श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद
ब्रह्म विद्या योग शास्त्र
अध्याय 14
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अनुवादक
अरविंद कुमार
इंटरनैट पर प्रकाशक
अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.
कालिंदी कालोनी
नई दिल्ली 110065
पञ्चदशोऽध्यायः
पुरुषोत्तम योग
श्रीभगवान् उवाच
ऊर्ध्व-मूलम् अधःशाखम् अश्वत्थं प्राहुर् अव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस् तं वेद स वेदवित् ॥१॥
श्री भगवान ने कहा
कहते हैँ कि अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष की जड़ेँ ऊपर हैँ और शाखाएँ नीचे. यह पेड़ अव्यय है. वेदोँ के छंद इस पीपल के पत्ते हैँ. इसे जानने वाला वेदोँ को जानता है.
अधश् चोर्ध्वं प्रसृतास् तस्य शाखा
गुण-प्रवृद्धा विषय-प्रवालाः ।
अधश् च मूलान्य् अनुसन्ततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्य-लोके ॥२॥
इस अश्वत्थ की शाखाएँ नीचे और ऊपर फैली हैँ. इन शाखाओँ का प्रसार सत्त्व रज और तम आदि गुणोँ ने किया है. इंद्रियोँ के शब्द आदि विषय इस अश्वत्थ की कोँपलेँ हैँ. इस की जड़ेँ नीचे भी फैल रही हैँ. ये जड़ेँ मनुष्य लोक मेँ कर्म को जन्म देती हैँ.
न रूपम् अस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर् न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थम् एनं सुविरूढ-मूलम्
असङ्ग-शस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥३॥
इस का रूप यहाँ से नहीँ देखा जा सकता. न इस वृक्ष का अंत देखा जा सकता है, न आरंभ, न वह स्थान जहाँ यह टिका है. मज़बूत जड़ोँ वाले इस अश्वत्थ वृक्ष को अनासक्ति के दृढ़ शस्त्र से काटना चाहिए.
ततः पदं तत् परिमार्गितव्यं
यस्मिन् गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥४॥
इस के बाद पद – स्थान – का रास्ता ढूँढ़ना चाहिए जहाँ पहुँच कर फिर लौटना नहीँ होता. और यह दृढ़ निश्चय करना चाहिए कि मैँ उस आदि पुरुष की ही शरण मेँ जा रहा हूँ. यह सब उसी की प्राचीन प्रवृत्ति का फैलाव है.
निर्-मान-मोहा जित-सङ्ग-दोषा
अध्यात्म-नित्या विनिवृत्त-कामाः ।
द्वंद्वैर् विमुक्ताः सुख-दुःख-सञ्ज्ञैः
गच्छन्त्य् अमूढाः पदम् अव्ययं तत् ॥५॥
उस अव्यय पद – स्थान – को जो ज्ञानी जान जाते हैँ –
उन मेँ न तो मान और घमंड है, न मोह और भ्रम है.
उन्होँ ने अपने मन की आसक्ति को, लगाव को, जीत लिया है.
वे नित्य अध्यात्म मेँ लगे रहते हैँ, आत्मा का मनन करते हैँ.
वे कामनाओँ और चाहतोँ से निवृत्त हो गए हैँ.
सुख और दुःख के नाम से जाने वाले द्वंद्व से वे मुक्त हो गए हैँ.
न तद् भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद् धाम परमं मम ॥६॥
उस स्थान को न सूर्य प्रकाशित करता है, न चंद्रमा, न अग्नि. वहाँ पहुँच कर लौटना नहीँ होता. वह मेरा परम धाम है.
ममैवांशो जीव-लोके जीव-भूतः सनातनः ।
मनः षष्ठानीऽऽन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥७॥
मेरा ही सनातन अंश जीवलोक मेँ जीव बन जाता है. प्रकृति मेँ स्थित मन सहित छहोँ ज्ञानेंद्रियोँ को वह खीँचता है.
शरीरं यद् अवाप्नोति यच् चाप्य् उत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर् गन्धान् इवाशयात् ॥८॥
शरीर को पाने और छोड़ने के समय ईश्वर इन इंद्रियोँ को पकड़ कर वैसे ही ले जाता और लाता है जैसे हवा गंध को उस के स्थान से उड़ा कर ले जाती है.
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणम् एव च ।
अधिष्ठाय मनश् चायं विषयान् उपसेवते ॥९॥
कान, आँख, त्वचा, जीभ और नाक, और इन के साथ साथ मन – इन इंद्रियोँ मेँ स्थित हो कर वह विषयोँ का सेवन करता है.
