श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद
ब्रह्म विद्या योग शास्त्र
अध्याय 11
☀ अब गीता ☀
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अनुवादक
अरविंद कुमार
इंटरनैट पर प्रकाशक
अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.
कालिंदी कालोनी
नई दिल्ली 110065
एकादशोऽध्यायः
विश्वरूप दर्शन योग
अर्जुनोवाच
मद्-अनुग्रहाय परमं गुह्यं अध्यात्म-सञ्ज्ञितम् ।
यत् त्वयोक्तं वचस् तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥१॥
अर्जुन ने कहा
आप ने कृपा कर के मुझे महान और रहस्यपूर्ण अध्यात्म की शिक्षा दी. आप ने जो बताया उस से मेरा भ्रम जाता रहा है.
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।
त्वत्तः कमल-पत्राक्ष माहात्म्यम् अपि चाव्ययम् ॥२॥
भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ की उत्पत्ति कैसे होती है, उन का नाश किस प्रकार होता है – यह मैँ ने आप से विस्तारपूर्वक सुना. कमलनयन कृष्ण, आप ने मुझे अपना अव्यय माहात्म्य भी बताया.
एवम् एतद् यथात्थ त्वम् आत्मानं परमेश्वर ।
द्रष्टुम् इच्छामि ते रूपम् ऐश्वरं पुरुषोत्तम ॥३॥
आप ने अपने को जैसा बताया, परमेश्वर, वैसे ही आप हैँ. पुरुषोत्तम, अब मैँ आप का वैसा ही ईश्वरी रूप देखना चाहता हूँ.
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुम् इति प्रभो ।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानम् अव्ययम् ॥४॥
प्रभु, अगर आप मानते हैँ कि मैँ आप का दिव्य रूप देख सकता हूँ, तो, योगेश्वर, मुझे अपना वह अव्यय रूप दिखाइए.
श्रीभगवान् उवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
नाना-विधानि दिव्यानि नाना-वर्णाकृतीनि च ॥५॥
श्री भगवान ने कहा
पार्थ, देख… मेरे सैकड़ोँ रूप देख. हज़ारोँ रूप देख. अनेक तरह के, अनेक रंगोँ के, अनेक आकार के, मेरे दिव्य रूप देख.
पश्याऽऽदित्यान् वसून् रुद्रान् अश्विनौ मरुतस् तथा ।
बहून्य् अदृष्ट-पूर्वाणि पश्याऽऽश्चर्याणि भारत ॥६॥
देख, आदित्योँ को देख… वसुओँ को देख… रुद्रोँ को देख… दोनोँ अश्विनी कुमारोँ को देख… मरुतोँ को देख… जो पहले नहीँ देखे गए हैँ, भरत वंशी अर्जुन, तू ऐसे अनेक आश्चर्य देख…
इहैकस्थं जगत् कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच् चान्यद् द्रष्टुम् इच्छसि ॥७॥
यहाँ एक साथ संपूर्ण जगत और उस के सारे चर अचर पदार्थ और प्राणी तू आज देख. गुडाकेश, और भी जो कुछ तू देखना चाहता है, वह सब मेरी देह मेँ तू देख…
न तु मां शक्यसे द्रष्टुम् अनेनैव स्व-चक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगम् ऐश्वरम् ॥८॥
अपनी इन आँखोँ से तू मुझे नहीँ देख सकता. मैँ तुझे दिव्य आँखेँ देता हूँ. इन से तू मेरे योग को देख, मेरे ईश्वरत्व को देख.
सञ्जयोवाच
एवम् उक्त्वा ततो राजन् महा-योगेश्वरो हरिः ।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपम् ऐश्वरम् ॥९॥
संजय ने कहा
राजा धृतराष्ट्र, महा योगेश्वर हरि ने यह कहा और पार्थ को अपना परम ईश्वरी रूप दिखाया.
