श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद
ब्रह्म विद्या योग शास्त्र
अध्याय 3
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अनुवादक
अरविंद कुमार
इंटरनैट पर प्रकाशक
अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.
कालिंदी कालोनी
नई दिल्ली
तृतीयोऽध्यायः
कर्म योग
अर्जुनोवाच
ज्यायसी चेत् कर्मणस् ते मता बुद्धिर् जनार्दन ।
तत् किं कर्मंणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥१॥
अर्जुन ने कहा
जनार्दन, आप के मत से बुद्धि अगर कर्म से बेहतर है, तो फिर आप मुझे इस घोर कर्म मेँ क्योँ जोत रहे हैँ?
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तद् एकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहम् आप्नुयाम् ॥२॥
आप की बातेँ मिली जुली सी हैँ. इस से मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है. निश्चय कर के एक बात कहिए, जिस से मेरा भला हो.
श्रीभगवान् उवाच
लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञान-योगेन साङ्ख्यानां कर्म-योगेन योगिनाम् ॥३॥
श्री भगवान ने कहा
पापहीन (अनघ) अर्जुन, सुन. इस संसार मेँ दो प्रकार की निष्ठाएँ हैँ – यह मैँ ने पहले कहा है. सांख्योँ – विचारकोँ, ज्ञानियोँ – के लिए ज्ञान योग और योगियोँ के लिए कर्म योग.
न कर्मणाम् अनारम्भान् नैर्ष्कम्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च संन्यसनाद् एव सिद्धिं समधिगच्छति ॥४॥
ऐसा नहीँ है कि काम न करने मात्र से किसी मनुष्य को निष्कर्म स्थिति मिल जाएगी. और यह सोचना भी ग़लत है कि कर्मोँ से संन्यास लेने मात्र से मोक्ष मिल जाएगा.
न हि कश्चित् क्षणम् अपि जातु तिष्ठत्य् अकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर् गुणैः ॥५॥
सच तो यह है कि कभी एक पल के लिए भी कर्म के बग़ैर नहीँ बैठा जा सकता. मज़बूरन कर्म सब को करना होता है. कर्म तो प्रकृति के गुणोँ की उपज है.
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥६॥
जो मनुष्य अपनी कर्मेंद्रियोँ को ज़बरदस्ती रोकता है, और कर्म नहीँ करता, लेकिन मन ही मन इंद्रियोँ के विषयोँ को सोचता रहता है, उसे मूर्ख और ढोंगी कहा जाता है.
यसत्व् इन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभतेऽर्जुन ।
कर्मेंद्रियैः कर्म-योगम् असक्तः स विशिष्यते ॥७॥
लेकिन, अर्जुन, जो व्यक्ति मन से इंद्रियोँ को नियंत्रण मेँ रख कर कर्म करता है, वह अपनी कर्मेंद्रियोँ से कर्म योग की साधना करता है. वह अनासक्त रहता है. वह मनुष्य श्रेष्ठ है.
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
शरीर-यात्रापि च ते न प्रसिद्धयेद् अकर्मणः ॥८॥
तू अपना नियत कर्म कर! अकर्म से कर्म बेहतर है. कर्म नहीँ करेगा तो तेरे शरीर की यात्रा भी ठीक से पूरी नहीँ होगी.
यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्म-बन्धनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्त-सङ्गः समाचर ॥९॥
यज्ञ के अतिरिक्त भी इस संसार मेँ लोग अनेक कर्म करते हैँ. ऐसे कर्म मनुष्य को संसार से बाँधते हैँ. इस लिए, कौंतेय, तू कर्म तो कर, उन मेँ आसक्त मत हो.
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वम् एष वोऽस्त्व् इष्ट-कामधुक् ॥१०॥
पहले, प्रजापति ने यज्ञ के साथ प्रजा को रचा और कहा – इस यज्ञ कर्म को करो, और बढ़ो. यज्ञ तुम लोगोँ की कामनाओँ को पूरा करने वाली कामधेनु बने…
देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परम् अवाप्स्यथ ॥११॥
यज्ञ के द्वारा तुम देवताओँ को बढ़ाओ और वे तुम्हेँ बढ़ाएँ. तुम एक दूसरे का परम कल्याण करो.