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञान-चक्षुषः ॥१०॥
यह जीव शरीर छोड़ कर जा रहा हो, या शरीर मेँ स्थित हो, या तीनोँ गुणोँ से संयुक्त हो कर विषयोँ का भोग कर रहा हो – अज्ञानी जन उसे नहीँ देख पाते. लेकिन जिन्हेँ ज्ञान की आँखेँ मिल चुकी हैँ, वे इसे देखते हैँ.
यतन्तो योगिनश् चैनं पश्यन्त्य् आत्मन्य् अवस्थितम् ।
यततन्तोऽप्य् अकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्य् अचेतसः ॥११॥
योगी जन कोशिश कर के इस जीव को अपने मेँ स्थित देखते हैँ. लेकिन मूढ़ और अज्ञानी जन कोशिश कर के भी इसे नहीँ देख पाते.
यद् आदित्य-गतं तेजो जगद् भासयतेऽखिलम् ।
यच् चन्द्रमसि यच् चाग्नौ तत् तेजो विद्धि मामकम् ॥१२॥
सूर्य मेँ जो तेज है, जो सारे जगत मेँ उजाला फैलाता है, और जो तेज चंद्रमा मेँ है, और जो तेज अग्नि मेँ है, वे सब मेरे ही तेज हैँ.
गाम् आविश्य च भूतानि धारयाम्य् अहं ओजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥१३॥
पृथिवी मेँ प्रवेश कर के मैँ अपने ओज से सब भौतिक पदार्थोँ और प्राणियोँ को धारण करता हूँ. मैँ ही अमृतमय चंद्रमा बन कर सारी वनस्पतियोँ का पोषण करता हूँ.
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहम् आश्रितः ।
प्राणापान-समायुक्तः पचाम्य् अन्नं चतुर्विधम् ॥१४॥
वैश्वानर अग्नि बन कर मैँ प्राणियोँ की देह मेँ समा जाता हूँ. प्राण और अपान वायुओँ के साथ मिल कर मैँ चारोँ प्रकार के अन्नोँ का पचाता हूँ.
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मतः स्मृतिर् ज्ञानम् अपोहनं च ।
वेदैश् च सर्वैर् अहम् एव वेद्यो
वेदान्तकृद् वेदविद् एव चाहम् ॥१५॥
मैँ सब के हृदय मेँ स्थित हूँ. स्मृति, ज्ञान और शंका निवारण मुझ से ही होते हैँ. वेदोँ के द्वारा जिसे जाना जाता है, वह मैँ ही हूँ. वेदांत को बनाने वाला और वेद को जानने वाला भी मैँ हूँ.
द्वाविमो पुरुषौ लोके क्षरश् चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१६॥
संसार मेँ दो ही पुरुष हैँ. एक : क्षर – जिन का नाश होता है. दो : अक्षर – जिन का नाश नहीँ होता. जितने भी भूत प्राणी हैँ, वे क्षर हैँ. उन का नाश होता. जो इन के भीतर स्थित है, उसे अक्षर कहते हैँ.
उत्तमः पुरुषस्त्व् अन्यः परमात्मेत्य् उदाहृतः ।
यो लोक-त्रयम् आविश्य बिर्भत्य् अव्यय ईश्वरः ॥१७॥
एक उत्तम पुरुष और है, जिसे परमात्मा कहते हैँ. तीनोँ लोकोँ मेँ वह समाया है. वह सब को पालता है. वह अव्यय है. वह ईश्वर है.
यस्मात् क्षरम् अतीतोऽहम् अक्षराद् अपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तम ॥१८॥
इस लिए मैँ क्षर और अक्षर – दोनोँ – से परे हूँ और उत्तम हूँ. और इसी लिए संसार मेँ और वेदोँ मेँ मैँ पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ.
यो माम् एवम् असम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वाविद् भजति मां सर्व-भावेन भारत ॥१९॥
जो भ्रमहीन जन मुझे इस प्रकार पुरुषोत्तम रूप से जानता है, भारत, वह सब कुछ जानता है, और वह हर भाव से मेरी पूजा करता है.
इति गुह्यतं शास्त्रम् इदम् उक्तं मयानघ ।
एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृत-कृत्यश् च भारत ॥२०॥
अनघ अर्जुन, मैँ ने यह अत्यंत गुप्त शास्त्र तुझे बताया. भारत, यह जान कर आदमी बुद्धिमान् हो जाता है. और वह सारे कर्मोँ से निवृत्त हो जाता है.
इति श्रीमद्-भगवत्-गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्म-विद्यायां योग-शास्त्रे श्री-कृष्णार्जुन-संवादे पुरुषोत्तम-योगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः
यह था श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद् ब्रह्म विद्या योग शास्त्र श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मेँ पुरुषोत्तम योग नाम का पंदरहवाँ अध्याय
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