जाना महावीर अधिकारी का

In Journalism, People by Arvind KumarLeave a Comment

एक औघड़ मलंग की याद में

 

अधिकारी स्‍वतंत्र भारत के उदय के साथ हिंदी पत्रकारिता में धूमकेतु के समान अचानक उभरे और सिक्‍के पर सिक्‍के जमाते चले गए. नवयुगके संपादन विभाग से उस के विख्‍यात संपादक तक. समाज कल्‍याणमासिक से दैनिक हिंदुस्‍तानके संपादक तक. फिर नवभारत टाइम्‍सके मुंबई संपादक तक. कई बरस उन्‍हों ने मुंबई के हिंदी जगत पर साम्राज्‍य किया. फिर वे अपने में समाते चले गए. एक अनोखा एकांत और एकाकीपन उन्‍हें घेरता चला गया.

 

अरविंद कुमार

१७ मई २००५

 

अभी कल सुबह मैं ने अधिकारी जी को एक पत्र लिखा. उन्‍हें अपने आने वाले कोशों के बारे में बताने के लिए. वह उन लोगों में थे जिन्‍हें अपने काम के बारे में, अपनी उपलब्‍धियों के बारे में बताना मेरे लिए ज़रूरी था. और… आज सुबह राष्‍ट्रीय विश्वासके संपादक और हम दोनों — अधिकारी जी और मेरे — आत्‍मीय विजयमोहन का टेलिफ़ोन आ गया.

अधिकारी जी १३ मई को चले गए.

सब को जाना होता है. वयोवृद्ध अधिकारी काफ़ी समय से बीमार थे. उन का जाना कोई अनहोनी नहीं है. पर ऐसी होनी का समाचार भी विचलित करता है. गीता में कहा है जो जाते हैं उन का शोक नहीं करना चाहिए. लेकिन यह जो शोक होता है, उन के जाने का नहीं, उन से बिछुड़ने का शोक होता है. यह शोक बेटी की बिदाई पर भी उतना ही होता है. गीता इस शोक का कोई निदान नहीं करती.

अधिकारी स्‍वतंत्र भारत के उदय के साथ हिंदी पत्रकारिता में धूमकेतु के समान अचानक उभरे और सिक्‍के पर सिक्‍के जमाते चले गए. नवयुगके संपादन विभाग से उस के विख्‍यात संपादक तक. समाज कल्‍याणमासिक से दैनिक हिंदुस्‍तानके संपादक तक. फिर नवभारत टाइम्‍सके मुंबई संपादक तक. कई बरस उन्‍हों ने मुंबई के हिंदी जगत पर साम्राज्‍य किया. फिर वे अपने में समाते चले गए. एक अनोखा एकांत और एकाकीपन उन्‍हें घेरता चला गया.

मुंबई में मैं अधिकारी जी के निकटतम लोगों में था. दिल्‍ली का परिचय बंबई में अंतरंगता में बदल गया. दिनरात का उठना बैठना. पर जीवन में अधिकारी जी के निकटतम थे राष्‍ट्रीय विश्वासके संस्‍थापक और संपादक ब्रजमोहन जी. मेरे लिए अग्रज. एक लासानी लगाव था दोनों मे. देशभक्ति, कमज़ोर तबक़ों के लिए गहरी शुभेच्‍छा, एक अनोखा वामपंथी झुकाव जो वामपंथ की एकांगी सीमाओं से ऊपर उठने को तैयार था. संंकुचित संप्रदायवाद से रोम रोम में वाबस्‍ता घृणा. यही था जो हम तीनों में कौमन था. एक और बात जो कौमन थी वह थी आपसी समझ, कैसे भी आपसी मनमुटाव की असंभवता.

