नहीँ करता. और जो आप देते हैँ उसे बंबई शहर सिर आँखों पर रखता है. अगर आप कुछ नहीँ देते तो बंबई शहर शिकायत नहीँ करता. बडे़ शौक़ से आप अपने फ़्लैट मेँ बंद हो जाइए या भीड़ मेँ खो जाइए. उस एक शहर मेँ इतनी दुनियाएँ हैँ कि आप अपनी दुनिया अलग बसा सकते हैँ और उस दुनिया मेँ अपनी निष्‍ठाएँ, अपने वैमनस्‍य, अपने संघर्ष, अपनी कुंठाएँ, अपने संत्रास, सब कुछ आप पाल सकते हैँ.

बंबई अधिकारी के लिए बना है, और बंबई के लिए अधिकारी. बंबई मेँ जो बहुत सारी दुनियाएँ हैँ, उन मेँ से एक है उत्तर भारतीय हिंदी भाषियोँ की दुनिया. अधिकारी बंबई पहुँचे नवभारत टाइम्‍स के संपादक बन कर. वहाँ का वह व्‍यक्तित्‍वहीन संस्‍करण रातोँ रात हिंदी भाषियोँ का मुखपत्र बन गया. अधिकारी पाठकोँ की आँखों के तारे बन गए. लोगों ने उन की शक्तियोँ को स्‍वीकार कर लिया और उन की कमज़ोरियोँ को झेल लिया. अधिकारी जैसे हैँ, जो होना चाहते हैँ, उन्‍हेँ वैसा का वैसा ही स्‍वीकार करना बंबई का कर‍िश्‍मा था. अधिकारी की उक्तियाँ, अधिकारी के कारनामे लोगों की ज़बान पर चढ़ गए. हर सभा समाज मेँ उन्‍हेँ बुलाया जाने लगा. हर महफ़िल उन के बिना अधूरी लगने लगी.

यह दुनिया वैमनस्‍योँ और संघर्षोँ से भरी थी. सब कुछ खुले आम. कहीँ छिपाव नहीँ, चोरी नहीँ, पीठ पर वार नहीँ, पूरे ठहाकोँ के साथ, हँसते हँसाते, प्रतियोगिता, लड़ाई, दोस्‍ती, सहयोग. जब एक साथ कई बड़े होँ तो ईष्‍याएँ भी बड़ी होती हैँ. लेकिन ख़ूबी यही थी कि ये आपसी भेदभाव विनाश की ओर नहीँ, सुप्रयास और निर्माण की ओर ले जा रहे थे.

अधिकारी जी के पास जीवन का एक विंहगम दृष्टिकोण है, जो उन का अपना है. लोग उन्‍हेँ मार्क्‍सवादी समझते हैँ, मार्क्‍सवादी उन्‍हेँ दक्ष‍िणपंथी समझते हैँ. दक्षिणपंथी उन्‍हेँ इंदिरा भक्‍त समझते हैँ. इंदिरा भक्‍तोँ की भीड़ उन की प्रखरता से घबराती है. लेकिन उन का महत्‍व सब मानते हैँ.

अधिकारी मानव को विश्‍व के पूरे इतिहास के परिप्रेक्ष्‍य मेँ देखते हैँ, और उस के वर्तमान क्रियाकलाप को आने वाली सदियोँ की उपलब्धियोँ की कसौटी पर कसते है. उन्होँ ने अपने लेखकीय जीवन के आरंभ मेँ इतिहास लेखन मेँ उल्‍लेखनीय काम किया था. पत्रकारिता ने उन्‍हेँ विश्‍व मानव और भारतीय मानस को नज़दीक से देखने समझने का मौक़ा दिया.

