श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद
ब्रह्म विद्या योग शास्त्र
अध्याय 8
☀ अब गीता ☀
पढ़ना आसान
समझना आसान
अनुवादक
अरविंद कुमार
इंटरनैट पर प्रकाशक
अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.
कालिंदी कालोनी
नई दिल्ली
अष्टमोऽध्यायः
अक्षर ब्रह्म योग
अर्जुनोवाच
किं तद्ब्रह्म किम् अध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तम् अधिदैवं किम् उच्यते ॥१॥
अर्जुन ने कहा
पुरुषोत्तम, तद्ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत किसे कहते हैँ? अधिदैव किसे कहा जाता है?
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन् मधुसूदन ।
प्रयाण-काले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥२॥
इस शरीर मेँ अधियज्ञ क्या है? वह कैसे है? मधुसूदन, अंत समय, जाने की बेला मेँ, आत्मसयंमी लोग आप को कैसे जानते हैँ?
श्रीभगवान् उवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्मम् उच्यते ।
भूत-भावोद्भव-करो विसर्गः कर्म-सञ्ज्ञितः ॥३॥
श्री भगवान ने कहा
तद्ब्रह्म (परम ब्रह्म) ‘अक्षर’ है – उसे क्षरित नहीँ किया जा सकता, खंडोँ मेँ विभाजित नहीँ किया जा सकता, तोड़ा नहीँ जा सकता.
‘स्वभाव’ को अध्यात्म कहते हैँ. पृथक पृथक दिखाई देने वाली सत्ताओँ मेँ वह उन के अपनेपन के साथ मौजूद रहता है. वह उन के आपसी व्यवहार को, उन की क्रिया प्रतिक्रिया को, निर्धारित करता है. उन के अपनेपन की आत्मा का अधिपति अध्यात्म है.
कर्म विसर्ग है, रचनात्मक क्रिया है. वह सब भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ के अस्तित्व को उत्पन्न करती है, उन्हेँ उन की अलग अलग सत्ता प्रदान करती है, उन्हेँ जन्म देती है.
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश् चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहम् एवात्र देहे देहभृतां वर ॥४॥
भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ का अधिपति अधिभूत है. वह उन का क्षर भाव है. वह खंडोँ मेँ उन का बँटापन है. वह उन की परिवर्तनशीलता, उन की नश्वरता है.
उन के भीतर रहने वाला पुरुष अधिदेव है. वह उन्हेँ भरता है, पूरता है, उन मेँ समाया है, उन का चेतन तत्त्व है.
और, देहधारियोँ मेँ श्रेष्ठ अर्जुन, देह मेँ अधियज्ञ मैँ ही हूँ. देह के जितने यज्ञ हैँ, अनुष्ठान हैँ, उन का स्वामी मैँ ही हूँ.
अन्तकाले च माम् एव स्मरन् मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्य् अत्र संशयः ॥५॥
और प्रयाण काल मेँ, अंत काल मेँ, मरते समय, मुझे ही याद करता हुआ जो व्यक्ति शरीर का त्याग करता है, वह मेरे भाव मेँ, मेरे अस्तित्व मेँ मिल जाता है. इस मेँ कोई संशय – कोई संदेह – नहीँ है.
यं यं वाऽपि स्मरन् भावं त्यजत्य् अन्ते कलेवरम् ।
तं तम् एवैति कौन्तेय सदा तद्-भाव-भावितः ॥६॥
जिस जिस को याद करता हुआ कोई अंत काल मेँ अपनी शरीर छोड़ता है, कौंतेय, वह उस मेँ ही मिल जाता है. जो सदा जिस भाव मेँ रहता है, वह वैसा ही बन जाता है.
तस्मात् सर्वेषु कालेषु माम् अनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पित-मनो-बुद्धिर् माम् एवैष्यस्य् असंशयम् ॥७॥
इस लिए हमेशा मुझे ही याद रख और युद्ध कर. तू अपना मन और बुद्धि मुझे अर्पित कर दे. ऐसा कर के तू मुझे ही पाएगा. इस मेँ कोई संशय, कोई शक़, कोई शुबहा नहीँ है.
अभ्यास-योग-युक्तेन चेतसा नान्य-गामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थाऽऽनुचिन्तयन् ॥८॥
अभ्यास कर के योग से जुड़ जाने वाला, अपना चित्त किसी अन्य मेँ नहीँ लगाने वाला मनुष्य परम और दिव्य पुरुष तक पहुँचता है. पार्थ, वह मनुष्य निरंतर चिंतन करता है.
