श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद – 16 – सोलहवाँ अध्याय

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श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद

ब्रह्म विद्या योग शास्त्र

अध्याय 16

 

 

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अनुवादक

अरविंद कुमार

 

 

 

 

 

इंटरनैट पर प्रकाशक

अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.

कालिंदी कालोनी

नई दिल्ली 110065

 

षोडशोऽध्यायः

दैवासुर संपद् विभाग योग

श्रीभगवान् उवाच

अभयं सत्त्व-संशुद्धिर् ज्ञान-योग-व्यवस्थितिः ।

दानं दमश् य यज्ञश् च स्वाध्यायस् तप आर्जवम् 

श्री भगवान ने कहा

एक : निर्भयता भय का न होना, मन से निडर होना.

दो : सत्त्व संशुद्धि पूरे अस्तित्व का, अंतःकरण का, शुद्ध होना.

तीन : ज्ञान योग मेँ स्थिति तत्त्व ज्ञान मेँ दृढ़ता से लगे रहना.

चार : दान उदारता की भावना.

पाँच : दमन आत्मसंयम, अपने पर अनुशासन.

छः : यज्ञ श्रुति स्मृति द्वारा बताए गए अग्निहोत्र आदि यज्ञ, निज हित और सामाजिक कल्याण के लिए बताए गए कर्म.

सात : स्वाध्याय नियमित रूप से आत्मा का चिंतन और मनन.

आठ : तप शरीर की साधना.

नौ : आर्जव सरलता, सादगी, खरापन, निष्कपटता.

अहिंसा सत्यम् अक्रोधस् त्यागः शान्तिर् अपैशुनम् ।

दया भूतेष्व् अलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीर् अचापलम् 

दस : अहिंसा मन, वचन और कर्म से किसी को पीड़ा न पहुँचाना.

ग्यारह : सत्य सत्य पर चलना, सत्य सोचना, बोलना और करना.

बारह : अक्रोध किसी पर क्रोध न करना, ग़ुस्सा न होना.

तेरह : त्याग कर्मोँ के फल का त्याग और इस भावना का त्याग कि मैँ कुछ करता हूँ.

चौदह : शांति सांत्वना, मन मेँ प्रशांत भाव.

पंदरह : अपैशुन निंदाहीनता, चुग़ली न करना, दुष्ट न होना.

सोलह : दया सब प्राणियोँ के प्रति करुणा, सहानुभूति.

सत्तरह : अलोलुपता लालच का न होना.

अठारह : मार्दव मृदुता, लचीलापन, कोमलता.

उन्नीस : ह्री लज्जा, शरमीलापन.

बीस : अचपलताचंचल न होना.

तेजः क्षमा धृतिः शौचम् अद्रोहो नातिमानता ।

भवन्ति सम्पदं दैवीम् अभिजातस्य भारत 

इक्कीस : तेज तेजस्विता, कांति, चमक, ओज, चरित्र का बल.

बाईस : क्षमा दूसरोँ को माफ़ करने की भावना, सहनशीलता.

तेईस : धृति धारण करने की शक्ति, धैर्य.

चौबीस : शुचि मन और तन की स्वच्छता, पवित्रता.

पच्चीस : अद्रोह किसी से दुश्मनी न होना, किसी का बुरा न चाहना.

सत्ताईस : नातिमानता अपने आप को बहुत ऊँचा न मानना, बड़ा न मानना, अनभिमान, अभिमानहीनता.

भारत, ये सब लक्षण उन के हैँ जो दैवी संपदा के साथ पैदा होते हैँ.

दम्भो दर्पोऽभिमानश् च क्रोधः पारुष्यम् एव च ।

अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदम् आसुरीम् 

दंभ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोरता, अज्ञान ये लक्षण उन के हैँ, जो आसुरी संपदाएँ ले कर पैदा होते हैँ.

दैवी सम्पद् विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।

मा शुचः सम्पदं दैवीम् अभिजातोऽसि पाण्डव 

यह माना गया है कि दैवी संपदाएँ मोक्ष दिलवाती हैँ और आसुरी संपदाएँ मनुष्य को बाँधती हैँ. शोक मत कर, पांडव, तेरा जन्म दैवी संपदाओँ के साथ हुआ है.