इष्टान् भोगान् हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञ-भाविताः ।
तैर् दत्तान् अप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥१२॥
यज्ञ से देवता बढ़ेँगे, बढ़ कर वे तुम्हेँ प्रिय भोग देँगे. उन के प्रसाद मेँ से उन्हेँ दिए बिना जो भोग करता है, वह चोर और लुटेरा है.
यज्ञ-शिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्व-किल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्तय् आत्मकारणात् ॥१३॥
जो लोग यज्ञ से बचा प्रसाद खाते हैँ, वे सब पापोँ से छूट जाते हैँ. लेकिन पापी जन अपने ही लिए पकाते हैँ, आप ही खाते हैँ, दूसरोँ को कुछ नहीँ देते. वे मानो पाप को ही खाते हैँ.
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्याद् अन्न सम्भवः ।
यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म-समुद्भवः ॥१४॥
सब प्राणी अन्न से होते हैँ. अन्न वर्षा (पर्जन्य) से होता है. पर्जन्य यज्ञ से होता है. यज्ञ कर्म से होता है.
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर-समुद्भवम् ।
तस्मात् सर्व-गतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥१५॥
यह समझ कि कर्म ब्रह्म से हुआ है और ब्रह्म अक्षर से – मूल तत्त्व से. इस लिए नित्य किए जाने वाले यज्ञ मेँ सर्वव्यापी ब्रह्म स्थित होता है.
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुर् इन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥
इस कर्म चक्र का पालन न करने वाला मनुष्य पाप मेँ लीन है. वह इंद्रियोँ के भोगोँ मेँ लगा है. पार्थ, उस का जीना बेकार है.
यस्त्वाऽऽत्म-रतिर् एव स्याद् आत्म-तृप्तश् च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस् तस्य कार्यं न विद्यते ॥१७॥
परंतु जो मनुष्य आत्मा मेँ प्रसन्न है और आत्मा मेँ तृप्त है और आत्मा मेँ ही संतुष्ट है, उस के करने के लिए कोई कार्य नहीँ है.
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्व-भूतेषु कश्चिद् अर्थ-व्यपाश्रयः ॥१८॥
उसे न तो करने से कोई मतलब है और न ही न करने से. न ही वह किसी प्रकार भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ पर आश्रित रहता है.
तस्माद् असक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन् कर्म परम् आप्नोति पूरुषः ॥१९॥
इस लिए तू पूरी तरह अनासक्त हो कर कर्म कर. कर्म करने वाले अनासक्त पुरुष को परम गति मिलती है.
कर्मणैव हि संसिद्धिम् आस्थिता जनकादयः ।
लोक-सङ्ग्रहम् एवापि सम्पश्यन् कर्तुम् अर्हसि ॥२०॥
कर्म के द्वारा ही जनक इत्यादि ज्ञानियोँ को पूर्ण सिद्धि प्राप्त हुई थी. लोक कल्याण की दृष्टि से भी तुझे कर्म करना ही उचित है
यद् यद् आचरति श्रेष्ठस् तत् तद् एवेतरो जनः ।
स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस् तद् अनुवर्तते ॥२१॥
अच्छा आदमी, आदर्श पुरुष, जो कर्म करता है और जिस प्रकार करता है, बाक़ी लोग वही और वैसे ही आचरण करते हैँ. दुनिया उस के बनाए आदर्शोँ पर चलती है.
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानवाप्तम् अवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥२२॥
पार्थ, मुझे देख. इन तीन लोकोँ मेँ मेरे लिए करने को कुछ भी नहीँ है. चाहने लायक़ ऐसी कोई वस्तु नहीँ है जो मुझे मिल न चुकी हो. फिर भी मैँ कर्म करता हूँ.
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्य् अतन्द्रितः ।
मम र्वत्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥२३॥
अगर मैँ पूरी तरह चौकन्ना रह कर कर्म न करूँ तो, मेरी देखादेखी लोग कर्म करना बंद कर देँगे.
उत्सीदेयुर् इमे लोका न कुर्यां कर्म चेद् अहम् ।
सङ्करस्य च कर्ता स्याम् उपहन्याम् इमाः प्रजाः ॥२४॥
यदि मैँ कर्म न करूँ तो ये सब लोक नष्ट हो जाएँगे और मैँ वर्णसंकरता का कारण बन जाऊँगा और प्रजा का हत्यारा.
