श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद
ब्रह्म विद्या योग शास्त्र
अध्याय 7
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अनुवादक
अरविंद कुमार
इंटरनैट पर प्रकाशक
अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.
कालिंदी कालोनी
नई दिल्ली
सप्तमोऽध्यायः
ज्ञान विज्ञान योग
श्रीभगवान् उवाच
मय्यासक्त-मनाः पार्थ योगं युत्र्जन् मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छ्रुणु ॥१॥
श्री भगवान ने कहा
मुझ मेँ मन लगा कर योग की साधना करने वाला मेरी शरण मेँ आया संदेहहीन मनुष्य पूरी तरह मुझे किस प्रकार जान पाएगा – अर्जुन, सुन.
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानम् इदं वक्ष्याम्य् अशेषतः ।
यज् ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज् ज्ञातव्यम् अवशिष्यते ॥२॥
वह ज्ञान और विज्ञान (तत्त्वोँ का ज्ञान और पदार्थोँ का विज्ञान, अव्यक्त परब्रह्म का ज्ञान और ब्रह्म के व्यक्त रूपोँ का विज्ञान, इंद्रियातीत ज्ञान और इंद्रियाधीन विज्ञान) मैँ तुझे पूरी तरह समझाऊँगा. कुछ भी बाक़ी नहीँ रखूँगा. इसे जान कर संसार मेँ जानने योग्य कुछ और नहीँ रहता.
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद् यतति सिद्धये ।
यतताम् अपि सिद्धानां कश्चिन् मां वेत्ति तत्त्वतः ॥३॥
हज़ारोँ लोगोँ मेँ कोई एक सिद्धि का प्रयत्न करता है. उन प्रयासशील सिद्धोँ मेँ से कोई एक ही मुझे तत्त्व से जान पाता है.
भूमिर् आपोऽनलो वायुः खं मनोबुद्धिर् एव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिर् अष्टधा ॥४॥
भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार (अपनी पृथक सत्ता का बोध) मेरी प्रकृति के आठ भिन्न पहलू हैँ.
अपरेयम् इतस् त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीव-भूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥५॥
यह तो मेरी अपरा प्रकृति (व्यक्त प्रकृति) है. मेरी प्रकृति का दूसरा पक्ष इस से परे है, अव्यक्त है. वह मेरी परा प्रकृति है. वह जीव स्वरूप है, सचेतन है. वह इस संपूर्ण जगत को धारण करती है.
एतद्-योनीनि भूतानि सर्वाणीत्य् उपधारय ।
अहं कृत्स्न्स्य जगतः प्रभवः प्रलयस् तथा ॥६॥
तू यह समझ कि सारे भौतिक पदार्थ और प्राणी मेरी इन दो प्रकृतियोँ से बने हैँ. इस सारे जगत को बनाने और मिटाने वाला मैँ हूँ.
मत्तः परतरं नान्यत् किंचिद् अस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वम् इदं प्रोतं सूत्रे मणि-गणा इव ॥७॥
धनंजय, मुझ से अलग, मुझ से परे, कुछ भी नहीँ है. मुझ मेँ यह सब ऐसे पिरा है जैसे धागे मेँ मनके पिरे होते हैँ.
रसोऽहम् अप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशि-सूर्ययोः ।
प्रणवः सर्व-वेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥८॥
पानी मेँ तरलता मैँ हूँ. सूर्य और चंद्रमा का प्रकाश मैँ हूँ. सब वेदोँ मेँ मैँ प्रणव – ओँकार – हूँ. आकाश मेँ मैँ ध्वनि हूँ. और पुरुषोँ का पौरुष मैँ हूँ.
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश् चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्व-भूतेषु तपश् चास्मि तपस्विषु ॥९॥
पृथिवी मेँ मैँ पवित्र गंध हूँ. अग्नि मेँ मैँ तेज हूँ. सब प्राणियोँ मेँ मैँ जीवन शक्ति हूँ. तपस्वियोँ मेँ मैँ तप हूँ.
