श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद
ब्रह्म विद्या योग शास्त्र
अध्याय 10
☀ अब गीता ☀
पढ़ना आसान
समझना आसान
अनुवादक
अरविंद कुमार
इंटरनैट पर प्रकाशक
अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.
कालिंदी कालोनी
नई दिल्ली 110065
दशमोऽध्यायः
विभूति योग
श्रीभगवान् उवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः ।
यत् तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हित-काम्यया ॥१॥
श्री भगवान ने कहा
महाबाहु अर्जुन, मेरा परम वचन फिर से सुन. तू मेरा प्रेमी है. तेरे हित की कामना से मैँ यह कहूँगा.
न मे विदुः सुर-गणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहम् आदिर् हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥२॥
मेरे आरंभ को न देवता जानते हैँ, न महर्षि. देवताओँ और महर्षियोँ का आरंभ, उन का मूल, हर प्रकार से मैँ हूँ.
यो माम् अजम् अनादिं च वेत्ति लोक-महेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्व-पापैः प्रमुच्यते ॥३॥
मैँ अजन्मा हूँ – मेरा जन्म नहीँ हुआ है. मैँ अनादि हूँ – मेरा आरंभ नहीँ है. मैँ लोकोँ का महेश्वर हूँ, सर्वोच्च ईश्वर हूँ. जो यह जानता है, मर्त्य प्राणियोँ मेँ वह भ्रमहीन है. वह सब पापोँ से मुक्त हो जाएगा.
बुद्धिर् ज्ञानम् असम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयम् एव च ॥४॥
बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, इंद्रिय का संयम, मन का संयम, सुख, दुःख, होना, न होना, भय, निर्भयता…
अहिंसा समता तुष्टिस् तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्-विधाः ॥५॥
… अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश, अपयश – ये सब जो प्राणियोँ के अलग अलग भाव हैँ, ये सब मुझ से ही होते हैँ.
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस् तथा ।
मद्-भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजा ॥६॥
– वे सब मुझ से हुए थे. वे मेरे मानस पुत्र हैँ – मैँ ने उन्हेँ अपने मन से, अपनी इच्छा शक्ति से, जन्म दिया था. उन्हीँ की यह प्रजा इस लोक मेँ फैली पड़ी है
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकल्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥७॥
मेरी इस विभूति को और मेरे इस योग को जो तत्त्व से जानता है, वह अपने अभ्यास मेँ काँपता नहीँ. वह योग करता है, और मुझ से जुड़ जाता है. इस मेँ कोई संशय नहीँ है.
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भाव-समन्विताः ॥८॥
मैँ सब का जन्मदाता हूँ. मुझ से यह सब चलता है. यह मान कर बुद्धिमान लोग मुझे भजते हैँ. उन के भाव, उन के विचार समन्वित हैँ, सुसंगत हैँ.
मच्-चित्ता मद्-गत-प्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश् च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥९॥
अपने चित्त और प्राण मुझे अर्पित कर देने वाले लोग एक दूसरे से मेरी बातेँ करते हैँ. वे एक दूसरे को मेरे बारे मेँ बताते हैँ. उन्हेँ मेरी चर्चा मेँ रस मिलता है और मेरी ही बातोँ से संतोष होता है.
तेषां सतत-युक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धि-योगं तं येन माम् उपयान्ति ते ॥१०॥
वे हमेशा मुझ से जुड़े रहते हैँ. वे प्रीतिपूर्वक मेरा भजन करते हैँ. उन्हेँ मैँ बुद्धि योग – ज्ञान योग – देता हूँ. इस से वे मेरे पास आते हैँ.
तेषाम् एवानुकम्पार्थम् अहम् अज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्य् आत्म-भावस्थो ज्ञान-दीपेन भास्वता ॥११॥
उन पर कृपा करने के लिए मैँ उन के भीतर जो अज्ञान से उत्पन्न अंधकार है, उसे चमकते ज्ञान के दीपक से नष्ट कर डालता हूँ.
अर्जुनोवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यम् आदि-देवम् अजं विभुम् ॥१२॥
अर्जुन ने कहा
आप परम ब्रह्म, परम धाम, परम लक्ष्य, परम पावनकर्ता हैँ. आप शाश्वत दिव्य पुरुष और आदि देव हैँ. आप अजन्मे हैँ. आप सर्वशक्तिमान शासक हैँ.