द्वौ भूत-सर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च ।

दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु 

संसार मेँ लोग दैवी और आसुरी इन दो वृत्तियोँ के होते हैँ. मैँ ने तुझे दैवी वृत्ति के लोगोँ के बारे मेँ विस्तार से बताया. पार्थ, अब तू मुझ से आसुरी वृत्ति वाले लोगोँ के बारे मेँ सुन.

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुर् आसुराः ।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते 

आसुरी वृत्ति वाले लोग नहीँ जानते कि किन कामोँ मेँ लगना है और किन से दूर रहना है. वे मन से, तन से और कर्म से साफ़ नहीँ होते. उन्हेँ सही आचरण नहीँ आता. उन मेँ सत्य नहीँ होता.

असत्यम् अप्रतिष्ठं ते जगद् आहुर् अनीश्वरम् ।

अ-परस्पर-सम्भूतं किम्अन्यत् काम-हैतुकम् 

वे कहते हैँ कि संसार असत्य है, संसार का कोई आधार नहीँ है. इस संसार को बनाने वाला कोई ईश्वर नहीँ है. इस की विभिन्न प्रक्रियाएँ एक दूसरे से स्वतंत्र और असंबद्ध हैँ. संसार मेँ भोगोँ को भोगने और चाहतोँ और इच्छाओँ को पूरा करने के अलावा और है ही क्या?

एतां दृष्टिम् अवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्प-बुद्धयः ।

प्रभवन्त्य् उग्र-कर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः 

इस दृष्टिकोण मेँ विश्वास ने उन की आत्मा को नष्ट कर दिया है. उन की बुद्धि अल्प है. वे सब का अहित करते हैँ. उन के कर्म उग्र हैँ. उन का जन्म जगत का नाश करने के लिए होता है.

कामम् आश्रित्य दुष्पूरं दम्भ-मान-मदान्विताः ।

मोहाद् गृहीत्वाऽऽसद्-ग्राहान् प्रवर्तन्तेऽशुचि-व्रताः १०

उन की चाहतोँ का पूरा होना कठिन है. वे घमंड, बड़प्पन और मद से भरे हैँ. अपनी मूर्खता के बस मेँ हो कर वे मिथ्या सिद्धांतोँ और विश्वासोँ को मानते हैँ. उन के व्रतसंकल्पगंदे हैँ.

चिन्ताम् अपरिमेयां च प्रलयान्ताम् उपाश्रिताः ।

कामोपभोग-परमा एतावद् इति निश्चिताः ११

मरने के क्षण तक उन का पूरा जीवन अनंत चिंताओँ से घिरा रहता है. वे कामनाओँ इच्छाओँ के भोग मेँ हमेशा लगे रहते हैँ. उन का दृढ़ विश्वास है कि संसार बस यही है.

आशा-पाश-शतैर्-बद्धाः काम-क्रोध-परायणाः ।

इर्हन्ते काम-भोगार्थम् अन्यायेनार्थ-सञ्चयान् १२

सैकड़ोँ आशाओँ के फंदे उन्हेँ बाँधे रहते हैँ. उन की तत्परता काम और क्रोध मेँ रहती है. काम विषयोँ को भोगने के लिए वे अन्याय से, बेईमानी से, धन इकट्ठा करते हैँ.

इदम् अद्य मया लब्धम् इमं प्राप्स्ये मनोरथम् ।

इदम् अस्तीदम् अपि मे भविष्यति पुनर् धनम् १३

आज मैँ ने यह पाया. अब मेरा यह मनोरथ, मेरी यह इच्छा पूरी होगी. मेरे पास इतना धन है. कल बढ़ कर यह इतना हो जाएगा.

असौ मया हतः शत्रुर् हनिष्ये चापरान् अपि ।

ईश्वरोऽहम् अहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान् सुखी १४

मेरा यह दुश्मन था, इसे मैँ ने मिटा डाला, मार डाला, बाक़ी को भी मैँ ऐसे ही मार डालूँगा. मैँ ईश्वर हूँ. मैँ भोगोँ का स्वामी हूँ. मैँ सिद्ध हूँ. मैँ बलवान हूँ. मैँ सुखी हूँ.