बीजं मां सर्व-भूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर् बुद्धिमताम् अस्मि तेजस् तेजस्विनाम् अहम् ॥१०॥
पार्थ, तू मुझे भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ के उत्पत्ति का बीज समझ. बुद्धिमानोँ की बुद्धि मैँ हूँ और तेजस्वियोँ का तेज मैँ हूँ.
बलं बलवताम् चाहम् काम-राग-विवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥११॥
मैँ बलवानोँ का ऐसा बल हूँ जिस मेँ न तो कामना है और न राग है. सब प्राणियोँ की जो इच्छाएँ धर्म के विरुद्ध नहीँ हैँ, भरत श्रेष्ठ, वह मैँ हूँ.
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास् तामसाश् च ये ।
मत्त एवेति तान् विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥१२॥
और तू यह भी समझ ले कि जितने भी सात्त्विक, राजसिक और तामसिक भाव हैँ, वे मुझ मेँ हैँ. मैँ उन मेँ नहीँ हूँ. वे मुझ मेँ हैँ.
त्रिभिर् गुणमयैर् भावैर् एभिः सर्वम् इदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति माम् एभ्यः परम् अव्ययम् ॥१३॥
इन तीन गुणोँ वाले भावोँ ने इस सारे जगत को भ्रमित कर रखा है. यह जगत मुझे ठीक से नहीँ जानता क्योँ कि मैँ इन तीन गुणोँ से परे हूँ और परिवर्तनहीन हूँ.
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
माम् एव ये प्रपद्यन्ते मायाम् एतां तरन्ति ते ॥१४॥
तीन गुणोँ से युक्त मेरी इस दैवी माया को पार करना कठिन है. जो मेरी ही शरण आते हैँ वे इस माया से तर जाते हैँ.
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययाऽऽपहृत-ज्ञाना आसुरं भावम् आश्रिताः ॥१५॥
जो पापी हैँ, मूर्ख और नराधम हैँ, वे मेरी ओर नहीँ आते. उन का ज्ञान माया ने हर लिया है. वे असुरोँ के भाव मेँ स्थित हैँ.
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुर् अर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥१६॥
मेरी भक्ति करने वाले पुण्यात्मा चार तरह के हैँ. एक वे जो किसी मुसीबत मेँ होते हैँ. दूसरे वे जो जिज्ञासु हैँ, ज्ञान के प्यासे हैँ. तीसरे वे जिन्हेँ कुछ चाहिए होता है. और चौथे वे जो ज्ञानी हैँ.
तेषां ज्ञानी नित्य-युक्त एकभक्तितर् विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम् अहं स च मम प्रियः ॥१७॥
उन चारोँ मेँ विशेष स्थान ज्ञानी का है. वह नित्य योगी होता है. उस की भक्ति मेँ एकनिष्ठा होती है. ज्ञानी को मैँ बहुत प्रिय हूँ और मुझे ज्ञानी से प्रेम है.
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा माम् एवानुत्तमां गतिम् ॥१८॥
ये सभी भक्त अच्छे हैँ. पर इन मेँ से ज्ञानी को मैँ अपनी आत्मा ही मानता हूँ. उस की आत्मा योगमय है. वह मेरी सर्वोत्तम गति मेँ स्थित है.
बहूनां जन्मनाम् अन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वम् इति स महात्मा सुदुर्लभः ॥१९॥
बहुत सारे जन्मोँ के बाद ज्ञानी मेरी शरण मेँ पहुँचता है. वह सब मेँ मुझ वासुदेव को ही देखता है. ऐसा महात्मा मिलना दुर्लभ है.
कामैस् तैस् तैर् हृत-ज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्य-देवताः ।
तं तं नियमम् आस्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ २० ॥
ज्ञान से भटके मनुष्य कामनाओँ के अधीन हो जाते हैँ और अलग अलग देवताओँ की पूजा करते हैँ. अपनी प्रकृति के अनुरूप वे उस पूजा के नियम बनाते हैँ और उन का पालन करते हैँ.
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयाऽऽर्चितुम् इच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां ताम् एव विदधाम्य् अहम् ॥२१॥
जो भक्त जिस भी आकार या देवता की पूजा श्रद्धापूर्वक करना चाहता है, मैँ उस की श्रद्धा उसी आकार मेँ दृढ़ करता हूँ.