सक्ताः कर्मण्य् अविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद् विद्वांस् तथाऽसक्तश् चिकीर्षुर् लोक-सङ्ग्रहम् ॥२५॥
अज्ञानी और आसक्त लोग कर्म मेँ लगे रहते हैँ. उन की तरह, अर्जुन, ज्ञानियोँ को भी कर्म मेँ लगे रहना चाहिए. लेकिन ज्ञानी का कर्म आसक्तिहीन होता है. वह लोक कल्याण की इच्छा से कर्म करता है.
न बुद्धि-भेदं जनयेद् अज्ञानां कर्म-सङ्गिनाम् ।
जोषयेत् सर्व-कर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ॥२६॥
अज्ञानी और आसक्त लोगोँ की बुद्धि को अपने कर्म से विचलित करना ज्ञानी मनुष्य का काम नहीँ है. उसे तो चाहिए को वह स्वयं को योग से जोड़ कर सारे कर्म अच्छी तरह करे और दूसरोँ से कराए.
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कार-विमूढात्मा कर्ताऽऽहम् इति मन्यते ॥२७॥
सब कर्म हर प्रकार के प्रकृति के तीनोँ गुणोँ द्वारा किए जाते हैँ. लेकिन अहंकार की भावना से ग्रस्त मूर्ख प्राणी यह मान लेता है कि वही ये सारे काम कर रहा है.
तत्त्ववित् तु महाबाहो गुण-कर्म-विभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥२८॥
तत्त्वज्ञानी आदमी गुण और कर्म के भेद को समझता है. वह जानता है कि कर्म वास्तव मेँ प्रकृति के गुणोँ का आपसी बरताव है – गुणोँ की परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया ही कर्म है. इसलिए ज्ञानी आसक्त नहीँ होता.
प्रकृतेर् गुण-सम्मूढाः सज्जन्ते गुण-कर्मसु ।
तान् अकृत्स्नविदो मन्दान् कृत्स्नविन् न विचालयेत् ॥२९॥
प्रकृति के गुणोँ से भ्रमित हो जाने वाले लोग गुणोँ के कर्म मेँ आसक्त हो जाते हैँ. वे लोग संपूर्ण को नहीँ जानते. उन की बुद्धि मंद होती है. लेकिन जो लोग संपूर्ण को जानते हैँ, वे उन अज्ञानियोँ को विचलित न करेँ.
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याऽऽध्यात्म-चेतसा ।
निराशीर् निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगत-ज्वरः ॥३०॥
तू अपने सब कर्म मुझे समर्पित कर दे! अपनी चेतना को अध्यात्म मेँ केंद्रित कर! फल की आशा मत कर! अपनेपन को – ममता को – त्याग! मन से संताप मिटा दे! युद्ध कर!
ये मे मतम् इदं नित्यम् अनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥३१॥
मेरे इस मत का पालन नित्य प्रति करने वाले श्रद्धावान मनुष्य पूरी निष्ठा से अपने अपने काम मेँ लगे रहते हैँ. उन की मानसिकता मेरे मत के प्रति निंदात्मक नहीँ होती. उन की बुद्धि ऊहापोह से ग्रस्त नहीँ होती. वे भी कर्मोँ से छूट जाते हैँ.
ये त्वेतद् अभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्व-ज्ञान-विमूढांस् तान् विद्धि नष्टान् अचेतसः ॥३२॥
निंदक प्रवृत्ति वाले लोग मेरे इस मत का पालन नहीँ करते. उन का पूरा का पूरा ज्ञान भ्रांत है. समझ ले कि वे बुद्धिहीन लोगोँ को नष्ट ही समझ.
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर् ज्ञानवान् अपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥३३॥
ज्ञानी भी अपनी प्रकृति – अपने स्वभाव – के अनुरूप आचरण करते हैँ. सब भूत पदार्थ और प्राणी प्रकृति पर ही चलते हैँ. ज़बरदस्ती का अनुशासन तथा निग्रह करने से क्या होगा?
