श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद
ब्रह्म विद्या योग शास्त्र
अध्याय 13
☀ अब गीता ☀
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अनुवादक
अरविंद कुमार
इंटरनैट पर प्रकाशक
अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.
कालिंदी कालोनी
नई दिल्ली 110065
त्रयोदशोऽध्यायः
प्रकृति पुरुष विवेक योग
अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रज्ञम् एव च ।
एतद् वेदितुम् इच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ॥१॥
अर्जुन ने कहा
मैँ प्रकृति, पुरुष और क्षेत्रज्ञ क्या हैँ – मैँ जानना चाहता हूँ. मैं यह भी जानना चाहता हूँ ज्ञान क्या है और वह क्या है जो जानने योग्य है.
श्रीभगवान् उवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रम् इत्य् अभिधीयते ।
एतद् यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥२॥
श्री भगवान ने कहा
कौंतेय, इस शरीर को क्षेत्र कहते हैँ. इस शरीर को जो जानता है उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैँ – यह तद्विदोँ का, ‘उसे’ जानने वालोँ का, कहना है.
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्व-क्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञयोर् ज्ञानं यत् तज् ज्ञानं मतं मम ॥३॥
और, भारत, सब क्षेत्रोँ मेँ क्षेत्रज्ञ भी तू मुझे समझ. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वह मेरा ज्ञान माना गया है.
तत् क्षेत्रं यच् च यादृक् च यद् विकारी यतश् च यत् ।
स च यो यत् प्रभावश् च तत् समासेन मे शृणु ॥४॥
वह क्षेत्र क्या है? कैसा है? उस मेँ क्या परिवर्तन होते हैँ? किस कारण से उस मेँ क्या होता है? ‘वह’ कौन है? क्या करता है? उस का प्रभाव क्या है? – यह सब मैँ तुझे संक्षेप मेँ बताता हूँ. सुन.
ऋषिभिर् बहुधा गीतं छन्दोभिर् विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्र-पदैश् चैव हेतुमद्भिर विनिश्चितैः ॥५॥
अलग अलग ऋषियोँ ने अनेक बार विविध छंदोँ मेँ इसे अनेक प्रकार से गाया है. ब्रह्मसूत्र के पदोँ ने भी कारण और कार्य की विवेचना कर के इसे निश्चित किया है.
महाभूतान्य अहङ्कारो बुद्धिर् अव्यक्तम् एव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रिय-गोचराः ॥६॥
एक : पाँच महाभूत, पाँच महातत्त्व – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश.
दो : अहंकार यानी पृथक सत्ता का बोध. अखिल विश्व चेतना से पृथक हो जाने की क्रिया, जो पाँच महाभूतोँ का कारण है.
तीन : बुद्धि, निर्णय शक्ति, जो अहंकार का कारण है.
चार : अव्यक्त – अप्रकट, माया से अछूती मूल प्रकृति, जो बुद्धि का कारण है.
पाँच : ग्यारह इंद्रियाँ – पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (कान, आँख, त्वचा, नाक, जीभ), पाँच कर्मेंद्रियाँ (वाचा, हाथ, पैर, जननेंद्रिय, मलेँद्रिय), और मन.
छः : इंद्रियोँ के पाँच विषय (शब्द, रूप, स्पर्श, गंध और रस).
(इन सब को सांख्य दर्शन मेँ चौबीस तत्त्व कहा जाता है.)
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश् चेतना धृतिः ।
एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारम् उदाहृतम् ॥७॥
सात : इच्छा – भोग की चाहत, भोगे सुख फिर भोगने की इच्छा.
आठ : द्वेष – अनिच्छा, भोगे दुःखोँ को फिर न भोगने की इच्छा.
नौ : सुख – आनंद की अनुभूति, चैन, आराम.
दस : दुःख – विषाद की अनुभूति, पीड़ा, वेदना, कष्ट
ग्यारह : संघात – शरीर और इंद्रियोँ का संगठन.
बारह : चेतना – ऊर्जा, शरीर और अंतःकरण की शक्ति.
तेरह : धृति – देह और इंद्रियोँ की धारण क्षमता.
इन सब के समुच्चय को उन की संपूर्ण परिवर्तनशीलता के साथ क्षेत्र कहते हैँ.