आहुस् त्वाम् ऋषयः सर्वे देवर्षिर् नारदस् तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥१३॥
सब ऋषि आप को ऐसा ही बताते हैँ. देवोँ के ऋषि नारद ने, असित ने, देवल ने और व्यास ने यही बताया है. और स्वयं आप भी मुझे यह बता रहे हैँ.
सर्वम् एतद् ऋतं मन्ये यन् मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुर् देवा न दानवाः ॥१४॥
यह सब जो आप ने मुझ से कहा, केशव, उसे मैँ सच मानता हूँ. भगवान, आप का रहस्य न देवता जानते हैँ, न दानव.
स्वयम् एवात्मनाऽऽत्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूत-भावन भूतेश देव-देव जगत्पते ॥१५॥
आप को जानने वाले स्वयं आप हैँ. पुरुषोत्तम, आप भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ के जन्मदाता हैँ. आप उन के ईश्वर और देवताओँ के देवता हैँ. आप जगत के स्वामी हैँ.
वक्तुम् अर्हस्य् अशेषेण दिव्या ह्यात्म-विभूतयः ।
याभिर् विभूतिभिर् लोकान् इमांस् त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥१६॥
अपनी दिव्य विभूतियोँ के बारे मेँ केवल आप ही इस प्रकार बता सकते हैँ कि बताने को कुछ शेष न रहे. उन तमाम विभूतियोँ के द्वारा आप इन लोकोँ मेँ व्याप्त हो कर बैठे हैँ.
कथं विद्याम् अहं योगिंस् त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन् मया ॥१७॥
सदा आप का चिंतन करता हुआ मैँ आप योगी को कैसे जानूँ? भगवान्, किन किन भावोँ से मैँ आप का चिंतन ध्यान करूँ?
विस्तरेणाऽऽत्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर् हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥१८॥
जनार्दन, अपना योग और अपनी विभूति मुझे फिर से और विस्तारपूर्वक बताइए. आप के अमृत वचनोँ को सुन कर मेरी तृप्ति नहीँ होती.
श्रीभगवान् उवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्म-विभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्य् अन्तो विस्तरस्य मे ॥१९॥
श्री भगवान ने कहा
हाँ! अपनी प्रधान विभूतियाँ अब मैँ तुझे बताता हूँ. कुरुश्रेष्ठ अर्जुन, विस्तार से कहने लगूँ तो उन का अंत ही न हो.
अहम् आत्मा गुडाकेश सर्व-भूताशय-स्थितः ।
अहम् आदिश् च मध्यं च भूतानाम् अन्त एव च ॥२०॥
गुडाकेश, सब भूतोँ के भीतर जो स्थित है, वह आत्मा, उन का वह निजत्व, वह अपनापन, मैँ ही हूँ. सब भूतोँ का आरंभ, मध्य और अंत भी मैँ हूँ.
आदित्यानाम् अहं विष्णुर् ज्योतिषां रविर् अंशुमान् ।
मरीचिर् मरुताम् अस्मि नक्षत्राणाम् अहं शशी ॥२१॥
अदिति के बारह पुत्रोँ – आदित्योँ – मेँ मैँ विष्णु हूँ. प्रकाशवानोँ मेँ मैँ किरणोँ वाला सूर्य हूँ. मरुतोँ मेँ मैँ मरीचि हूँ. नक्षत्रोँ के बीच मैँ चंद्रमा हूँ.
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानाम् अस्मि वासवः ।
इद्रियाणां मनश् चास्मि भूतानाम् अस्मि चेतना ॥२२॥
वेदोँ मेँ मैँ साम वेद हूँ. देवताओँ मेँ मैँ इंद्र हूँ. इंद्रियोँ मेँ मैँ मन हूँ. प्राणियोँ मेँ मैँ चेतना हूँ.
रुद्राणां शङ्करश् चास्मि वित्तेशो यक्ष-रक्षसाम् ।
वसूनां पावकश् चास्मि मेरुः शिखरिणाम् अहम् ॥२३॥
रुद्रोँ मेँ मैँ शंकर हूँ. यक्षोँ और राक्षसोँ मेँ मैँ धनपति कुबेर हूँ. वसुओँ मेँ मैँ पावन कर्ता अग्नि हूँ. पर्वतोँ मेँ मैँ मेरु हूँ.