आढ्योऽभिजनवान् अस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्य् अज्ञान-विमोहिताः १५

मैँ बड़ा सेठ हूँ. इतना ऊँचा मेरा घराना है. कौन है जो मेरी बराबरी कर सकता है? यज्ञ करूँगा. दान करूँगा. मौज करूँगा. ऐसी बातेँ करने वाले ये लोग अज्ञान मेँ फँसे हैँ.

अनेक-चित्त-विभ्रान्ता मोह-जाल-समावृताः ।

प्रसक्ताः काम-भोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ १६

वे अनेक चित्त वाले हैँ और इस लिए भ्रमित हैँ. वे भ्रम के जाल मेँ फँसे हैँ, और विषय भोगोँ से चिपके रहते हैँ. वे गंदे नरक मेँ गिरते हैँ.

आत्म-सम्भाविताः स्तब्धा धन-मान-मदान्विताः ।

यजन्ते नाम-यज्ञैस् ते दम्भेनाऽऽविधि-पूर्वकम् १७

वे घमंड से जकड़े हैँ. वे जड़ हैँ. धन, बड़प्पन और मद से भरे हैँ. वे यज्ञ करते हैँ, लेकिन केवल नाम के लिए. उस के पीछे घमंड, पाखंड और दिखावा होता है. वह यज्ञ सही विधि से नहीँ किया जाता.

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः ।

माम् आत्म-पर-देहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः १८

वे अहंकार से भरे हैँ. अपने को बलशाली समझते हैँ. घमंडी हैँ. काम और क्रोध से लिपटे हैँ. दूसरोँ से ईर्ष्या करते रहते हैँ. अपने और दूसरोँ के शरीर मेँ स्थित मुझ से घृणा करते हैँ.

तान् अहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान् ।

क्षिपाम्य् अजस्रम् अशुभान् आसुरीष्व् एव योनिषु १९

उन द्वेषियोँ, क्रूरोँ, पापियोँ और नराधम नीचोँ को मैँ बार बार आसुरी योनियोँ मेँ गिराता हूँ.

आसुरीं योनिम् आपन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि ।

माम् अप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्य् अधमां गतिम् २०

जन्म जन्मांतर तक वे मूर्ख आसुरी योनियोँ मेँ गिरते रहते हैँ. मैँ उन्हेँ नहीँ मिल पाता. कौंतेय, इस से वे अधम गति को पाते हैँ.

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनम् आत्मनः ।

कामः क्रोधस् तथा लोभस् तस्माद् एतत् त्रयं त्यजेत् २१

काम, क्रोध और लोभ ये तीनोँ नरक के द्वार हैँ. ये तीनोँ आत्मा का नाश करते हैँ. इस लिए इन तीनोँ को त्यागना चाहिए.

एतैर् विमुक्तः कौन्तेय तमो-द्वारैस् त्रिभिर् नरः ।

आचरत्य् आत्मनः श्रेयस् ततो याति परां गतिम् २२

कौंतेय, ये तीनोँ अंधकार के द्वार हैँ. इन से मुक्त हो कर आत्मा के कल्याण के मार्ग पर जो चलने वाला व्यक्ति परम गति को पहुँचता है.

यः शास्त्र-विधिम् उत्सृज्य वर्तते काम-कारतः ।

न स सिद्धिम् अवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् २३

जो शास्त्र मेँ बताए तरीक़े छोड़ कर, वासना के वशीभूत हो कर, व्यवहार करता है, उसे न सिद्धि मिलती है, न सुख, न परम गति.

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्य-व्यवस्थितौ ।

ज्ञात्वा शास्त्र-विधानोक्तं कर्म कर्तुम् इहार्हसि २४

इस लिए तुझे क्या करना है और क्या नहीँ करना इस का प्रमाण शास्त्र ही है. शास्त्र और विधान मेँ बताए गए कर्म को जान कर यहाँ इस लोक मेँ उन का आचरण करना ठीक है.

इति श्रीमद्-भगवद्-गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्म-विद्यायां योग-शास्त्रे श्री-कृष्णार्जुन-संवादे दैवासुर-संपद्-विभाग-योगो नाम षोडषोऽध्यायः

यह था श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद् ब्रह्म विद्या और योग शास्त्र श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मेँ दैवासुर संपदा विभाग योग नाम का सोलहवाँ अध्याय

 

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