अमानित्वम् अदम्भित्वम् अहिंसा क्षान्तिर् आर्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यम् आत्म-विनिग्रहः ॥८॥
– अमानित्व – अपने आप को बड़ा न मानना.
– अदंभित्व – घमंडी न होना.
– अहिंसा – मन, वचन और कर्म से किसी अन्य को पीड़ा न पहुँचाना.
– क्षांति – सब के प्रति क्षमा का भाव.
– आर्जव – सहज व्यवहार, सरलता, सादगी, उदारता, निष्कपटता, ऋजुता, सीधापन.
– आचार्य उपासना – गुरु की सेवा, गुरु के प्रति श्रद्धा.
– शौच – शुचिता, स्वच्छता, पवित्रता.
– स्थैर्य – स्थिरता यानी टिकने की क्षमता.
– आत्म विनिग्रह – आत्म संयम.
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम् अनहङ्कार एव च ।
जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-दुःख-दोषाऽऽनुदर्शनम् ॥९॥
– इंद्रियार्थोँ मेँ वैराग्य – इंद्रियोँ के जो विषय हैँ, उन मेँ अनासक्ति.
– अनहंकार – अपने होने के बोध की विस्मृति.
– जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, बीमारी और दुःख मेँ दोषोँ को देखना.
असक्तिर् अनभिष्वङ्गः पुत्र-दार-गृहादिषु ।
नित्यं च सम-चित्तत्वम् इष्टानिष्टोऽपपत्तिषु ॥१०॥
– पुत्र, पत्नी, घर आदि मेँ लगाव और ममता न होना.
– मनचाही और अनचाही बातोँ के होने पर हमेशा उन्हेँ समान भाव से ग्रहण करना.
मयि चानन्य-योगेन भक्तिर् अव्यभिचारिणी ।
विविक्त-देश-सेवित्वम् अरतिर् जन-संसदि ॥११॥
– मुझ मेँ ऐसी भक्ति जो अनन्य योग से पूर्ण हो, जिस मेँ मुझ मेँ और भक्त मेँ अन्य होने का भाव न रहे और जो अव्यभिचारिणी हो, जिस मेँ मेरे अतिरिक्त किसी और का ध्यान न हो.
– एकांत सेवन.
– भीड़ आदि से दूरी.
अध्यात्म-ज्ञान-नित्यत्वं तत्त्व-ज्ञानार्थ-दर्शनम् ।
एतज् ज्ञानम् इति प्रोक्तम् अज्ञानं यद् अतोऽन्यथा ॥१२॥
– अध्यात्म ज्ञान की नित्यता.
– तत्त्व ज्ञान का सही दर्शन.
इन सब को ज्ञान कहा गया है. जो कुछ इस के अतिरिक्त है, इस के विपरीत है, वह अज्ञान है.
ज्ञेयं यत् तत् प्रवक्ष्यामि यज् ज्ञात्वाऽमृतम् अश्नुते ।
अनादिमत् परं ब्रह्म न सत् तन् नासद् उच्यते ॥१३॥
अब मैँ तुझे वह बताऊँगा जो ज्ञेय है – जानने योग्य है. उसे जान कर अमर पद मिलता है. वह अनादि है. वह परम ब्रह्म है. उस के लिए कहा जाता है कि न तो वह ‘सत्’ है, और न ही वह ‘असत्’ है. न तो वह है, न ही वह नहीँ है.
सर्वतःपाणि-पादं तत् सर्वतोऽक्षि-शिरो-मुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल् लोके सर्वम् आवृत्य तिष्ठति ॥१४॥
हर तरफ़ उस के हाथ और पैर हैँ. हर तरफ़ उस की आँखेँ हैँ. हर तरफ़ उस के सिर और मुँह हैँ. और हर तरफ़ उस के कान हैँ. संसार मेँ वह सब को आवृत्त किए बैठा है.
सर्वेन्द्रिय-गुणाभासं सर्वेन्द्रिय-विवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच् चैव निर्गुणं गुण-भोक्तृ च ॥१५॥
उस मेँ सब इंद्रियोँ और गुणोँ का आभास होता है. वास्तव मेँ वह सब इंद्रियोँ से रहित है. वह अनासक्त रह कर सब का भरण और पालन करता है. वह निर्गुण है, लेकिन गुणोँ को भोगता हैँ.