अनेक-वक्त्र-नयनम् अनेकाऽऽद्भुत-दर्शनम् ।
अनेक-दिव्याभरणं दिव्याऽऽनेकोद्यताऽऽयुधम् ॥१०॥
अनेक मुँह थे… अनेक आँखेँ थीँ… अनेक विचित्र रूप थे… अनेक दिव्य वस्त्र आभूषण थे… अनेक दिव्य शस्त्रास्त्र उठे थे.
दिव्य-माल्याम्बर-धरं दिव्य-गन्धानुलेपनम् ।
सर्वाश्चर्य-मयं देवम्ं अनन्तं विश्वतो-मुखम् ॥११॥
दिव्य माला थी. दिव्य वस्त्र थे. दिव्य गंध का लेप था. वे सब प्रकार के आश्चर्योँ से भरे थे. भगवान अनंत थे. पूरा विश्व उन का मुख था.
दिवि सूर्य-सहस्रस्य भवेद् युगपद् उत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद् भासस् तस्य महात्मनः ॥१२॥
आकाश मेँ एक साथ हज़ार सूरज निकल आएँ तो उन का जो प्रकाश होगा वह भी उस महात्मा की दमक की बराबरी शायद ही कर सके.
तत्रैकस्थं जगत् कृत्स्नं प्रविभक्तम् अनेकधा ।
अपश्यद् देव-देवस्य शरीरे पाण्डवस् तदा ॥१३॥
पांडुपुत्र ने देखा कि सारा संसार अनेक प्रकार से बँट गया है. लेकिन उस ने यह भी देखा की संसार के वे सब भाग देवताओँ के देव कृष्ण मेँ एक साथ उपस्थित हैँ.
ततः स विस्मयाऽऽविष्टो हृष्ट-रोमा धनञ्जयः ।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिर् अभाषत ॥१४॥
यह देख कर धनंजय विस्मय से भर उठा. उस के रोँगटे खड़े हो गए. सिर झुका कर उस ने हाथ जोड़ दिए. उस ने भगवान को प्रणाम किया. वह बोला –
अर्जुनोवाच
पश्यामि देवांस् तव देव देहे
सर्वांस् तथा भूत-विशेष-सङ्घान् ।
ब्रह्माणम् ईशं कमलासनस्थम्
ऋषींश् च सर्वान् उरगांश् च दिव्यमान् ॥१५ ॥*
अर्जुन ने कहा
देव, मुझे आप के शरीर मेँ सारे देवता दिखाई दे रहे हैँ. भौतिक प्राणियोँ के समूह मुझे आप मेँ दिखाई देते हैँ. ईश्वर ब्रह्मा कमल के आसन पर बैठे हैँ. सारे ऋषि गण और दिव्य सर्प मुझे दिखाई दे रहे हैँ.
अनेक-बाहूदर-वक्त्र-नेत्रं
पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्त-रूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस् तवादिं
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥१६॥**
मुझे आप की अनेक बाँहेँ दिखाई देती हैँ. अनेक पेट, मुँह और नेत्र दिखाई देते हैँ. हर ओर मुझे आप का अनंत रूप दिखाई दे रहा है. विश्व के स्वामी, विश्व के रूप, मुझे न तो आप का अंत दिखाई देता है, न मध्य, न आरंभ.
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च
तेजो-राशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्
दीप्तानलार्क-द्युतिम् अप्रमेयम् ॥१७॥
आप ने मुकुट लगा रखा है. हाथ मेँ गदा और चक्र हैँ. तेज के पुंज से आप हर ओर जगमगा रहे हैँ. आप पर नज़र ठहरना बड़ा कठिन है. फिर भी मैँ आप को देख पा रहा हूँ. चारोँ ओर से आप मेँ अग्नि और सूर्य जैसी दमक है. आप अप्रमेय हैँ – आप को जानना समझना बुद्धि से परे है.
त्वम् अक्षरं परमं वेदितव्यं
त्वम् अस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वम् अव्ययः शाश्वत-धर्म-गोप्ता
सनातनस् त्वं पुरुषो मतो मे ॥१८॥
आप ही जानने लायक़ परम अक्षर हैँ. आप इस जगत के परम शरण स्थल हैँ. आप अव्यय हैँ. शाश्वत धर्म के रक्षक आप हैँ. मेरे मत मेँ आप सनातन पुरुष हैँ.
