दिल है हिंदुस्तानी की याद मेँ
सच तो यह है कि यह गीत आज़ाद हिंदुस्तान का मैनिफ़ैस्टो था, जो बड़े आत्मविश्वास के साथ खुली सड़क पर सीना ताने निकल पड़ा था. उस के लिए चलना जीवन की कहानी था और रुकना मौत की निशानी. वह फटेहाल था, लेकिन इस बिगड़े दिल शाहज़ादे की तमन्ना एक दिन सिंहासन पर जा बैठने और दुनिया को हैरान कर देने की थी… आज हमेँ वह सपना सच्चा होता नज़र आ रहा है…
© अरविंद कुमार
दखिए शैलेँद्र – मारे गए गुलफ़ाम
जो सफ़र राज कपूर के साथ १९४९ मेँ फ़िल्म बरसात के तुम से मिले हम गीत से शुरू हुआ, वह राज कपूर के ही साथ दिसंबर १९६६ मेँ मेरा नाम जोकर के अधूरे गीत जीना यहाँ मरना यहाँ से ख़त्म हुआ… यह सफ़र था गीतकार शैलेँद्र का जिन्होँ ने उस भारतीयता को परिभाषित किया जिस के दरवाज़े और खिड़कियाँ चारोँ दिशाओँ मेँ खुले हैँ, जो सारे संसार से अपनी पसंद का और अपनी ज़रूरत का हर प्रभाव और संस्कार लेने को तैयार है, और साथ ही साथ जिस मेँ अपना अपनापन बनाए रखने की आंतरिक शक्ति है. इस अस्मिता को शैलेँद्र ने राज कपूर की ही फिल्म श्री ४२० के लिए इन शब्दोँ मेँ कहा था, मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी, सिर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी. सच तो यह है कि यह गीत आज़ाद हिंदुस्तान का मैनिफ़ैस्टो था, जो बड़े आत्मविश्वास के साथ खुली सड़क पर सीना ताने निकल पड़ा था. उस के लिए चलना जीवन की कहानी था और रुकना मौत की निशानी. वह फटेहाल था, लेकिन इस बिगड़े दिल शाहज़ादे की तमन्ना एक दिन सिंहासन पर जा बैठने और दुनिया को हैरान कर देने की थी… आज हमेँ वह सपना सच्चा होता नज़र आ रहा है… रास्ते मेँ लाख कठिनाइयाँ आईँ, संकीर्णतावादी चुनौतियाँ आईँ, और बेशुमार आईँ, लेकिन आज का नौजवान भारत उन सब को ताक़ पर रख चुका है.
2 बाएँ मेरा जूता है जापानी – बीच मेँ राज कपूर की आत्मा शैलेँद्र – दाहिने दिल की बात कहे दिल वाला
शैलेँद्र का कथ्य था, दीन दुःखी मानवता का अपने आप को अँधेरोँ से निकाल कर उजले जीवन की ओर सतत प्रयाण. देव आनंद की कालजयी फ़िल्म गाइड मेँ वह कल के अँधेरोँ से निकलने की बात करते हैँ. राज कपूर की आवारा का अविस्मरणीय स्वप्न दृश्य और उस के गीतोँ का एक एक बोल इस का सर्वोत्तम उदाहरण है. चार खंडोँ वाली क्लासिकल सिंफ़नी की तरह संगीतबद्ध यह दृश्य एक ओर निर्देशक राज कपूर की दृश्य-नाट्य परिकल्पना शक्ति का परिचायक है, तो दूसरी ओर संगीतकार शंकर जयकिशन की रचनाशीलता का सबूत और गीतकार शैलेँद्र की काव्य क्षमता का. नायक राजू अपने जीवित नरक से निकलने को छटपटा रहा है. उसे ज़िंदगी चाहिए, बहार चाहिए… ऊपर धुंध और बादलोँ के पार स्वर्ग है जहाँ है उस की चाहत की राजकुमारी… राजू की सफलता का स्वागत वह करती है लता मंगेशकर के गाए घर आया मेरा परदेसी गीत से… यही भाव जागते रहो के अंतिम दृश्य मेँ साकार होता है जब ठुकराए ठोकर खाए प्यासे राजू को मंदिर की पुजारिन नरगिस पानी पिलाती है, और गा रही है — जागो मोहन प्यारे…
पतिव्रता सीतामाई को तू ने दिया बनवास
अगर मुझ से पूछा जाए तो मैँ कहूँगा राज कपूर की आवारा विश्व की गिनीचुनी सर्वोत्तम फ़िल्मोँ मेँ से है. मैँ तो राज कपूर के समग्र कार्यकाल के आधार पर उन की गिनती हमारे नए देश के मानस के निर्माताओँ मेँ करता हूँ. इस मेँ उन्हेँ ख़्वाजा अहमद अब्बास और शैलेँद्र से रचनात्मक सहयोग मिला.