बहिर् अन्तश् च भूतानाम् अचरं चरं एव च ।
सूक्ष्मत्वात् तद् अविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥१६॥
वह सारे भौतिक पदार्थोँ और प्राणियोँ के बाहर भी है और भीतर भी है. वह चल भी है और अचल भी है. वह इतना छोटा है कि उसे जाना नहीँ जा सकता. वह बहुत दूर भी है और बहुत पास भी है.
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तम् इव च स्थितम् ।
भूत-भर्तृ च तज् ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥१७॥
उसे टुकड़ोँ मेँ नहीँ बाँटा जा सकता. लेकिन भौतिक पदार्थोँ और प्राणियोँ मेँ वह ऐसे मौजूद है मानो उस के टुकड़े टुकड़े कर दिए गए होँ. वह ज्ञेय है, जानने योग्य है. वह सब भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ का पालक, नाशक और जनक है.
ज्योतिषाम् अपि तज् ज्योतिस् तमसः परम् उच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥१८॥
वह प्रकाशवानोँ का प्रकाश है. कहते हैँ कि वह अंधकार से परे है. वह ज्ञान है – जानने की क्रिया का फल वह स्वयं है. वह ज्ञेय है – वह जानने योग्य है, ज्ञान का उद्देश्य है. वह ज्ञानगम्य है – उसे ज्ञान से जाना जा सकता है. वह सब के हृदय मेँ बैठा है.
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद् विज्ञाय मद्भावायोऽपपद्यते ॥१९॥
इस प्रकार संक्षेप मेँ मैँ ने तुझे क्षेत्र के बारे मेँ बताया. मैँ ने तुझे ज्ञान और ज्ञेय के बारे मेँ भी बताया. इन्हेँ अच्छी तरह समझ कर मेरा भक्त मेरे भाव को, मेरे अस्तित्व को, पहुँचने योग्य हो जाता है.
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्य् अनादी उभाव् अपि ।
विकारांश् च गुणांश् चैव विद्धि प्रकृति-सम्भवान् ॥२०॥
प्रकृति और पुरुष दोनोँ को ही तू अनादि जान – इन का जन्म नहीँ हुआ है. ये दोनोँ हमेशा से हैँ. तू यह भी जान ले कि जितने विकार हैँ – जितने परिवर्तन होते हैँ, और जो (सत्त्व, रज और तम नामक) गुण हैँ, उन का जन्म प्रकृति से है.
कार्य-करण-कर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिर् उच्यते ।
पुरुषः सुख-दुःखानां भोक्तृत्वे हेतुर् उच्यते ॥२१॥
कार्य (प्रभाव) और करण (शरीर और इंद्रियोँ) के उद्भव का हेतु – आधार – प्रकृति को कहा गया है. सुखोँ और दुःखोँ के भोग का हेतु – आधार – पुरुष को कहा गया है.
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान् गुणान् ।
कारणं गुण-सङ्गोऽस्य सद्-असद्-योनि-जन्मसु ॥२२॥
पुरुष या जीव प्रकृति मेँ स्थापित हो जाता है. फिर वह प्रकृति से उत्पन्न होने वाले गुणोँ को (सत्त्व, रज और तम को) भोगता है. गुणोँ से संसर्ग हो जाने के कारण पुरुष या आत्मा को अच्छी या बुरी योनियोँ मेँ जन्म लेना पड़ता है.
उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्य् उक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः ॥२३॥
इस शरीर मेँ परम पुरुष रहता है. उसे अनेक नामोँ या लक्षणोँ से कहते हैँ.
वह उपद्रष्टा है – प्रकृति के व्यापार को देखता रहता है, इस लिए वह कर्मोँ का साक्षी है.
वह अनुमंता है – वह अनुमति देता है.
वह भर्ता है – सब का भरण करता है, पालन करता है.
वह भोक्ता है – सब भोगोँ को ग्रहण करता है.
वह महेश्वर है – सब देवोँ का ईश्वर है, सब से बड़ा है.
वह परमात्मा है – परम आत्मा है जो परे है, सर्वोपरि है.
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥२४॥
पुरुष को और गुणमयी प्रकृति को जो इस प्रकार जानता है, वह जीवन व्यवहार को हर प्रकार से करते रहने पर भी फिर जन्म नहीँ लेता.