अनादि-मध्यान्तम् अनन्त-वीर्यम्
अनन्त-बाहुं शशि-सूर्य-नेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्त-हुताश-वक्त्रं
स्व-तेजसा विश्वम् इदं तपन्तम् ॥१९॥
आप का न आरंभ है, न मध्य, न अंत है. आप की सामर्थ्य अनंत है. आप की बाँहेँ अनंत हैँ. चाँद और सूरज आप की आँखेँ हैँ. मैँ देख रहा हूँ कि आप का मुख मंडल अग्नि की तरह धधक रहा है. अपने तेज से आप पूरे विश्व को तपा रहे हैँ.
द्यावा-पृथिव्योर् इदम् अन्तरं हि
व्याप्तं त्वयैकेन दिशश् च सर्वाः ।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपम् उग्रं तवेदं
लोक-त्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥२०॥
यह स्वर्ग, यह पृथिवी, इन दोनोँ के बीच का फ़ासला, और ये सारी दिशाएँ – ये सब अकेले आप से भरी हैँ. आप का रूप अद्भुत और उग्र है. इसे देख कर, महात्मा, ये तीनोँ लोक घबरा रहे हैँ.
अमी हि त्वां सुर-सङ्घा विशन्ति
केचिद् भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
स्वस्तीत्य् उक्त्वा महर्षि-सिद्ध-सङ्घाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥२१॥
सब देवताओँ के समूह आप मेँ प्रवेश कर रहे हैँ. उन मेँ से कई डर से काँप रहे हैँ. उन्होँ ने हाथ जोड़ रखे हैँ. वे आप के गुणोँ का बखान कर रहे हैँ. वे कह रहे हैँ – ‘कल्याण हो!’ अनेक उत्तम प्रार्थनाओँ द्वारा वे आप की पूजा कर रहे हैँ.
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या
विश्वेऽश्विनौ मरुतश् चोष्मपाश् च ।
गन्धर्व-यक्षासुर-सिद्ध-सङ्घा
वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश् चैव सर्वे ॥२२॥
ग्यारहोँ रुद्र, बारहोँ आदित्य, आठोँ वसु, सारे के सारे साध्य गण, नौओँ विश्वेदेव और दोनोँ अश्विनी कुमार, उनचासोँ मरुत, सारे पितर, सब गंधर्व, यक्ष, असुर और सिद्धोँ के समुदाय – सब के सब विस्मय से आप को देख रहे हैँ.
रूपं महत् ते बहु-वक्त्र-नेत्रं
महाबाहो बहु-बाहूरु-पादम् ।
बहूदरं बहु-दंष्ट्रा-करालं
दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास् तथाऽहम् ॥२३॥
आप के इस महान रूप को देख कर, आप के बहुत सारे मुँह और बहुत सी आँखोँ को देख कर, महाबाहु, आप के बहुत से हाथोँ, जंघास्थलोँ और पैरोँ को देख कर, आप के बहुत से पेट देख कर, आप की अनेक विकराल दाढ़ोँ के देख कर… सब लोग डर रहे हैँ. मेरा भी वही हाल है.
नभःस्पृशं दीप्तम् अनेक-वर्णं
व्यात्ताननं दीप्त-विशाल-नेत्रम् ।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथिताऽऽन्तरात्मा
धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥२४॥
आप का रूप आकाश तक दमक रहा है… आप के अनेक रंग हैँ. मुँह फैला हुआ है. आप के विशाल नयन चमक रहे हैँ. आप का यह रूप देख कर मैँ अंतरात्मा से घबरा गया हूँ. विष्णु, मेरे मन को न धैर्य मिल रहा है, न शांति.
दंष्ट्रा-करालानि च ते मुखानि
दृष्ट्वैव कालानल-सन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म
प्रसीद देवेश जगन्-निवास ॥२५॥
आप की बड़ी बड़ी दाढ़ेँ दिखाई दे रही हैँ. आप के सब मुँह ऐसे धधक रहे हैँ, जैसे प्रलय की अग्नि भड़क उठी हो. यह सब देख कर मेरा दिशा ज्ञान समाप्त हो गया है. सुख चैन जाता रहा है. देवताओँ के ईश्वर और जगत के निवासस्थान परमेश्वर, आप प्रसन्न होँ, शांत होँ.