नजीबाबाद के किसी गाँव के छोटे ज़मींदार परिवार में जन्‍मे अधिकारी गाय भैंस चराने के रोचक क़िस्‍से सुनाया करते थे. भैंसों का यह चरवाहा मुंबई की शानशौकत भरी ज़िंदगी में भी भीतर तक लंठ गँवार रहा. भीतरी गँवारपन को छिपाने के लिए वह एक से एक बढ़िया सूट पहनता था. हमेशा इस बात से डरता था कि कोई उसे गँवार न समझ ले. मुझे एक बात याद आती है. हम लोग बंबई में, तब वह बंबई ही था, दारासिंह का दंगल देखने गए. रास्‍ते में हम ने केले ख़रीदे. आसपास बैठे तमाम लोग बीच बीच में कुछ खा रहे थे. मैं ने केला खाना चाहा तो अधिकारी ने टोक दिया. लोग हमें असभ्‍य समझेंगे.यह उन के भीतर का वह गँवार ही बोल रहा था, जो अपने गँवरपन के पकड़े जाने से डरता था.

अधिकारी के अधिकारी बनने की रोचक कहानी 

आरंभ में वह महावीर त्‍यागी थे. लेकिन महावीर त्‍यागी नाम के एक प्रसिद्ध आर्य समाजी राजनेता भी थे. शायद नेता जी ने ही कहा, या मित्रों ने, कि तुम अपना नाम बदल लो. अब आत्‍माभिमानी महावीर ने अपने आप को त्‍यागीका उलटा अधिकारीघोषित कर दिया.

आत्‍माभिमान अधिकारी पर आत्‍मगौरव की हद तक तारी था. आत्‍ममोह भी कहा जा सकता है. पर यह बेहद निश्‍छल सी प्रवृत्ति थी, या वही गंवरपन की आत्‍महीनता ग्रंथि की स्‍वाभाविक अभिव्‍यक्ति थी. अपने ही एक अभिन्न और हम दोनों के घनिष्‍ठ मित्र कवि रामावतार त्‍यागी, त्‍यागी ही क्‍यों उदीयमान भारत में आत्‍मगौरव के लिए लड़ते अनगिनत लोगों की तरह ही वह थे, जो अपने को एकमात्र अनोखा अनुपम अन्‍यतम उत्तम मानते थे. हमारे मित्र बालस्‍वरूप राही ने कहा है ज़िंदगी में कुछ ग़लतफ़हमियाँ ज़रूरी हैं.आदमी को अपने बारे में ये ग़लतफ़हमियाँ न हों तो आदमी है भी क्‍या? और यदि आदमी में कमज़ोरियाँ न हों तो वह आदमी कैसा! ग़रीबान में मुँह झाँक कर देखें तो हम सब कमज़ोरियों के पुतले हैं.

अधिकारी जी ने बहुत लिखा, और बहुत अच्‍छा लिखा. उन के एक उपन्‍यास पर फ़िल्‍म भी बनी, कई कारणों से फ़िल्‍म न तो अच्‍छी बन पाई, न चल पाई. एक कारण था अनुभवहीनता के कारण मेरी ओर से दिया गया एक ग़लत सुझाव. मेरे कहने पर सब का भला चाहने वाले अधिकारी ने बिल्‍कुल अनपरखे उमेश माथुर को फ़िल्‍म का निर्देशक बनवा दिया. पैसे की कमी थी. अच्‍छे नायक नहीं मिल पाए. मेरे ज़िद करने पर लक्ष्मीकांत ‍यारेलाल संगीत देने के लिए राज़ी हो गए. अधिकारी की ज़िद पर उन्‍हों ने रामावतार त्‍यागी से गीत लिखवाने की हामी भर ली. फ़िल्‍मी व्‍यावसायिक पैमाने पर नापें तो आरंभ से ही फ़िल्‍म की असफलता सुनिश्‍चित थी. एक ओर लक्ष्मीकांतप्‍यारेलाल जैसे बड़े संगीत निर्देशक, उमेश माथुर के आग्रह पर आए क्‍लासिकल कैमरामैन आर डी माथुर, दूसरी ओर ज़ीरो नायक, जानीपहचानी, लेकिन व्‍यावसायिक फ़िल्‍मों से दूर नायिका रेहाना सुल्‍तान, ऊपर से अनुभवहीन निर्देशक उमेश और उन से भी अधिक अनुभवहीन निर्माता. तो वही हुआ जो होना था. लेकिन पारिवारिक संबंधों में खटास पैदा हो गई. यह अंत तक चली. कहते हैं समय सब कुछ भुला देता है, लेकिन यह कड़वाहट कभी नहीं घुली.