आवारा मेँ प्राचीन मान्यताओँ पर प्रतीकात्मक लेकिन स्वीकार्य ढंग से गहरी चोट भी की गई थी, तीखे सवाल उठाए गए थे. राजू के पिता जज रघुनाथ (यह नाम बहुत सोच समझ कर रखा गया है) ने अपनी पत्नी को मात्र इसलिए घर से निकाल दिया कि वह एक रात डाकुओँ के अड्डे पर रहने को मज़बूर हुई थी. मूसलाधार बारिश मेँ वह सड़कोँ पर मारी मारी फिर रही है. किसी दुकान के थड़े पर कुछ लोग डफ ढोल बजाते उलाहना दे रहे हैँ… पतिव्रता सीतामाई को तू ने दिया बनवास… यह उलाहना उन दिनोँ की एक ज्वलंत समस्या को भी रेखांकित करता था जब हज़ारोँ लाखों शरणार्थी महिलाएँ अपने आप को लांछित कलंकित पा रही थीँ और समाज के सामने सवाल था उन का क्या करे. यह गीत भारतीय सांस्कृतिक परंपरा मेँ हिंदुओँ द्वारा दुत्कारी स्त्रियोँ की कहानी भी कहता था जो सीता जी की तरह तिरस्कृत अपमानित और निराश्रित होती रही हैँ, काशी वृंदावन मेँ भटकती रही हैँ या कोठोँ पर पहुँचती रही हैँ. बाद मेँ इसी तरह का एक गीत बिमल राय की बिराज बहू मेँ रखा गया था, और गुरुदत्त की प्यासा मेँ यह भाव साहिर लुधियानवी के गीत कहाँ हैँ कहाँ हैँ जिन्हेँ नाज़ था हिंद पर वो कहाँ हैँ मेँ पराकाष्ठा पर पहुँचा था.
यह भी विचारणीय है कि संकीर्णतावादी उग्रपंथियोँ के इस ज़माने मेँ कोई फ़िल्मकार पतिव्रता सीता माई जैसा गीत रखने की हिम्मत कर सकता है क्या? आज तो ज़रा भी संदिग्ध फ़िल्मोँ की शूटिंग तक रोक दी जाती है…
रावलपिंडी से मुंबई
शैलेँद्र का जन्म ३० अगस्त १९२३ को रावलपिंडी मेँ हुआ था. उन के बचपन मेँ ही परिवार मथुरा आ बसा था, जहाँ उन की पढ़ाई लिखाई हुई. माँ की अकाल मृत्यु से भगवान से उन का विश्वास हट गया. कम उम्र मेँ उन्होँ ने रेलवे मेँ कारीगर की नौकरी कर ली, और १९४७ मेँ बंबई (मुंबई) चले आए. राष्ट्रीय आंदोलन से प्रभावित शैलेँद्र सामयिक विषयोँ पर कविताएँ लिखते और कवि सम्मेलनोँ मेँ पढ़ते. ऐसी ही एक कविता जलता है पंजाब सुन कर फ़िल्म निर्माण मेँ प्रवेश कर रहे राज कपूर ने शैलेँद्र को अपनी फ़िल्मोँ मेँ लिखने का न्योता दिया, लेकिन शैलेँद्र ने इनकार कर दिया. पर जब उन के पहली संतान होने वाली थी, तो राज कपूर का न्योता उन्हेँ याद आया. कहते हैँ उस दिन बरसात हो रही थी, शैलेँद्र फ़िल्म स्टूडियो के दरवाज़े पर खड़े थे, अंदर जाना चाहते थे, जा नहीँ पा रहे थे. तभी राज कपूर की गाड़ी आई और राज ने उन्हेँ पहचान लिया. आँखेँ मिलीँ, हार्दिक मुलाक़ात हुई. शैलेँद्र ने तभी कहा — तुम से मिले हम सजन बरसात मेँ. ये शब्द बाद मेँ बरसात फ़िल्म का प्रसिद्ध गीत बने.
तीसरी क़सम फ़िल्म बनाने के संघर्ष की कहानी
इस के बाद की कहानी गीतोँ के ज़रिए ज़्यादा जानी जाती है. और अंत मेँ फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास पर तीसरी क़सम फ़िल्म बनाने के संघर्ष की कहानी के तौर पर जानी जाती है.