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः
सर्वे सहैवावनि-पाल-सङ्घैः ।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस् तथासौ
सहास्मदीयैर् अपि योध-मुख्यैः ॥२६॥
यहाँ जो भी हैँ, वे सब – धृतराष्ट्र के पुत्र, राजाओँ के समुदाय, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, सूतपुत्र कर्ण, और इन के साथ साथ हमारे पक्ष की सभी मुख्य योद्धा…
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति
दंष्ट्रा-करालानि भयानकानि ।
केचिद् विलग्नाः दशनान्तरेषु
सन्दृश्यन्ते चूर्णितैर् उत्तमाङ्गैः ॥२७॥
… वे सब आप के मुखोँ मेँ तेजी से प्रवेश कर रहे हैँ. वे सब आप की भयानक दाढ़ोँ के बीच जा रहे हैँ. कई आप के दाँतोँ के बीच के गड्ढोँ मेँ अटके दिखाई दे रहे हैँ. उन के सिर चकनाचूर हो गए हैँ.
यथा नदीनां बहवोऽम्बु-वेगाः
समुद्रम् एवाभिमुखा द्रवन्ति ।
तथा तवामी नर-लोक-वीरा
विशन्ति वक्त्राण्य् अभिविज्वलन्ति ॥२८॥
जैसे नदियोँ के जलोँ का प्रवाह समुद्र की ओर होता है, वैसे ही वीर पुरुषोँ के दल आप के दहकते मुखोँ मेँ घुसे जा रहे हैँ.
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा
विशन्ति नाशाय समृद्ध-वेगाः ।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्
तवापि वक्त्राणि समृद्ध-वेगाः ॥२९॥
मरने के लिए परवाने जलते दीपक की ओर टूट पड़ते हैँ. वैसे ही अपने नाश के लिए लोग बड़ी तेज़ी से आप के मुखोँ की ओर बढ़ रहे हैँ.
लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्
लोकान् समग्रान् वदनैर् ज्वलद्भिः ।
तेजोभिर् आपूर्य जगत् समग्रं
भासस् तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥३०॥
आप हर ओर से अपने अग्नि मुखोँ से सब को लील रहे हैँ. विष्णु, आप के उग्र तेज ने सारे जगत को भर दिया है. आप के उग्र प्रकाश के यह जगत तप रहा है.
आख्याहि मे को भवान् उग्र-रूपो
नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
विज्ञातुं इच्छामि भवन्तम् आद्यं
न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥३१॥
बताइए, इतने उग्र रूप वाले आप कौन हैँ? आप को नमस्कार! आप देवताओँ मेँ श्रेष्ठ हैँ. आप प्रसन्न होँ! आप संसार के आदि पुरुष हैँ. मैँ आप को सांगोपांग जानना चाहता हूँ, क्योँ कि आप की प्रवृत्ति का, आप के आचरण का मुझे पता नहीँ है.
श्रीभगवान् उवाच
कालोऽस्मि लोक-क्षय-कृत्-प्रवृद्धो
लोकान् समाहर्तुम् इह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥३२॥
श्री भगवान ने कहा
मैँ काल हूँ. लोकोँ का नाश कर के मैँ बढ़ा हूँ. यहाँ इन लोकोँ का नाश करने मेँ लगा हूँ. तेरे बिना भी ये सब बचने वाले नहीँ हैँ. आमने सामने खड़ी इन सेनाओँ मेँ जितने भी योद्धा हैँ, वे सब नष्ट हो कर रहेँगे.
तस्मात् त्वम् उत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहताः पूर्वम् एव
निमित्त-मात्रं भव सव्यसाचिन् ॥३३॥
इस लिए तू उठ! यश कमा! शत्रुओँ को जीत! समृद्धिशाली राज्य भोग! ये सब मैँ ने पहले ही मार डाले हैँ. तुझे तो बस निमित्त बनना है.