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनाम् अहं स्कन्दः सरसाम् अस्मि सागरः ॥२४॥
पार्थ, पुरोहितोँ मेँ तू मुझे देवताओँ का पुरोहित बृहस्पति समझ. अर्जुन, सेनापतियोँ मेँ मैँ देवताओँ का सेनापति स्कंद हूँ. जलाशयोँ मेँ मैँ समुद्र हूँ.
महर्षीणां भृगुर् अहं गिराम् अस्म्य् एकम् अक्षरम् ।
यज्ञानां जप-यज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥२५॥
महर्षियोँ मेँ मैँ भृगु हूँ. वाणी मेँ मैँ एक अक्षर ॐ हूँ. यज्ञोँ मेँ मैँ जपयज्ञ हूँ. स्थिर रहने वालोँ मेँ मैँ हिमालय हूँ.
अश्वत्थः सर्व-वृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥२६॥
सब पेड़ोँ मेँ मैँ पीपल का पेड़ अश्वत्थ हूँ. देवर्षियोँ मेँ मैँ नारद हूँ. गंधर्वोँ मेँ मैँ चित्ररथ हूँ. सिद्ध मुनियोँ मेँ मैँ सांख्य का प्रवर्तक कपिल मुनि हूँ.
उच्चैःश्रवसम् अश्वानां विद्धि माम् अमृतोद्भवम् ।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥२७॥
घोड़ोँ मेँ तू मुझे उच्चैःश्रवा समझ, जो अमृत मंथन से उत्पन्न हुआ था और देवताओँ के राजा इंद्र का घोड़ा है. हाथियोँ मेँ मैँ ऐरावत हूँ, जो हाथियोँ का राजा है और इंद्र का हाथी है. मनुष्योँ मेँ मैँ राजा हूँ.
आयुधानाम् अहं वज्रं धेनूनाम् अस्मि कामधुक् ।
प्रजनश् चास्मि कन्दर्पः सर्पाणाम् अस्मि वासुकिः ॥२८॥
हथियारोँ मेँ मैँ इंद्र का वज्र हूँ. गायोँ मेँ मैँ कामधेनु हूँ. जन्मदाताओँ मेँ मैँ कंदर्प – कामदेव – हूँ. साँपोँ मेँ मैँ वासुकि हूँ.
अनन्तश् चास्मि नागानां वरुणो यादसाम् अहम् ।
पितृणाम् अर्यमा चास्मि यमः संयमताम् अहम् ॥२९॥
नागोँ मेँ मैँ अनंत नाग हूँ. जलचरोँ मेँ मैँ वरुण हूँ. पितरोँ मेँ मैँ पितृ प्रधान अर्यमा हूँ. बाँधने वालोँ मेँ मैँ मृत्यु का देवता यम हूँ.
प्रह्लादश् चास्मि दैत्यानां कालः कलयताम् अहम् ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश् च पक्षिणाम् ॥३०॥
दैत्योँ मेँ मैँ प्रह्लाद हूँ. गिनने वालोँ मेँ मैँ काल हूँ. पशुओँ मेँ सिंह और पक्षियोँ मेँ विनता का पुत्र गरुड़ हूँ.
पवनः पवताम् अस्मि रामः शस्त्रभृताम् अहम् ।
झषाणां मकरश् चास्मि स्रोतसाम् अस्मि जाह्नवी ॥३१ ।
पवित्र करने वालोँ मेँ मैँ पवन हूँ. शस्त्रधारियोँ मेँ मैँ राम हूँ. मछलियोँ मेँ मैँ मगरमच्छ हूँ. नदियोँ मेँ मैँ गंगा हूँ
सर्गाणाम् आदिर् अन्तश् च मध्यं चैवाहम् अर्जुन ।
अध्यात्म-विद्या विद्यानां वादः प्रवदताम् अहम् ॥३२॥
अर्जुन, सृष्टियोँ का आरंभ, अंत और मध्य मैँ हूँ. विद्याओँ मेँ श्रेष्ठ अध्यात्म विद्या मैँ हूँ. विवाद करने वालोँ का वाद – आरंभिक वक्तव्य, मूल स्थापना – मैँ हूँ.