शैलेँद्र के लोककवि रूप को आजकल बहुत कम लोग जानते हैँ. वह प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की गतिविधियोँ मेँ बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे. सलिल चौधरी और शैलेँद्र ने अनेक लोकप्रिय धुनोँ की रचना की. उसी काल मेँ शैलेँद्र ने लिखा था — तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत पर यक़ीन कर, अगर कहीँ है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. वह आम आदमी के लिए लिखते थे, दिल की बात करते थे और दिल से लिखते थे. दिल का हाल सुने दिल वाला छोटी सी बात न मिर्च मसाला कह के रहेगा कहने वाला. ग़रीबी को और ग़रीबोँ लाचारोँ के सपनोँ को जीते थे जानते थे, और उन्हेँ दिल के आइने मेँ उतार कर बड़ी सहज भाषा मेँ कहते थे. भूखे बच्चोँ की रोटी की आस को शैलेँद्र ने इतने आसान शब्दोँ मेँ लिखा था — क्योँ न हम रोटियोँ का पेड़ इक लगा लेँ, आम तोड़ेँ रोटी तोड़ेँ आम रोटी खा लेँ. इस भाव को जापानी फ़िल्म निर्देशक अकीरा कुरोसावा ने एक मार्मिक दृश्य मेँ इस प्रकार दिखाया है. दो फक्कड़ भूखे भाई बहन सामने मैदान मेँ घोड़ों को घास चरते देख रहे हैँ. छोटा भाई कहता है – काश हम घोड़े होते, भूख लगती घास खा लेते…
वह मार्क्सवादी थे, मार्क्सवाद का चिंतन करते थे, बहसों मेँ पड़ते थे, लेकिन अपने आप को मार्क्सवादी संकीर्णता से बाँध कर रखने को वह कभी तैयार नहीँ हुए. कोरी बौद्धिकता से उन्हेँ गहरी अरुचि थी. राज कपूर की ही फ़िल्म जिस देश मेँ गंगा बहती है मेँ उन्होँ ने बुद्धिवादियोँ पर बड़ी गहरी चोट की थी — कुछ लोग जो ज़्यादा जानते हैँ, इनसान को कम पहचानते हैँ…
किसी भी पेशे मेँ लोग अपने समकालीनोँ से ईर्ष्या करते हैँ, आपाधापी करते हैँ, नए लोगोँ के प्रवेश मेँ रुकावटेँ डालते हैँ. शैलेँद्र इस के उलटे थे. उन्हेँ अपने काम से काम था, अन्य कवियोँ को फ़िल्मोँ मेँ लाने के वह उत्सुक रहते थे. जिन दिनोँ बंदिनी बन रही थी गीतकार गुलज़ार को बिमल राय के पास शैलेँद्र ने ही भेजा था. इस मुलाक़ात का परिणाम था गुलज़ार का शानदार गीत मोरा गोरा अंग लइले मोहे श्याम रंग दइदे. कहा यह भी जाता है इस का मुखड़ा और कुछ पंक्तियाँ शैलेंद्र पहले ही लिख चुके थे. गुलज़ार बिमल राय के सहायक भी बन गए, और बाद मेँ फ़िल्म निर्देशक और निर्माता भी. जिन दिनोँ मैँ बंबई मेँ था, मैँ इस कोशिश मेँ रहता था कि हिंदी साहित्यकारोँ और फ़िल्म वालोँ के बीच की दूरी को कम करूँ. साहित्य सिनेमा संगम नाम से एक संस्था के द्वारा मैँ ने बंबई मेँ एक कवि सम्मेलन रखा था. उस मेँ निमंत्रित कवियोँ को शैलेँद्र ने अपने घर पर बुलाया, भोज दिया और कई निर्माताओँ से मिलवाने की बात की.
तीन वर्षोँ का संबंध
शैलेँद्र से मेरा संबंध उन के जीवन के अंतिम तीन वर्षोँ भर का था. इन तीन वर्षोँ के उन के संघर्षमय जीवन का मैँ निकट साक्षी भी बना.
१९६३ तक मैँ सरिता के संपादकीय विभाग मेँ काम करता था. हमारे दफ़्तर के पास ही था पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस का दफ़्तर. वहाँ मेरी घनिष्ठ मित्रता डाक्टर राम विलास शर्मा के छोटे भाई मुंशी से हो गई थी. हम लोग दिन मेँ रोज़ दोतीन बार मिलते. मुंशी मुझे शैलेँद्र के लोकगीत सुनाते. उन्हीं दिनोँ सरिता परिवार के सर्वेसर्वा संपादक और मेरे गुरु विश्वनाथ जी से एक छोटी सी अप्रिय घटना के कारण हम लोगोँ के बीच अनबन हो गई. कुछ महीनोँ के कटु संघर्ष के बाद मैँ ने त्यागपत्र दे दिया और मुझे टाइम्स आफ़ इंडिया के बंबई कार्यालय से हिंदी फ़िल्म पत्रिका माधुरी का समारंभ और संपादन करने का दायित्व मिला.