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं तथान्यान् अपि यौध-वीरान् ।
मया हतांस् त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥३४॥
द्रोण और भीष्म और जयद्रथ और कर्ण और अन्य वीर लड़ाके मैँ पहले ही मार चुका हूँ. तू इन्हेँ मार डाल! दुःखी मत हो! युद्ध कर! रण मेँ तू शत्रुओँ को जीतेगा.
सञ्जयोवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य
कृताञ्जलिर् वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं
सगद्गदं भीत-भीतः प्रणम्य ॥३५॥
संजय ने कहा
केशव के वचनोँ को सुन मुकुटधारी अर्जुन ने हाथ जोड़ दिए. वह काँप रहा था. हाथ जोड़ कर उस ने कृष्ण को फिर नमस्कार किया. वह भय से काँप रहा था. प्रणाम कर के गद्गद वाणी मेँ उस ने कहा –
अर्जुनोवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या
जगत् प्रहृष्यत्य् अनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्ध-सङ्घाः ॥३६॥
अर्जुन ने कहा
ठीक ही तो है कि आप के यश से यह सारा जगत रोमांचित हो रहा है. सब आप पर अनुरक्त हैँ. आप से डर कर राक्षस इधर उधर भाग रहे हैँ. सिद्धोँ के समुदाय आप के सामने झुक रहे हैँ.
कस्माच् च ते न नमेरन् महात्मन्
गरीयसे ब्रह्मणोऽप्य् आदि-कर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्-निवास
त्वम् अक्षरं सद् असत् तत्परं यत् ॥३७॥
ओ महात्मा, वे आप को नमस्कार क्योँ न करेँ? आप ब्रह्मा से भी बड़े हैँ. आप सृष्टि के मूल जन्मदाता हैँ. आप का अंत नहीँ है. आप देवताओँ के ईश्वर हैँ. आप मेँ जगत निवास करता है. आप अक्षर हैँ. सद् और असद् – होने और न होने – से जो परे है, वह आप हैँ.
त्वम् आदि-देवः पुरुषः पुराणस्
त्वम् अस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्ताऽसि वेद्यं च परं च धाम
त्वया ततं विश्वम् अनन्त-रूप ॥३८॥
आप सब देवताओँ से पहले देवता हैँ. आप पुराण पुरुष हैँ. इस संसार का अंतिम शरणस्थल आप हैँ. जानने वाले आप हैँ. जिसे जानना है, वह भी आप हैँ. आप परम धाम हैँ. हे अनंतरूप, यह सारा विश्व आप से भरा है.
वायुर् यमोऽग्निर् वरुणः शशाङ्कः
प्रजापतिस् त्वं प्रपितामहश् च ।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्र-कृत्वः
पुनश् च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥३९॥
वायु देवता आप हैँ. यमराज आप हैँ. अग्नि देवता आप हैँ. वरुण देव आप हैँ. चंद्रमा आप हैँ. सब लोगोँ को जन्म देने वाले प्रजापति आप हैँ. सब के प्रपितामह भी आप हैँ. नमस्कार है, आप को हज़ारोँ बार नमस्कार है! आप को बार बार, फिर फिर, नमस्कार है, नमस्कार है!
नमः पुरस्ताद् अथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्त-वीर्यामित-विक्रमस् त्वं
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥४०॥
आप को सामने से नमस्कार है. आप को पीछे से नमस्कार है. सर्वस्व, आप को सब ओर से नमस्कार है. आप की शक्ति अनंत है. आप का पराक्रम असीम है. आप ने संसार को सब प्रकार से सारे मेँ व्याप रखा है. इस लिए आप सर्व हैँ, सर्वस्व हैँ.
सखेति मत्वा प्रसभं यद् उक्तं
हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।
अजानता महिमानं तवेदं
मया प्रमादात् प्रणयेन वापि ॥४१॥
मैँ आप को सखा मानता था. संगी साथी समझता था. हठपूर्वक मैँ आप को ‘हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा’ कह कर पुकारता था. मुझे आप की इस महिमा का पता नहीँ था. मैँ ने जो कुछ किया, जो कहा, वह अज्ञान से किया या आप के प्रति प्रेम से किया.