अंत तक अधिकारी सपने देखते रहे. उन का एक सपना था उस नाले का पाट कर पक्‍की सड़क बनवाने का जो गाँव तक पहुँचने का रास्‍ते में पड़ता था. अकसर उस नाले की कीचड़ और दलदल को पैदल पार करना पड़ता था. वह चाहते थे उन का गाँव गाँधी जी के सपनों का आदर्श गाँव बन जाए. इस के लिए वह ख़ुद गाँव जा कर बसना चाहते थे. अकेले जाने की उन की हिम्‍मत टूट चुकी थी. बार बार मुझ से वहाँ बसने को कहते. पर मेरी प्राथमिकताएँ और थीं.

उन का एक और सपना था एक महाकथा लिखने का, एक महान उपन्‍यास. इस अलिखित उपन्‍यास का नायक था एक बौद्ध भिक्षु जो भारत से चीन गया और वहाँ मार्शल आट्र्स का विकास कर के पूरे राष्‍ट्र में नई चेतना भर दी. यह शायद अधिकारी जी का वह रूप था जो अपने लिए उन के मन में था. इस उपन्‍यास के लिए जो ऐतिहासिक तथ्‍य एकत्र करने थे वे अंत तक नहीं जुट पाए…

अलमस्त मलंग

स्‍वभाव से अधिकारी अलमस्‍त थे, मलंग थे. हास्‍यप्रियता दूर दूर तक विख्‍यात थी, उन के ही दम से बंबई में टाइम्‍स आफ़ इंडिया का लंचरूम ठहाकों से गूँजता रहता था. मूड आता था, तो एक से एक छपनीय और अछपनीय काव्‍य रचना धारा प्रवाह कर सकते थे. हम मित्रों ने उन की प्रतिभा का भरपूर आनंद भोगा है.

पहलवानी का शौक था. अपने को पहलवान समझते थे. ख़ुशवंत सिंह भी अपने को कम नहीं समझते थे. एक बार लंचरूम में यह लग गई कि दोनों में कौन अधिक वीर (!) (वास्‍तव में इस से मिलताजुलता एक अन्‍य शब्‍द) है. परीक्षा कैसे हो. तय पाया गया कि दोनों रेस कोर्स मैदान में दौड़ प्रतियोगिता करेंगे. दोनों ही बड़ी मुस्‍तैदी से हर सुबह दौड़ने का अभ्‍यास करते रहे. कई सप्‍ताह बीत गए. मित्रों को बीच बचाव कराना पड़ा. सब ने दोनो को एक समान वीर मान लिया.

मलंगी में लासानी महावीर अब नहीं रहे.

मैं पौंडिचेरी में रहता हूँ. यहाँ हिंदी जगत के समाचार कम ही मिल पाते हैं. विजयमोहन ने आज सुबह गुरु जी — मैं अघिकारी को गुरु जी ही कहता था — के जाने का समाचार दे कर मेरे उस पत्र के उत्तर का असमाप्‍य इंतज़ार समाप्‍त कर दिया जो मैं करता रहता. वरना मैं इंतज़ार करता रहता, करता रहता…

गुरु जी का ग्राम सुधार का जो सपना था, वह आज १७ मई को प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने भारत निर्माण योजना को स्‍वीकृति दे कर अधिकारी जी के ही नहीं, भारत के सभी गाँवों के नवनिर्माण की ओर ठोस क़दम उठाने की घोषणा कर दी. अगर अभी तक अधिकारी के गाँव तक पक्‍की सड़क न बनी होगी तो अब बन जाएगी. वह इंतज़ार अब ख़त्‍म होगा ही. लेकिन चीन तक मार्शल आर्ट्स ले जाने वाले बौद्ध भिक्षु की कहानी अलिखित रहेगी…

© अरविंद कुमार

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