श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद
ब्रह्म विद्या योग शास्त्र
अध्याय 14
☀ अब गीता ☀
पढ़ना आसान
समझना आसान
अनुवादक
अरविंद कुमार
इंटरनैट पर प्रकाशक
अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.
कालिंदी कालोनी
नई दिल्ली 110065
चतुर्दशोऽध्यायः
त्रिगुण विभाग योग
श्रीभगवान् उवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानम् उत्तमम् ।
यज् ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिम् इतो गताः ॥१॥
श्री भगवान ने कहा
मैँ तुझे महान ज्ञान बताता हूँ. यह सब ज्ञानोँ मेँ उत्तम है. इस ज्ञान को पार कर सब मुनियोँ को परम सिद्धि मिल गई और वे इस लोक मेँ तर गए.
इदं ज्ञानम् उपाश्रित्य मम सार्धम्यम् आगताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥२॥
इस ज्ञान की शरण मेँ आ कर लोग मुझ जैसे हो जाते हैँ. नए कल्प मेँ जब सृष्टि फिर से बनेगी, तब भी वे जन्म के बंधन से मुक्त रहेँगे और प्रलय काल मेँ उन्हेँ व्यथा नहीँ होगी.
मम योनिर् महद् ब्रहम तस्मिन् गर्भं दधाम्य् अहम् ।
सम्भवः सर्व-भूतानां ततो भवति भारत ॥३॥
महद् ब्रह्म मेरी योनि है. यह ऐसा गर्भाशय है, जिस मेँ गर्भ की स्थापना मैँ करता हूँ, बीज मैँ रखता हूँ. भारत, इसी से सारे भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ का जन्म होता है.
सर्व-योनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद् योनिर् अहं बीजप्रदः पिता ॥४॥
संसार मेँ जितनी जीव जातियाँ हैँ और उन के जितने भी रूप आकार हैँ, उन की योनि, उन का गर्भस्थल महद् ब्रह्म है. उस मेँ बीज की स्थापना करने वाला पिता मैँ हूँ.
सत्त्वं रजस् तम इति गुणाः प्रकृति-सम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनम् अव्ययम् ॥५॥
सत्त्व, रज और तम – ये तीनोँ गुण प्रकृति से पैदा हुए हैँ. ये गुण अव्यय – परिवर्तनहीन – आत्मा को शरीर से बाँधते हैँ.
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकम् अनामयम् ।
सुख-सङ्गेन बध्नाति ज्ञान-सङ्गेन चानघ ॥६॥
उन मेँ सत्त्व गुण निर्मल होने के कारण निर्विकार और प्रकाशप्रद है. अर्जुन, वह सुख और ज्ञान से बाँधता है.
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णाऽऽसङ्ग-समुद्भवम् ।
तन् निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥७॥
रजोगुण को तू रागात्मक समझ. उस का जन्म तृष्णा – प्यास, इच्छा – के संसर्ग से होता है. वह आत्मा को सुख के प्रति आसक्ति से बाँधता है.
तमस्त्व् अज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्व-देहिनाम् ।
प्रमादालस्य-निद्राभिस् तन् निबध्नाति भारत ॥८॥
तमोगुण को तू अज्ञान से पैदा हुआ जान. वह मोहक है, भ्रामक है. वह देहधारियोँ को मोह लेता है. वह प्रमाद – मादकता और असावधानी – से, आलस्य से और नीँद से बाँधता है.
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानम् आवृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्य् उत ॥९॥
सत्त्व गुण सुख से जोड़ता है, रजोगुण कर्म से, ज्ञान पर परदा डाल कर तमोगुण प्रमाद से जोड़ता है.
रजस् तमश् चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश् चैव तमः सत्त्वं रजस् तथा ॥१०॥
रज और तम को दबा कर सत्त्व गुण होता है. इसी प्रकार सत्त्व और तम को दबा कर रजोगुण होता है, और सत्त्व और रज को दबा कर तमोगुण होता है.
सर्व-द्वारेषु देहेऽस्मिन् प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद् विवृद्धं सत्त्वम् इत्य् उत ॥११॥
जब यह लगे की शरीर के सब द्वारोँ मेँ उजाला सा फूट रहा है, और ज्ञान बढ़ रहा है, तो यह समझना चाहिए कि सत्त्व गुण प्रबल है.
लोभः प्रवृत्तिर् आरम्भः कर्मणा अशमः स्पृहा ।
रजस्य् एतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥१२॥
भरत श्रेष्ठ, रजोगुण बढ़ने पर लोभ बढ़ता है. सक्रियता बढ़ती है. कर्मोँ का सूत्रपात होता है. अशांति बढ़ती है. स्पृहा – लालसाएँ बढ़ती हैँ.
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश् च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरु-नन्दन ॥१३॥
मन का अंधकार, अप्रवृत्ति (निष्क्रियता, आलस्य), प्रमाद (लापरवाही) और मोह (भ्रम)… ये सब तमोगुण बढ़ने पर होते हैँ.
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देह-भृत् ।
तदोत्तम-विदां लोकान् अमलान् प्रतिपद्यते ॥१४॥
यदि मृत्यु के समय सत्त्व गुण प्रबल हो तो आत्मा उन निर्मल निष्कलंक लोकोँ को जाती है जो उत्तम को जानने वाले ज्ञानियोँ को मिलते हैँ.
रजसि प्रलयं गत्वा कर्म-सङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस् तमसि मूढ-योनिषु जायते ॥१५॥
मृत्यु के समय रजोगुण प्रबल हो तो पुनर्जन्म उन लोगोँ के बीच होता है जिन की आसक्ति कर्मोँ मेँ होती है. तमोगुण की प्रबलता मेँ मृत्यु हो तो नया जन्म मूढ़ योनियोँ मेँ होता है.