नवभारत टाइम्स से रिटायर होने के बाद…

उन्‍हेँ देख कर उन के रिटायर होने की बात उन की असली उम्र जाने बग़ैर समझ मेँ नहीँ आ सकती. चश्‍मेबददूर, अभी तक वे न सिर्फ़ जवान नज़र आते हैँ, बल्कि पूरी तरह जवान हैँ. इस का सबूत देने वाले और वालियाँ आप को बेशुमार मिलेँगी

तो नवभारत टाइम्‍स से रिटायर होने के बाद उन से तमाम उम्‍मीदेँ थीँ. इस बात की उम्‍मीदेँ कि अब वे अपनी उर्वर कल्‍पना से प्रसूत अनोखी, आवश्‍यक और महत्‍वपूर्ण योजनाओँ के कार्यान्‍वयन मेँ जुट जाएँगे. तब तक मैँ बंबई से दिल्ली चलने की अपनी तैयारियोँ मेँ लग चुका था. मेरा ख़्याल था कि उन जैसा करू आदमी अपनी मनचाही योजनाओँ को पूरा करने मेँ न जुटे, यह हो नहीँ सकता. पर, अफ़सोस, यही हुआ. वे अपने असली काम पर नहीँ जुटे, बल्कि अपने एक मित्र के लिए बंबई से ही हिंदी का एक नया साप्‍ताहिक निकालने बैल की तरह जुत गए. न जाने क्योँ? हाँ, कुछ आर्थिक मज़बूरियोँ का आभास मुझे है…

लेकिन पूरी तरह निराश होने की स्थिति अभी नहीँ आई है. वे अपनी मुक्ति की राह पर हैँ. शायद अब वे अपने असली काम की ओर लौट आएँ. उन्‍हेँ याद भर दिलाने के लिए मैँ उन की दो एक योजनाएँ उन्‍हेँ बताता हूँ–ग्‍यारह बारह सालोँ मेँ न सिर्फ़ बीसवीँ सदी समाप्‍त हो जाएगी, बल्कि पूरे एक हज़ार साल भी करवट बदलेँगे. आप चाहते थे कि इन पूरे एक हज़ार सूर्योदयोँ के पुनरवलोकन की प्रक्रिया अभी से शुरू हो. हर क्षेत्र के विद्वान अपने अपने विषय का पूरे एक हज़ार सालोँ के अस्तित्‍व और प्रगति का जायजा लेँ और विनाश के कगार पर खड़ी मानवता को एक नया दृष्टिबोध देँ. आप चाहते थे कि इन एक हज़ार सालों मेँ हमारे भारतीय मानस पर जो लोग अमिट छाप छोड़ गए हैँ, उन का पूरे मानव इतिहास के संदर्भ मेँ आकलन किया जाए, आप चाहते थे कि नवयुवा पूँजिपातियोँ को गाँवोँ मेँ पूँजी निवेश की ओर लगाया जाए, क्‍योँ कि बहुत पहले आप ने समस्‍या के इस मर्म पर हाथ रख लिया था कि गाँवोँ के उद्धार के लिए नारोँ की नहीँ पूँजी की ज़रूरत है. आप चाहते थे कि आप के गाँव मेँ एक सहकारी समिति हो जो गाँव को इक्‍कीसवीँ सदी और तीसरे सहस्राब्‍द मेँ खड़ा कर दे…

मैँ जानता हूँ कि इन मेँ से कोई भी काम किसी अकेले आदमी के किए नहीँ होता. पर अपनी योजनाओँ की पूर्ति के लिए आदमी आप इकट्ठा नहीँ करेँगे तो कौन करेगा? आदमी अकेला ही शुरू होता है, लोग आते जाते हैँ, कारवाँ बनता जाता है. आप स्‍वयं मेँ एक पूरा कारवाँ हैँ पर हमेँ ऐसे हजारोँ कारवाँ चाहिए.

मैँ ने आप के संदर्भ मेँ बंबई को क़ब्र भी कहा था. वह सोच समझ कर कहा था. अब तक आप अपनी योजनाओँ पर काम नहीँ करते, तब तक वह जीवित शहर आप की क़ब्र ही बना रहेगा. जिस दिन आप काम फिर शुरू कर देँगे, चाहे आप गाँव न जाएँ, दिल्‍ली न आएँ, बंबई मेँ ही अपनी किसी एक योजना को पूरा करने मेँ लग जाएँ, बंबई कर्मभूमि बन जाएगा.

मैँ आप से इतना ही कहूँगा : गुरूजी, क़ब्र मेँ से निकलिए.

(यह लेख 1983-84 मेँ लिखा गया था.)

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©अरविंद कुमार

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