इन्द्रिस्येऽऽन्द्रियस्यार्थे राग-द्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर् न वशम् आगच्छेत् तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥३४॥
हर इंद्रिय का अपना अलग भोग का विषय होता है. इस प्रकार हमारी पाँचोँ ज्ञानेंद्रियोँ के पाँच इंद्रियार्थ हैँ – शब्द, रूप, स्पर्श, गंध और रस. इन्हेँ भोगने की इच्छा का अर्थ है राग और द्वेष. ये राग और द्वेष इंद्रिय और इंद्रियार्थ मेँ स्थित हैँ. राग और द्वेष – दोनोँ – के बस मेँ नहीँ आना चाहिए. ये दोनोँ राह के शत्रु हैँ.
श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३५॥
अपना गुणहीन धर्म बेहतर है चाहे दूसरे का धर्म – दूसरे का स्वाभाविक कर्म, धंधा, पेशा – कितना ही सहज और अच्छा हो. स्वधर्म का पालन करते करते मरना ही अच्छा है. परधर्म भयावह है.
अर्जुनोवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्न् अपि वार्ष्णेय बलाद् इव नियोजितः ॥३६॥
अर्जुन ने कहा
वह कौन है जो मनुष्य को पाप मेँ लगा देता है? वार्ष्णेय, न चाहते हुए भी आदमी पाप करने को विवश हो जाता है. मानो कोई उसे मज़बूर कर रहा हो. ऐसा क्योँ होता है?
श्रीभगवान् उवाच
काम एष क्रोध एष रजो-गुण-समुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्य् ऐनम् इह वैरिणम् ॥३७॥
श्री भगवान ने कहा
यह कामना – यह इच्छा, यह चाहत – और यह क्रोध रजोगुण से पैदा होते हैँ. महापापिन चाहत बड़ी भूखी है. तू इस बैरिन को पहचान ले.
धूमेनाव्रियते वह्निर् यथाऽऽदर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनाऽऽवृतो गर्भस् तथा तेनेदम् आवृतम् ॥३८॥
धुआँ अग्नि को ढँक लेता है. मैल दर्पण को ढँक लेता है. झिल्ली गर्भ को ढँके होती है. वैसे ही कामना ज्ञान को ढँक लेती है.
आवृतं ज्ञानम् एतेन ज्ञानिनो नित्य-वैरिणा ।
काम-रुपेण कौन्तेय दुष्पूरेणाऽऽनलेन च ॥३९॥
कामना ने ज्ञान को ढँक रखा है. यह कामना ज्ञानियोँ की हमेशा की बैरिन है. कभी संतुष्ट नहीँ होती – अग्नि की तरह इस का पेट कभी नहीँ भरता.
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिर् अस्याधिष्ठानम् उच्यते ।
एतैर् विमोहयत्य् एष ज्ञानम् आवृत्य देहिनम् ॥४०॥
कहते हैँ कि इंद्रियाँ, मन और बुद्धि हमारी कामनाओँ के रहने की जगहेँ हैँ. इन मेँ ये डेरा डालती हैँ, ज्ञान को ढँक लेती हैँ और आत्मा को भरमा देती हैँ.
तस्मात् त्वम् इन्द्रियाण्य् आदौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञान-विज्ञान-नाशनम् ॥४१॥
इसलिए पहले तू इंद्रियोँ को बस मेँ कर. ज्ञान और विज्ञान – अव्यक्त ब्रह्म के ज्ञान और ब्रह्म के व्यक्त रूपोँ के विज्ञान – की नाशक इस पापिन को मार डाल!
इन्द्रियाणि पराण्य् आहुर् इन्द्रियेम्यः परं मनः ।
मनसस् तु परा बुद्धिर् यो बुद्धेः परतस् तु सः ॥४२॥
कहते हैँ कि स्थूल शरीर के ऊपर इंद्रियाँ है. इंद्रियोँ के ऊपर मन है. मन के भी ऊपर बुद्धि है. और बुद्धि के ऊपर जो है, वह ‘वह’ है.
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्याऽऽत्मानम् आत्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥४३॥
जो बुद्धि के परे है, तू ‘उसे’ जान. आत्मा के द्वारा आत्मा को नियंत्रित कर. इस प्रकार, महाबाहु, कामना रूपी दुर्गम शत्रु को मार डाल!
इति श्रीमद्-भगवद्-गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्म-विद्यायां योग-शास्त्रे श्री-कृष्णार्जुन-संवादे कर्म-योगो नाम तृतीयोऽध्यायः
यह था श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद् ब्रह्म विद्या योग शास्त्र श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मेँ कर्म योग नाम का तीसरा अध्याय
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