कविं पुराणं अनुशासितारम् अणोर् अणीयांसम् अनुस्मरेद् यः ।
सर्वस्य धातारम् अचिन्त्य-रूपम् आदित्य-वर्णं तमसः परस्तात् ॥९॥
परमात्मा कवि है – मेधावी है. वह पुराण है – पुरातन है. वह अनुशासक है, सब को अनुशासन मेँ बाँधता है. वह अणु से भी अणु है – सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है. वह सब को धारण करता है. उस के रूप को न सोचा जा सकता है, न समझा जा सकता है. उस का रंग, उस का वर्ण, अंधकार से परे सूर्य सा दमकता है. ऐसे परमात्मा का स्मरण करने वाला मनुष्य…
प्रयाण-काले मनसाऽऽचलेन भक्त्या युक्तो योग-बलेन चैव ।
भ्रुवोर् मध्ये प्राणम् आवेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषम् उपैति दिव्यम् ॥१०॥
… अंत काल मेँ, मृत्यु के समय, अचल मन से, स्थिर भाव से, भक्ति से जुड़ कर, प्राणोँ को भँवोँ के बीच मेँ अच्छी तरह जमा कर ‘उस’ परम और दिव्य पुरुष को पाता है.
यद् अक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद् यतयो वीतरागाः ।
यद् इच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत् ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥११॥
इस पद को वेदोँ के ज्ञानी जन अक्षर पद कहते हैँ. सुख भोगने की इच्छा का, राग का, त्याग कर के ही यति संन्यासी इस पद को पाते हैँ. इस की इच्छा करने वाले लोग ब्रह्मचर्या पर चलते हैँ. वह पद अब मैँ तुझे संक्षेप मेँ बताऊँगा.
सर्व-द्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्धन्य् आधायाऽऽत्मनः प्राणम् आस्थितो योगधारणाम् ॥१२॥
शरीर के सब द्वारोँ को संयम मेँ कर ले. मन को हृदय मेँ रोक ले. अपने प्राण को मूर्धन्य – मस्तक – मेँ जमा कर योग को धारे…
ओम् इत्य् एकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् माम् अनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम् ॥१३॥
… ब्रह्म के एक अक्षर वाले नाम ॐ का उच्चारण करे. इस प्रकार मुझे याद करे और देह को त्यागे. ऐसा करने वाले को परम गति मिलती है.
अनन्य-चेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्य-युक्तस्य योगिनः ॥१४॥
वह अपना ध्यान, अपनी चेतना, किसी अन्य मेँ नहीँ लगाता. वह हमेशा मेरा ही स्मरण करता है. इस प्रकार मुझ से सदा जुड़े रहने वाले योगी को, पार्थ, मैँ बड़ी आसानी से मिल जाता हूँ.
माम् उपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयम् अशाश्वत्म् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥१५॥
मैँ जब एक बार मिल जाता हूँ, तो पुनर्जन्म नहीँ होता. यह संसार दुःखोँ की खान है और नश्वर है. जिन महात्माओँ को परम सिद्धि मिल जाती है, वे लौट कर यहाँ नहीँ आते.
आब्रह्म-भुवनाल् लोकाः पुनराऽऽवर्तिनोऽर्जुन ।
माम् उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥१६॥
इस संसार से ब्रह्मलोक पहुँचने तक जितने लोक हैँ, उन्हेँ पा लेने पर, अर्जुन, बार बार जन्म लेना होता है. लेकिन, कौंतेय, मुझ तक पहुँच जाने के बाद फिर जन्म नहीँ होता.
सहस्र-युग-पर्यन्तम् अहर् यद् ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युग-सहस्रान्तां तेऽहोरात्र-विदो जनाः ॥१७॥
सत्युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग – ये चारोँ युग एक के बाद एक जब हज़ार बार बीत जाते हैँ, तब ब्रह्मा का एक दिन होता है. इतनी ही लंबी ब्रह्मा की एक रात होती है. जो लोग यह जानते हैँ, वे अहोरात्र को – दिन और रात को – काल की गणना को जानते हैँ.
अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्य् अहरागमे ।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाऽऽव्यक्त-सञ्ज्ञके ॥१८॥
ब्रह्मा के दिन का आरंभ होने पर अव्यक्त मेँ से सारे व्यक्त पदार्थ और जीव पैदा होते हैँ. और जब ब्रह्मा की रात शुरु होती है, तो सब के सब व्यक्त पदार्थ और जीव एक बार फिर अव्यक्त हो जाते हैँ – उन की प्रलय हो जाती है.
भूत-ग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्य् अहरागमे ॥१९॥
यह भूत समुदाय – होने वालोँ का यह समूह – बार बार होने के बाद ब्रह्मा की रात आते ही बेबस हो कर प्रलीन हो जाता है, अव्यक्त, अप्रकट, हो जाता है. पार्थ, ब्रह्मा के दिन का आरंभ होने पर यह फिर व्यक्त, प्रकट, हो जाता है.
परस् तस्मात् तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात् सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥२०॥
भूत समुदाय की इस अव्यक्तता से परे, इस अव्यक्त से परे, इस से आगे, एक अव्यक्त और है. वह अव्यक्त सनातन है, हमेशा रहता है. वह सब होने वालोँ मेँ, भूतोँ मेँ है. उन के नष्ट होने पर भी वह नष्ट नहीँ होता.
अव्यक्तोऽक्षर इत्य् उक्तस् तम् आहुः परमां गतिम् ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद् धाम परमं मम ॥२१॥
उस अव्यक्त को, उस अप्रकट को, अक्षर कहते हैँ. वह परम गति है – अंतिम लक्ष्य है. वहाँ पहुँच कर फिर लौटना नहीँ होता. वह मेरा परम धाम है.
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्व् अनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वम् इदं ततम् ॥२२॥
वह जो परम पुरुष है, पार्थ, वह अनन्य भक्ति से मिलता है. ऐसी भक्ति जो केवल ‘उस’ के लिए है, किसी अन्य के लिए नहीँ. जहाँ कोई अन्य नहीँ रहता, सब एक हो जाते हैँ, उस परम पुरुष के भीतर ये सारे पदार्थ और प्राणी टिके हैँ. वह इस सारे जगत मेँ समाया है.
यत्र काले त्वनावृत्तिम् आवृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥२३॥
वह कौन सा समय है जब देह छोड़ कर योगी फिर से जन्म नहीँ लेते, और वह कौन सा समय है जब मृत्यु होने पर फिर जन्म लेना होता है – भरत श्रेष्ठ, अब मैँ तुझे यह बताता हूँ.
अग्निर् ज्योतिर् अहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥२४॥
अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण के छः मास – ऐसे मेँ जाएँ तो ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्म को पाते हैँ.
धूमो रात्रिस् तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर् योगी प्राप्य निवर्तते ॥२५॥
धूम क्षेत्र, रात, कृष्ण पक्ष, दक्षिणायन के छः महीने – ऐसे मेँ जाने पर योगी चंद्रलोक के प्रकाश को पा कर फिर लौट आता है.
शुक्ल-कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्य् अनावृत्तिम् अन्ययावर्तते पुनः ॥२६॥
इस संसार के ये दो शुक्ल और कृष्ण मार्ग सनातन माने गए हैँ. एक से जाने पर वापसी नहीँ होती. दूसरे से जाने पर लौट कर आना होता है.
नैते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात् सर्वेषु कालेषु योग-युक्तो भवार्जुन ॥२७॥
पार्थ, इन दोनोँ मार्गोँ को जानने वाला योगी भ्रमित नहीँ होता. इस लिए, अर्जुन, तू हर काल मेँ योगी बन.
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत् पुण्य-फलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत् सर्वम् इदं विदित्वा योगी परं स्थानम् उपैति चाद्यम् ॥२८॥
वेद, यज्ञ, तपस्या और दान – ये सब पुण्य कर्म हैँ. इन्हेँ करने से अच्छा फल मिलता है. लेकिन जो योगी मेरे द्वारा बताई गई सब बातेँ जानता है, वह इन के फलोँ को त्याग कर आगे निकल जाता है और परम पद को पा लेता है.
इति श्रीमद्-भगवद्-गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्म-विद्यायां योग-शास्त्रे श्री-कृष्णार्जुन-संवादे अक्षर-ब्रह्म-योगो नाम अष्टोऽध्यायः
यह था श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद् ब्रह्म विद्या योग शास्त्र श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मेँ अक्षर ब्रह्म योग नाम का आठवाँ अध्याय
Comments