अक्षराणाम् अकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च ।
अहम् एवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥३३॥
अक्षरोँ मेँ मैँ पहला अक्षर अकार हूँ. व्याकरण के समासोँ मेँ मैँ द्वंद्व समास हूँ, जिस मेँ शब्दोँ को समान महत्व मिलता है. कभी समाप्त न होने वाला काल मैँ ही हूँ. धाता – पालन कर्ता – मैँ ही हूँ. मैँ विश्वतोमुख हूँ – पूरा संसार मेरा मुख है.
मृत्युः सर्वहरश् चाहम् उद्भवश् च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर् वाक् च नारिणां स्मृतिर् मेधा धृतिः क्षमा ॥३४॥
सब का हरण करने वाली मृत्यु मैँ हूँ. जो भविष्य मेँ होँगे, उन सब के जन्म का कारण भी मैँ हूँ. स्त्रियोँ मेँ मैँ कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा नाम की सात देवियाँ हूँ.
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसाम् अहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहम् ऋतूनां कुसुमाकरः ॥३५॥
साम वेद की ऋचाओँ मेँ मैँ कल्याणप्रद बृहत्साम हूँ. छंदोँ मेँ मैँ गायत्री छंद हूँ. वर्ष के महीनोँ मेँ मैँ पवित्रतम मार्गशीर्ष हूँ – अगहन हूँ. मौसमोँ मेँ मैँ पुष्पोँ को जन्म देने वाला वसंत हूँ.
द्यूतं छलयताम् अस्मि तेजस् तेजस्विनाम् अहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववताम् अहम् ॥३६॥
छल कपट करने वालोँ का जुआ मैँ हूँ. तेजस्वियोँ का तेज मैँ हूँ. जीत मैँ हूँ. निश्चय मैँ हूँ. सात्त्विक जनोँ का सत्त्व मैँ हूँ.
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनाम् अप्य् अहं व्यासः कवीनाम् उशना कविः ॥३७॥
वृष्णि वंश मेँ मैँ वासुदेव कृष्ण हूँ. पांडु के पुत्रोँ मेँ मैँ अर्जुन हूँ. मुनियोँ मेँ मैँ वेद व्यास हूँ. और कवियोँ – मेधावियोँ, बुद्धिमानोँ – मेँ मैँ राक्षसोँ का गुरु शुक्राचार्य हूँ.
दण्डो दमयताम् अस्मि नीतिर् अस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवताम् अहम् ॥३८॥
अनुशासकोँ का मैँ शासन दंड हूँ. विजय चाहने वालोँ की नीति हूँ. रहस्योँ मेँ मौन हूँ – चुप्पी हूँ. ज्ञानवानोँ का ज्ञान मैँ हूँ.
यच् चापि सर्व-भूतानां बीजं तद् अहम् अर्जुन ।
न तद् अस्ति विना यत् स्यान् मया भूतं चराचरम् ॥३९॥
और, अर्जुन, जितने भी भूत पदार्थ और प्राणी हैँ, उन का बीज मैँ हूँ. चराचर पदार्थोँ और प्राणियोँ मेँ कुछ भी ऐसा नहीँ है जो मेरे बिना हो सकता है.
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर् अविस्तरो मया ॥४०॥
परंतप, मेरी दिव्य विभूतियोँ का अंत नहीँ है. अपनी विभूतियोँ का विस्तार मैँ ने तुझे संक्षेप मेँ बताया है.
यद् यद् विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमद् ऊर्जितम् एव वा ।
तत् तद् एवावगच्छ त्वं मम तेजोँऽश-सम्भवम् ॥४१॥
इस संसार मेँ जो कुछ भी विभूतिशाली है, श्रीसंपन्न है, ऊर्जा से परिपूर्ण है, तू यह समझ कि वह मेरे तेज के एक अंश से संभव हुआ है.
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहम् इदं कृत्स्नम् एकांशेन स्थितो जगत् ॥४२॥
अर्जुन, तू और बहुत जान कर क्या करेगा? इस सारे जगत को मैँ अपने एक अंश से धारण कर के स्थित हूँ.
इति श्रीमद्-भगवद्-गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्म-विद्यायां योग-शास्त्रे श्री-कृष्णार्जुन-संवादे विभूति-योगो नाम दशमोऽध्यायः
यह था श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद् ब्रह्म विद्या योग शास्त्र श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मेँ विभूति योग नाम का दसवाँ अध्याय
Comments