बंबई जाते जाते मुंशी ने मुझे हिदायत दी कि शैलेँद्र से अवश्य मिलूँ. दिसंबर १९६३ के आरंभ मेँ शैलेँद्र से मिलाने मुझे ले गए उन दिनोँ हिंदी ब्लिट्ज़ के संपादक मेरे मित्र मुनीश नारायण सक्सेना. एक ही पल मेँ शैलेँद्र से अपनापन, अपनापन ही नहीँ भाईचारा हो गया और वह बड़े भाई बन गए. शैलेँद्र ने कहा राज साहब से तुम्हेँ मैँ मिलाऊँगा. राज ने कहा तुम शैलेँद्र के मित्र हो, मेरे दरवाज़े तुम्हारे लिए चौबीस घंटे खुले हैँ. और जब तक मैँ बंबई मेँ रहा वे दरवाज़े हमेशा खुले रहे. शैलेँद्र के ही कारण शंकर जयकिशन से मुलाक़ात हुई और मुकेश से. बाद मेँ जब मैँ नेपियन सी रोड पर रहने चला गया और सुबह की सैर के लिए हैँगिंग गार्डन सपरिवार जाने लगा तो वहाँ मुकेश से अकसर मुलाक़ात होती. इन सब मुलाक़ातोँ का ज़िक्र मैँ ने शैलेँद्र के अंतिम दिनोँ के संघर्ष के प्रसंगवश ही किया है.
1 मुंशी के नाम लिखे शैलेंद्र के दो दुर्लभ पत्र – ऊपरá और नीचेâ
तीसरी क़सम – शैलेंद्र का निजी सपना – अब घाटा ही घाटा था
तीसरी क़सम शैलेँद्र का निजी सपना थी और जुनून भी. बस एक क़सर थी – फ़िल्म एक व्यवसाय है, फ़िल्म एक प्रोडक्ट है जिसे बेचना होता है. सपनोँ की दुनिया मेँ रहने वाले शैलेँद्र को यह पेचीदगी आख़िर तक समझ मेँ नहीँ आई. वह लोगोँ पर विश्वास करते रहे, लुटते रहे… बिकाऊ प्रोडक्ट बनने के लिए तीसरी क़सम मेँ बहुत कुछ था — बड़े नाम वाले राज कपूर और वहीदा रहमान, बड़े नाम वाले शंकर जयकिशन… जो नहीँ था वह था एक बड़ा निर्देशक. बासु भट्टाचार्य शैलेँद्र के निजी मित्र थे. बिमल राय की बेटी रिंकी से बासु के विवाह से ले कर उन दिनोँ तक शैलेँद्र हर तरह से बासु के काम आए थे. लेकिन बासु मेँ अहं अधिक था, अनुभव कम, और अपने साथियोँ को साथ ले कर चलने की क्षमता और भी कम. बात बात पर झगड़े होते, शूटिंग बंद हो जाती. अपनी शेखीख़ोरी भरी बातोँ से डिस्ट्रीब्यूटरोँ को बिदकाने की क्षमता भी बासु मेँ कम नहीँ थी… अनेक बातें हैँ जिन की तफ़सील मेँ जाने की ज़रूरत यहाँ नहीँ है…. नाम तो अंत तक उन का ही रहा पर बासु को फ़िल्म से अलग होना पड़ा…
शैलेँद्र बुरी तरह कर्ज़ोँ मेँ डूबे थे. सुबह सैर पर मुकेश और मैँ शैलेँद्र के संकटोँ की बात करते और उन से उबरने की तरक़ीबेँ भिड़ाते. फ़िल्म ओवरबजट हो चुकी थी. तय था कि सुपरहिट हो जाए तो भी फ़िल्म घाटे का सौदा रहेगी. सवाल मुनाफ़े का नहीँ घाटे को कम करने का था. जो कुछ भी शूट किया गया था उसे समझने की कोशिश आरके स्टूडियो मेँ राज ख़ुद करने लगे. झीँकते झल्लाते किसी तरह वह शाम आई जब हम लोगोँ ने आरके (स्टूडियो) मेँ तीसरी क़सम का संतोषप्रद फ़ाइनल प्रिंट देखा… फ़िल्म डिस्ट्रीब्यूटरोँ को दे दी गई… लेकिन दुर्भाग्य अभी ख़त्म नहीँ हुआ था. एक दिन ख़बर मिली कि दिल्ली मेँ बिना किसी प्रचार के, अख़बारोँ मेँ रिलीज़ की सूचना तक दिए बग़ैर, फ़िल्म सिनेमाघर मेँ लगा दी गई. हाल ख़ाली गया. एक शो के बाद फ़िल्म उतार दी गई….