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस् तु फलं दुःखम् अज्ञानं तमसः फलम् ॥१६॥
कहा जाता है कि पुण्य कर्मोँ का फल सात्त्विक और निर्मल होता है. रजोगुण से युक्त कर्मोँ का फल दुःख है. तमोगुणी कर्मोँ का फल अज्ञान होता है.
सत्त्वात् सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमाद-मोहौ तमसो भवतोऽज्ञानम् एव च ॥१७॥
सत्त्व गुण से ज्ञान होता है. रजोगुण से लालच ही होगा. तमोगुण का परिणाम प्रमाद और मोह तो होता ही है, अज्ञान भी होता है.
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्य-गुण-वृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥१८॥
सत्त्व गुण मेँ स्थित रहने वाले ऊपर जाते हैँ. रजोगुणी बीच मेँ रहते हैँ. निंदनीय गुण मेँ जिन की वृत्ति है वे तामसिक लोग नीचे जाते हैँ.
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टाऽऽनुपश्यति ।
गुणेभ्यश् च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥१९॥
एक अवस्था मेँ ज्ञानी पुरुष को यह दिखाई देने लगता है कि इन गुणोँ के अतिरिक्त कोई अन्य कर्ता नहीँ है. जब वह गुणोँ के पार स्थित परम ब्रह्म को पहचान जाता है, तो वह मेरे अस्तित्व को पा लेता है.
गुणान् एतान् अतीत्य त्रीन् देही देह-समुद्भवान ।
जन्म-मृत्यु-जरा-दुःखैर् विमुक्तोऽमृतम् अश्नुते ॥२०॥
ये तीनोँ गुण देह मेँ पैदा होते हैँ. देह मेँ रहने वाली आत्मा जब इन तीनोँ गुणोँ को पार कर लेती है, तो वह जन्म और मृत्यु के, बुढ़ापे और दुःखोँ के बंधन से छूट जाती है. तब वह अमरत्व को भोगती है.
अर्जुनोवाच
कैर् लिङ्गैस् त्रीन् गुणान् एतान् अतीतो भवति प्रभो ।
किम् आचारः कथं चैतांस् त्रीन् गुणान् अतिवर्तते ॥२१॥
अर्जुन ने कहा
जो इन तीन गुणोँ से ऊपर उठ जाता है, उस का लक्षण क्या है? प्रभु, वह कैसा आचरण करता है? इन तीन गुणोँ से ऊपर वह कैसे जा सकता है?
श्रीभगवान् उवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहम् एव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥२२॥
श्री भगवान ने कहा
पांडव, (सत्त्व गुण का) प्रकाश, (रजोगुण की) प्रवृत्ति और (तमोगुण का) मोह पाने पर वह दुःख नहीँ मनाता और ये न मिलने पर वह इन्हेँ पाने की इच्छा नहीँ करता.
उदासीनवद् आसीनो गुणैर् यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥२३॥
तटस्थोँ की तरह वह उदासीन व्यक्ति को गुण विचलित नहीँ करते. अलग बैठा वह यह देखता रहता है कि किस प्रकार गुण आपस मेँ प्रतिक्रिया कर रहे हैँ. वह अपने को इन के खेल से अलग मानता है और इन गुणोँ के खेल को चलाने की कोशिश नहीँ करता.
सम-दुःख-सुखः स्वस्थः सम-लोष्टाश्म-काञ्चनः ।
तुल्य-प्रियाप्रियो धीरस् तुल्य-निन्दात्म-संस्तुति ॥२४॥
वह दुःख और सुख को एक समान समझता है. वह अपने मेँ ही स्थित होता है. उस के लिए मिट्टी, पत्थर और सोना एक जैसे होते हैँ. प्रिय और अप्रिय – अच्छा और बुरा, मनचाहा और अनचाहा – उस के लिए सब बराबर हैँ. वह धैर्य बुद्धि वाला होता है. अपनी निंदा और प्रशंसा को वह एक समान मानता है.
मानाऽऽपमानयोस् तुल्यस् तुल्यो मित्रारि-पक्षयोः ।
सर्वारम्भ-परित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥२५॥
मान और अपमान उस के लिए बराबर होते हैँ. दोस्त और दुश्मन के पक्षोँ को वह सम भाव से तौलता है. उस के सब प्रयास फल की इच्छा से रहित होते हैँ. उसे गुणातीत कहते हैँ – वह गुणोँ से ऊपर उठा कहा जाता है.
मां च योऽव्यभिचारेण भक्ति-योगेन सेवते ।
स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्म-भूयाय कल्पते ॥२६॥
वह भक्ति योग के द्वारा मेरी सेवा करता है. उस की भक्ति अव्यभिचारी होती है – मेरे सिवा वह किसी और को नहीँ भजता. वह इन गुणोँ को अच्छी तरह पार कर के ब्रह्म बनने योग्य है.
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम् अमृतस्याऽऽव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥२७॥
अमर और अव्यय ब्रह्म का, शाश्वत धर्म का और अखंड सुख का आधार मैँ ही हूँ.
इति श्रीमद्-भगवद्-गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्म-विद्यायां योग-शास्त्रे श्री-कृष्णार्जुन-संवादे गुणत्रय-विभाग योगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः
यह था श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद ब्रह्म विद्या योग शास्त्र श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मेँ गुणत्रय विभाग योग नाम का चौदहवाँ अध्याय
Comments