हिम हमें कई रूपों में मिलता है. कुछ रूप हैं सुहाने, कुछ स्वादिष्ठ, कुछ कर्कश, मारक, घातक, हानिकर. प्रलयंकर…
अनेक पर्वतों पर, उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर बर्फ़ पूरे साल जमा रहता है. अजब नज़ारा होता है… चारों ओर सफ़ेदी ही सफ़ेदी. गरमी का मौसम हो तो लगातार खिली रहने वाली धूप से आँखें चुँधिया जाएँ. न कहीं घास, न पेड़ पौधे. न कहीं कोई ताल, तालाब, न पीने का पानी. तालाब हैं तो वे छेद नीचे जिन में कहीं गहरे कहीं उथले में मिल सकता है पानी. पानी पीना हो तो उबालना पड़ेगा बर्फ़.
ऐसे बर्फ़ीले ढलानों पर बहती हैं नदियाँ. इन नदियों में बहता पानी नहीं होता, होती है बर्फ़ की परत. ये बहती हैं धीरे धीरे, मंद मंथर गति से. इतनी आहिस्ता कि हमें इन के चलने या बहने का अहसास नहीं होता. ऐसी नदी को कहते हैं –
4हिमनद, ग्लेशियर, बला की नदी, हिमानी.
हिमनद शब्द संस्कृत भाषा में नही है. इसे हम नवसंस्कृत शब्द कह सकते हैं. ऐसा शब्द जो संस्कृत की किसी धातु या प्रचलित शब्द को बदल के बनाया गया हो, या जिसे नए अर्थ दिए गए हों. ग्लेशियर शब्द अँगरेजी से आया है, और इस का स्रोत है फ़्राँसीसी ‘गलास’ यानी आइस, हिम, बर्फ़. परिभाषा है - पर्वतों या ध्रुवों पर एकत्रित हिम का सघनित समूह जो धीरे धीरे नीचे की ओर सरक या चल रहा हो. असल में यह हिम समूह बहुत विशाल और गहरा होता है. पर्वतों पर रूई के गाले के रूप में बर्फ़ बरसता है. धीरे धीरे जम कर ठोस और पारदर्शी हो जाता है. अब इस का भार इतना अधिक हो जाता है कि यह किसी ठलवाँ स्थान पर टिका नहीं रह सकता और नीचे को फिसलने लगता है. यह फिसलन ही इसे हिमनद बनाती है.
हिमनद कभी कभी बड़ा भयानक रूप ले लेते हैं. तब जब कि ये अवालांच बन जाएँ.
4अवालांच माने हिम धाव, हिम स्खलन, या फिर हिमानी. इसे बला की नदी भी कहते हैं. साधारण भाषा में कहें तो बर्फ़ के पहाड़ का टूट पड़ना. यह सचमुच बुरी बला है. इस की चपेट में जो भी चीज़ आ जाएगी वह टनों बर्फ़ के नीचे दब कर हिमीभूत हो जाएगी.
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©अरविंद कुमार
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