यच् चावहासार्थम् असत्कृतोऽसि
विहार-शय्यासन-भोजनेषु ।
एकोऽथ्वाप्य् अच्युत तत्समक्षं
तत् क्षामये त्वाम् अहम् अप्रमेयम् ॥४२॥
हँसी ठट्ठे मेँ, खेल कूद आनंद विहार मेँ, सेज पर, आसन पर, भोजन काल मेँ, अकेले मेँ, संगी साथियोँ के बीच मेँ, अच्युत, मैँ ने आप का अनादर किया है. मैँ आप की क्षमा का पात्र हूँ. आप अप्रमेय है. आप समझ से परे हैँ. इस लिए मैँ आप को जान नहीँ पाया था.
पिताऽसि लोकस्य चराचरस्य
त्वम् अस्य पूज्यश् च गुरुर् गरीयान् ।
न त्वत् समोऽस्त्य् अभ्यधिकः कुतोऽन्यो
लोक-त्रयेऽप्य् अप्रतिम-प्रभाव ॥४३॥
यह जो चराचर जगत है, आप इस के पिता हैँ. आप इस के पूज्य हैँ. आप बड़ोँ के भी बड़े हैँ. जब कोई आप के बराबर भी नहीँ आ सकता, तो आप से बढ़ कर होने का तो सवाल ही कहाँ है? तीनोँ लोकोँ मेँ आप का प्रभाव अनुपम है.
तस्मात् प्रणम्य प्रणिधाय कायं
प्रसादये त्वाम् अहम् ईशम् ईड्यम् ।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः
प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥४४॥
इस लिए मैँ आप को प्रणाम करता हूँ. मैँ अपना शरीर आप के चरणोँ मेँ रखता हूँ. आप स्तुति पूजा करने योग्य हैँ. आप ईश्वर हैँ. मैँ आप से प्रार्थना करता हूँ. आप मुझ पर प्रसन्न होँ. देव, जैसे पिता पुत्र के, सखा सखा के और प्रेमी प्रेयसि के अपराध सह लेता है, वैसे ही आप मेरे अपराध सह लेँ.
अदृष्ट-पूर्वम् हृषितोऽस्मि दृष्टवा
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देव रूपं
प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥४५॥
आप के जिस रूप को पहले नहीँ देखा गया था, वह अब मैँ ने देख लिया. इस से मैँ रोमांचित हो रहा हूँ. डर से मेरा मन व्याकुल हो रहा है. इस लिए मुझे आप अपना देव रूप दिखाइए. देवताओँ के स्वामी, जगत को धारण करने वाले कृष्ण! आप प्रसन्न होँ, शांत होँ.
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तम्
इच्छामि त्वां द्रष्टुम् अहं तथैव ।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन
सहस्र-बाहो भव विश्व-मूर्ते ॥४६॥
सिर पर मुकुट हो. हाथोँ मेँ गदा और चक्र हो. सहस्रबाहु! विश्वमूर्ति! मैँ आप को वैसे ही चतुर्भुज रूप मेँ देखना चाहता हूँ.
श्रीभगवान् उवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं
रूपं परं दर्शितम् आत्म-योगात् ।
तेजोमयं विश्वम् अनन्तम् आद्यं
यन् मे त्वदन्येन न दृष्ट-पूर्वम् ॥४७॥
श्री भगवान ने कहा
अर्जुन, मैँ तुझ पर प्रसन्न हूँ तभी तो मैँ ने अपनी योग शक्ति से तुझे अपना परम रूप दिखाया. मेरे इस रूप मेँ तेज है, और पूरा विश्व है. मेरे इस रूप मेँ मेरी अंतहीनता और आदिमता के दर्शन होते हैँ. तुझ से पहले मेरे इस रूप को किसी और ने नहीँ देखा है.