बात घाटा कम करने की थी. अब घाटा ही घाटा था.
पैसा उगाहने वालोँ की भीड़ मेँ शैलेँद्र को अंडरग्राउंड होना पड़ा. अंडरग्राउंड होने का मतलब इस मामले मेँ बस इतना था कि कोई भी मिलने वाला आता तो कह दिया जाता कि शैलेँद्र शहर मेँ नहीँ हैँ. आने वाला जब थक कर जाने लगता तो ऊपर से परदे के पीछे से झाँक कर देखा जाता कि कौन है जो जा रहा है.
इसी प्रकार एक दिन मैँ लौट रहा था. मुझे भीतर बुला लिया गया. हम लोग बातें करने लगे. ग़लती यह हुई कि फुसफुसा कर नहीँ अपने स्वाभाविक स्वर मेँ बात कर रहे थे. तभी एक लेनदार आ गए. उन्होँ ने हमारी आवाज़ेँ सुन लीं, कितना ही टरकाया गया वे गए नहीँ. ज़ोर ज़ोर से बोलने लगे कि उन्होँ ने शैलेँद्र की आवाज़ पहचान ली है. वे थे भी शैलेँद्र के निजी मित्र. कोई छोटे मोटे सरकारी कर्मचारी थे. उन्हेँ भीतर बुलाना पड़ा. तीसरी क़सम के अंतिम दिनोँ मेँ शैलेँद्र ने मित्रता का वास्ता दे कर उन से पाँच या दस हज़ार रुपए कर्ज़ लिए थे, और उस दोस्त ने बस इतनी सी रक़म के बदले फ़िल्म मेँ बराबर की भागीदारी लिखवा ली थी. लेकिन फ़िल्म अब पिट चुकी थी. उस से एक भी पैसा वसूल होने की संभावना नहीँ थी. इस से पहले और इस के बाद इतना अपमानित होते मैँ ने किसी को नहीँ देखा. वह दोस्त पूरे परिवार और मेरे सामने शैलेँद्र को माँ बहन की गालियाँ देता रहा. शैलेँद्र और हम सब चुपचाप सुनते रहे…
दिन बीतते गए…. शैलेँद्र को पता था कि दिनोँ के साथ जीवन भी बीत रहा है… उन्हेँ सिरोसिस आफ़ लिवर की जानलेवा बीमारी थे. इस बीमारी का संबंध बहुत ज़्यादा शराब पीने से भी होता है. हम लोगोँ के इसरार पर वे कई महीने बिना शराब रहे. पर तीसरी क़सम के तनावोँ ने उन्हेँ तोड़ दिया. वह फिर पीने लगे, पीते रहे… जिगर सिकुड़ कर पत्थर होता जा रहा था. जीवन रस सूखता जा रहा था. पता था कि अब वह कुछ दिनोँ के मेहमान हैँ.
आख़िरी घड़ी
१३ दिसंबर १९६६ की शाम को सांताक्रूज़ से वह कोलाबा के एक निजी नर्सिंग होम के लिए निकले. आरके स्टूडियो चेंबूर मेँ था, बिल्कुल अलग दिशा मेँ. पर पहले वह वहाँ गए. उन्हेँ पता था कि यह आख़िरी घड़ी है. पर जीने की आस थी, ज़िंदगी पर एक बार फिर यक़ीन करने का मन कर रहा था. उन्होँ ने राज कपूर से वादा किया कि मेरा नाम जोकर का अधूरा गीत जीना यहाँ मरना यहाँ वह ज़रूर पूरा करेँगे. १४ की सुबह (यह राज कपूर का जन्मदिन भी है) वह गीत के मुखड़े का दूसरा अंश पूरा कर गए. उन्होँ ने कभी लिखा था, सबेरे वाली गाड़ी से चले जाएँगे. उसी गाड़ी से वह गए… एक और सफ़र के लिए… वहाँ जहाँ न घोड़ा है न गाड़ी है, जहाँ पैदल ही जाना है…
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आज ही http://arvindkumar.me पर लौग औन और रजिस्टर करेँ
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