स तया श्रद्धया युक्तस् तस्याराधनम् ईहते ।
लभते च ततः कामान् मयैव विहितान् हि तान् ॥२२॥
मेरे द्वारा स्थापित श्रद्धा से युक्त हो कर वह उस देवता की आराधना करता है. उस देवता से उसे जो फल मिलता है, वह मेरे ही नियम से मिलता है.
अन्तवत् तु फलं तेषां तद् भवत्य् अल्प-मेधसाम् ।
देवान् देव-यजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति माम् अपि ॥२३॥
उन कम बुद्धि वालोँ को जो फल मिलता है, वह जल्दी ही नष्ट हो जाता है, क्योँ कि वह फल क्षणजीवी होता है. जो लोग देवताओँ को पूजते हैँ, उन्हेँ देवता मिलेँगे. जो मुझे पूजते हैँ, उन्हेँ मैँ मिलता हूँ.
अव्यक्तं व्यक्तिम् आपन्नं मन्यन्ते माम् अबुद्धयः ।
परं भावम् अजानन्तो ममाऽऽव्ययम् अनुत्तमम् ॥२४॥
मैँ अव्यक्त हूँ – मेरा कोई आकार या रूप नहीँ है. लेकिन बुद्धिहीन लोग मुझे किसी साकार व्यक्त रूप मेँ आया मानते हैँ. वे मेरे अत्युत्तम और परम तत्त्व को नहीँ जानते. वे नहीँ जानते कि मैँ अव्यय हूँ – निर्विकार और परिवर्तनहीन हूँ.
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योग-माया-समावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको माम् अजम् अव्ययम् ॥२५॥
मैँ सब के सामने प्रकाशित नहीँ होता क्योँ कि मैँ अपनी योग माया से ढँका हूँ. यह लोक मूढ़ है. यह इस तत्त्व को ठीक से समझ नहीँ पाता कि न तो मेरा जन्म होता है, न मुझ मेँ कोई परिवर्तन होता है.
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥२६॥
मैँ उस सब जीवोँ को जानता हूँ जो पहले हो चुके हैँ, आजकल हैँ और भविष्य मेँ होँगे. अर्जुन, लेकिन मुझे कोई नहीँ जानता.
इच्छा-द्वेष-समुत्थेन द्वन्द्व-मोहेन भारत ।
सर्व-भूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥२७॥
सुख भोगने की इच्छा और दुःख भोगने की अनिच्छा से, भारत, द्वंद्व का मोह पैदा होता है. उस द्वंद्व से, परंतप, सृष्टि के सारे प्राणी भ्रमित हो रहे हैँ.
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्य-कर्मणाम् ।
ते द्वन्द्व-मोह-निर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥२८॥
पुण्य कर्मोँ से कई लोगोँ का पाप नष्ट हो गया है. वे द्वंद्व से मुक्त हो गए हैँ. दृढ़ निश्चय वाले वे लोग मुझे भजते हैँ.
जरा-मरण-मोक्षाय माम् आश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद् विदुः कृत्स्नम् अध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥२९॥
बुढ़ापे और मृत्यु के बंधन से मुक्ति के लिए जो लोग मेरी शरण मेँ आते हैँ और प्रयत्न करते हैँ, वे तद्ब्रह्म को जानते हैँ. वे संपूर्ण अध्यात्म को जानते हैँ. वे अखिल कर्म को जानते हैँ.
साधिभूताऽऽधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाण-कालेऽपि च मां ते विदुर् युक्त-चेतसः ॥३०॥
वे मुझे अधिभूत, अधिदेव और अधियज्ञ सहित जानते हैँ, इस प्रकार जो मुझे पूरी तरह जानते हैँ, उन की चेतना जुड़ चुकी है. वे योगी अपनी मृत्यु के समय भी मुझे जानते हैँ.
इति श्रीमद्-भगवद्-गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्म-विद्यायां योग-शास्त्रे श्री-कृष्णार्जुन-संवादे आत्म-संयम-योगो नाम सप्तमोऽध्यायः
यह था श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद् ब्रह्म विद्या योग शास्त्र श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मेँ ज्ञान विज्ञान योग नाम का सातवाँ अध्याय
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