जूलियस सीज़र – प्रस्तुति

In Culture, Drama by Arvind KumarLeave a Comment

प्रस्‍तुत है महाकवि विलियम शैक्‍सपीयर के प्रसिद्ध नाटक जूलियस सीज़र  का हिंदी काव्‍यानुवाद…

सीज़र की कहानी हम भारतीयोँ को बिल्‍कुल अपनी सी लगती है. शायद हमेँ इस मेँ महाभारत की झलक मिलती है – सत्ता और सिद्धांत के लिए संघर्ष… यह संघर्ष कितना सैद्धांतिक है और कितना स्‍वार्थपरक, कितना जनहित मेँ है और कितना निजहित मेँ – यह तय करना कठिन है.

यह अनुवाद मैँ ने १९८८-८९ मेँ तब किया था जब मुझे दिल का भारी दौरा पड़ा था और कुछ महीनोँ बाद मेँ बाइपास सर्जरी करानी थी. डाक्‍टरोँ ने आदेश दिया था कि मेज़ पर बैठ कर समांतर कोश के कार्डोँ पर श्रमसाध्‍य काम न करूँ. समय काटने के लिए मैँ ने बिस्‍तर मेँ पड़े पड़े शैक्‍सपीयर फिर से पढ़ना शुरू किया, और सब से पहले उठाया यही जूलियस सीज़र. और अचानक विचार आया कि इस का अनुवाद क्योँ न करूँ? मैँ ने यह सब से पहले पचासादि दशक के आरंभिक वर्षोँ मेँ पढ़ा था, और जब उसी दशक के मध्‍य वर्षोँ मेँ मैँ नई दिल्‍ली मेँ पंजाब विश्‍वविद्यालय के सायंकालीन कैंप कालिज का छात्र था, तब अँगरेजी साहित्‍य मेँ ऐम.ए. मेँ शैक्‍सपीयर पर एक स्‍वतंत्र परचा होने के कारण उन के साहित्‍य से विशेष परिचय हुआ. उन के कई सानेटोँ का हिंदी सानेटों मेँ अनुवाद किया. शैक्‍सपीयर के अपने छंद आयंबिक पैंटामीटर मेँ अनेक प्रयोग किए. (यह अनुवाद भी उसी छंद मेँ है. कोशिश की है कि लगभग मूल जितनी पंक्तियोँ मेँ ही हिंदी अनुवाद भी हो. कई जगह फ़ुटनोटोँ के स्‍थान पर अतिरिक्त पंक्तियाँ अवश्‍य लिखी हैँ. निर्णय करेँगे शैक्‍सपीयर प्रेमी या शैक्‍सपीयर पढ़ने पढ़ाने वाले छात्र और प्राध्‍यापक!)

मैँ ने इस नाटक का जो पहला हिंदी रूप तैयार किया वह रूपांतर था – विक्रम सैंधव. वह श्री राम गोपाल बजाज को बहुत पसंद था. (उन दिनोँ वह राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल के निदेशक थे. आजकल वह स्‍वयं नाट्य विद्यालय के निदेशक हैँ. – यह बात तब की है जब मैँ ने यह प्रस्तुति लिखी थी. अब इंटरनैट पर इस अनुवाद के प्रकाशन के समय राम गोपाल बजाज नाट्य विद्यालय से निवृत्त हो कर हैदराबाद मेँ हैँ. –अर. 11 फ़रवरी 2011) वह उस की पंक्तियोँ के प्रवाह के दीवाने थे और अपने निर्देशन मेँ उसे मंच पर कर दिखाना चाहते थे. घोषणा भी हो चुकी थी. घटनाक्रम कुछ ऐसा बना कि नब्‍बे आदि दशक के आरंभिक वर्षोँ मेँ मंचन हुआ श्री इब्रहिम अल्‍काज़ी के निर्देशन मेँ. वह रूपांतर नहीँ, अविकल अनुवाद मंचित करना चाहते थे. अतः मैँ ने यह अनुवाद तैयार किया. अतिरेकपूर्ण भाषा मेँ मैँ ने लिखा कि जूलियस के हाथोँ विक्रम मारा गया! बिल्‍कुल तो नहीं मरा – नाट्य विद्यालय ने उसे पुस्‍तक रूप मेँ प्रकाशित किया है. लेकिन नाटक तभी नाटक बनता है जब उस का मंचन हो. अभी तक विक्रम का मंचन नहीं हुआ है – मेरी ज़िद है कि राम गोपाल बजाज ही उस का पहला मंचन करेँ. देखेँ ऐसा कब होता है.

 

मुझे इस बात की ख़ुशी है कि इस प्रस्‍तुति पर हस्‍ताक्षर मैँ आज १ अप्रैल २००० को कर रहा हूँ. ५५ वर्ष पहले १९४५ मेँ आज के ही दिन पंदरह साल का मैँ मैट्रिक का इम्‍तहान दे कर, परिणाम का इंतज़ार किए बग़ैर, सरिता आदि पत्रिकाओँ के छापेख़ाने दिल्‍ली प्रैस मेँ डरता डरता घुसा था डिस्‍ट्रीब्‍यूटिंग-कंपोज़िंग सीखने, और डिस्‍ट्रीब्‍यूटिंग फ़ोरमैन मुहम्‍मद शफ़ी को गुरु बनाया था. वहीँ कंपोज़िंग फ़ोरमैन रामचंद्र जी से मुझे स्‍नेह मिला. लेकिन मेरे असली गुरु का पद है सरिता के संपादक विश्‍वनाथ जी का. दिन मेँ काम और शाम के समय पढ़ते पढ़ते उन्‍हीँ के प्रोत्‍साहन से मैँ प्रूफ़रीडर, उपसंपादक बना और विश्‍व साहित्‍य पढ़ने और अनूदित करने लायक़ हुआ. मुझे इस बात की भी ख़ुशी है कि जूलियस का मंचन विश्‍वनाथ जी ने देखा सराहा.

©अरविंद कुमार

 

१ अप्रैल २०००

सी-१८ चंद्र नगर, ग़ाज़ियाबाद २०१०११

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