न वेद-यज्ञाऽऽध्ययनैर् न दानैर्
न च क्रियाभिर् न तपाभिर् उग्रैः ।
एवं-रूपः शक्य अहं नृलोके
द्रष्टुं त्वदन्येन कुरु-प्रवीर ॥४८॥
कोई कितना ही वेदोँ का पठन करे, कितने ही यज्ञ करे, कितना ही अध्ययन करे, दान करे, जतन करे, बड़े भारी तप करे, मेरा जो यह रूप है, कुरुश्रेष्ठ अर्जुन, इस मनुष्य लोक मेँ तेरे अलावा कोई और नहीँ देख पाया.
मा ते व्यथा मा च विमूढ-भावो
दृष्ट्वा रूपं घोरम् ईदृङ् ममेदम् ।
व्यपेत-भीः प्रीत-मनाः पुनस् त्वं
तद् एव मे रूपम् इदं प्रपश्य ॥४९॥
मेरे इस रूप को देख कर तू न तो दुःखी हो, न घबरा. तेरा भय दूर करने के लिए, और तेरे मन की प्रीति की ख़ातिर, देख, मैँ तुझे फिर अपना वह रूप दिखाता हूँ जो तू चाहता है.
सञ्जयोवाच
इत्य् अर्जुनं वासुदेवस् तथोक्त्वा
स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतम् एनम्
भूत्वा पुनः सौम्य-वपुर् महात्मा ॥५०॥
संजय ने कहा
वासुदेव कृष्ण ने अर्जुन से यह कहा, फिर अपना वांछित रूप उसे दिखाया. महात्मा कृष्ण का यह सौम्य रूप देख कर अर्जुन का डर दूर हो गया और उस के मन को धीरज बँधा.
अर्जुनोवाच
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन ।
इदानीम् अस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥५१॥
अर्जुन ने कहा
जनार्दन, आप का यह शांत सौम्य मनुष्य रूप देख कर मेरी चेतना लौट आई है. अब मैँ फिर से होश मेँ हूँ और अपने को अपने जैसा अनुभव कर रहा हूँ.
श्रीभगवान् उवाच
सुदुर्दशम् इदं रूपं दृष्टवानसि यन् मम ।
देवा अप्य् अस्य रूपस्य नित्यं दर्शन-काङ्क्षिणः ॥५२॥
श्री भगवान ने कहा
तू ने मेरा जो रूप देखा उसे देखना दुर्लभ है. देव गण भी इस रूप को देखने को लालायित रहते हैँ.
नाहं वेदैर् न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवं-विधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥५३॥
वेदपाठ, तप, दान और यज्ञ कर के भी मेरे इस रूप को नहीँ देखा जा सकता, जो तू ने अभी देखा.
भक्त्या त्वनन्या शक्य अहम् एवं-विधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥५४॥
लेकिन, अर्जुन, अनन्य भक्ति के द्वारा मुझे इस प्रकार तत्त्व से जाना और देखा जा सकता है. परंतप, अनन्य भक्ति के द्वारा मुझ मेँ प्रवेश भी किया जा सकता है.
मत्कर्मकृन् मत्परमो मद्भक्तः सङ्ग-वर्जितः ।
निर्वैरः सर्व-भूतेषु यः स माम् एति पाण्डव ॥५५॥
पांडव, वे लोग मेरे पास आ सकते हैँ जो अपने सारे कर्म मुझे अर्पित कर देते हैँ. वे मेरी ओर उन्मुख रहते हैँ और मेरे भक्त होते हैँ. उन मेँ आसक्ति नहीँ होती. जिन मेँ संसार के सभी भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ के प्रति शत्रुहीनता की भावना होती है, वे लोग मुझे पा सकते हैँ.
इति श्रीमद्-भगवद-गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्म-विद्यायां योग-शास्त्रे श्री-कृष्णार्जुन-संवादे विश्व-रूप-दर्शन-योगो नाम एकादशोऽध्यायः
यह था श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद् ब्रह्म विद्या योग शास्त्र श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मेँ विश्व रूप दर्शन योग नाम का ग्यारहवाँ अध्याय
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