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिद् आत्मानम् आत्मना ।
अन्य साङ्ख्येन योगेन कर्म-योगेन चापरे ॥२५॥
कुछ लोग आत्मा मेँ ध्यान केंद्रित कर के आत्मा के द्वारा आत्मा को देखते हैँ. कुछ उसे सांख्य योग के द्वारा ज्ञान के माध्यम से देखते हैँ. कुछ अन्य लोग उसे कर्म योग के द्वारा कर्म से देखते हैँ.
अन्ये त्वेवम् अजानन्तः श्रुत्वाऽऽन्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्य् एव मृत्युं श्रुति-परायणाः ॥२६॥
कुछ लोग हैँ, जो यह सब नहीँ जानते. वे दूसरोँ से सुन कर उस की उपासना करते हैँ. ज्ञान की बातेँ सुन कर भक्त बने ये लोग भी मृत्यु को पार कर लेते हैँ.
यावत् सञ्जायते किञ्चित् सत्त्वं स्थावर-जङ्गमम् ।
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-संयोगात् तद् विद्धि भरतर्षभ ॥२७॥
भरत श्रेष्ठ, जो कुछ भी चल और अचल, स्थावर और जंगम है, जन्म लेता है, तू यह समझ कि वह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के मेल से होता है.
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्व् अविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥२८॥
सब भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ के भीतर परमेश्वर समान भाव से स्थित है. इन के नष्ट हो जाने पर भी वह नष्ट नहीँ होता. सही देखने वाला व्यक्ति वही है जो यह सब देख पाता है.
समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितम् ईश्वरम् ।
न हिनस्त्य् आत्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम् ॥२९॥
ईश्वर हर जगह समान रूप से स्थित है – जो इस बात को सम्यक् बुद्धि से देखता है, वह अपनी आत्मा से आत्मा का नाश नहीँ करता. वह परम गति को पाता है.
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथाऽऽत्मानम् अकर्तारं स पश्यति ॥३०॥
सब प्रकार के सारे कर्म प्रकृति करती है, आत्मा नहीँ – जो यह देखता है, वह सही देखता है.
यदा भूत-प्रथग्-भावम् एकस्थम् अनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥३१॥
जब अलग अलग भूत पदार्थ और प्राणी ‘उस’ एक मेँ स्थित और ‘उस’ एक का विस्तार – फैलाव – दिखाई देने लगते हैँ, तब ब्रह्म मिलता है.
अनादित्वान् निर्गुणत्वात् परमात्माऽऽयम् अव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥३२॥
परमात्मा अनादि है – उस का आरंभ नहीँ है. वह निर्गुण है – सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोँ से वह अलग है. इसी कारण परमात्मा अव्यय है – उस मेँ परिवर्तन नहीँ होता. कौंतेय, इसी लिए वह देह मेँ मौजूद होने पर भी न तो कुछ करता है, न लिप्त होता है.
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्याद् आकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्राऽऽवस्थितो देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते ॥३३॥
जैसे व्यापक आकाश सूक्ष्मता से लिप्त नहीँ होता. वैसे ही हर जगह शरीर मेँ उपस्थित होने पर भी आत्मा लिप्त नहीँ होती.
यथा प्रकाशयत्य् एकः कृत्स्नं लोकम् इमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥३४॥
जैसे एक सूरज सारे लोक को प्रकाशित करता है, भारत, वैसे ही एक क्षेत्री – क्षेत्रज्ञ – संपूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है.
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञयोर् एवम् अन्तरं ज्ञान-चक्षुषा ।
भूत-प्रकृति-मोक्षं च ये विदुर् यान्ति ते परम् ॥३५॥
ज्ञान की आँखोँ से जो लोग यह जान जाते हैँ कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ मेँ क्या अंतर है और भौतिक प्रकृति से मुक्ति पाने का उपाय क्या है, वे ज्ञानी परम गति पाते हैँ.
इति श्रीमद्-भगवद्-गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्म-विद्यायां योग-शास्त्रे श्री-कृष्णार्जुन-संवादे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग योगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः
यह था श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद ब्रह्म विद्या योग शास्त्र श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मेँ क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग नाम का तेरहवाँ अध्याय
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