श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद
ब्रह्म विद्या योग शास्त्र
अध्याय 12
☀ अब गीता ☀
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अनुवादक
अरविंद कुमार
इंटरनैट पर प्रकाशक
अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.
कालिंदी कालोनी
नई दिल्ली 110065
द्वादशोऽध्यायः
भक्ति योग
अर्जुनोवाच
एवं सतत-युक्ता ये भक्तास् त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्य् अक्षरम् अव्यक्तं तेषां के योग-वित्तमाः ॥१॥
अर्जुन ने कहा
जैसा आप ने बताया, उस तरह कुछ भक्त लगातार, हमेशा, सतत जुड़ कर आप की उपासना करते रहते हैँ. कुछ अन्य जन आप को अक्षर और अव्यक्त मान कर आप की उपासना करते हैँ. इन दोनोँ मेँ से आप अच्छा योगी किसे मानते हैँ?
श्रीभगवान् उवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्य-युक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास् ते मे युक्ततमा मताः ॥२॥
श्री भगवान ने कहा
उत्तम योगी मैँ उन को मानता हूँ जो अपना मन मुझ मेँ लगा देते हैँ. वे हमेशा मुझ से जुड़े रहते हैँ. महान श्रद्धा के साथ वे मेरी उपासना करते रहते हैँ.
ये त्वक्षरम् अनिर्देश्यम् अव्यक्तं पर्युपासते ।
सर्वत्रगम् अचिन्त्यं च कूटस्थम् अचलं ध्रुवम् ॥३॥
लेकिन कुछ लोग मेरी पूजा यह समझ कर करते हैँ कि –
मैँ अक्षर हूँ – सूक्ष्म हूँ, मुझे विभाजित नहीँ किया जा सकता.
मैँ अनिर्देश्य हूँ – संकेत से मुझे बताया नहीँ जा सकता.
मैँ अव्यक्त हूँ – निराकार हूँ, प्रकट नहीँ होता.
मैँ सर्वत्रग हूँ – हर जगह मेरी गति हैँ, मैँ हर जगह जा सकता हूँ.
मैँ चिंतन से परे हूँ – मुझे सोचा और समझा नहीँ जा सकता.
मैँ कूटस्थ हूँ – बिल्कुल भीतर, अंतरतम मेँ स्थित हूँ.
मैँ अचल हूँ – गतिहीन हूँ.
और मैँ ध्रुव हूँ – स्थायी हूँ.
सन्नियम्येऽन्द्रिय-ग्रामं सर्वत्र सम-बुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति माम् एव सर्व-भूत-हिते रताः ॥४॥
वे सब इंद्रियोँ पर नियंत्रण रखते हैँ और सब को समान भाव से देखते हैँ. वे मुझे ही पाते हैँ. वे लोग सब प्राणियोँ के कल्याण के काम करते हैँ.
क्लेशोऽधिकतरस् तेषाम् अव्यक्तासक्त-चेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर् दुःखं देहवद्भिर् अवाप्यते ॥५॥
निराकार मेँ चित्त लगाने वालोँ को कुछ अधिक कष्ट उठाना पड़ता है – क्योँ कि शरीरधारियोँ के लिए शरीरहीन अस्तित्व को समझ पाना आसान नहीँ है.
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥६॥
और जो लोग अपने सारे कर्म मुझ मेँ छोड़ देते हैँ, अपना मन मुझ मेँ लगाए रखते हैँ, मेरे सिवा किसी और का ध्यान नहीँ करते, निरंतर मेरा चिंतन और पूजन करते हैँ…
तेषाम् अहं समुद्धर्ता मृत्यु-संसार-सागरात् ।
भवामि न चिरात् पार्थ मय्यावेशित-चेतसाम् ॥७॥
…पार्थ, अपने उन भक्तोँ को, जिन की चेतना मुझ मेँ ही लगी है, मैँ शीघ्र ही मृत्यु से भरे इस संसार सागर के पार उतार देता हूँ.
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥८ ॥
अपना मन केवल मुझ मेँ लगा दे. अपनी बुद्धि मुझ मेँ लगा दे. इस के बाद तू मुझ मेँ ही रहेगा – इस मेँ शक नहीँ है.
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।
अभ्यास-योगेन ततो माम् इच्छाप्तुं धनञ्जय ॥९॥
अगर तू अपना मन मुझ मेँ लगा कर उसे स्थिर नहीँ रख सकता तो, अभ्यास कर. अभ्यास योग द्वारा तू मुझे पाने की इच्छा कर.
अभ्यासेऽप्य् असमर्थोऽसि मत्कर्म-परमो भव ।
मदर्थम् अपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिम् अवाप्स्यसि ॥१०॥
अगर तू अभ्यास योग भी न कर सके तो अपने सारे कर्म मुझे समर्पित कर दे. अपने कर्म मुझे दे कर भी तुझे सिद्धि मिल जाएगी.
अथैतद् अप्य् अशक्तोऽसि कर्तुं मद् योगम् आश्रितः ।
सर्व-कर्म-फल-त्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥११॥
यदि तू यह भी न कर सके, तो मेरी प्राप्ति के लिए योग की शरण मेँ आ. अपनी आत्मा को जीत, और सब कर्मोँ के फल को त्याग दे.
श्रेयो हि ज्ञानम् अभ्यासाज् ज्ञानाद् ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात् कर्म-फल-त्यागस् त्यागाच्छान्तिर् अनन्तरम् ॥१२॥
अभ्यास से ज्ञान अच्छा है. ज्ञान से ध्यान बेहतर है. ध्यान से बढ़ कर है कर्मोँ के फलोँ का त्याग. यह त्याग करने पर तत्काल शांति मिलती है.
अद्धेष्टा सर्व-भूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः सम-दुःख-सुखः क्षमी ॥१३॥
मेरा वह भक्त मुझे प्यारा है –
जो द्वेष नहीँ करता.
जो सब भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ का मित्र है.
जो सब पर करुणा करता है.
जो निर्मम है – जिसे किसी से मोह, अपनापन, नहीँ है.
जो निरहंकार है – जिस मेँ ‘मैँ’ नहीँ है, जो अपने को कर्मोँ का कर्ता नहीँ मानता.
जो दुःख और सुख को एक समान समझता है.
जो क्षमा से भरा है…
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ-निश्चयः ।
मय्यर्पित-मनो-बुद्धिर् यो मदभक्तः स मे प्रियः ॥१४॥
मेरा वह भक्त मुझे प्यारा है –
जो संतोषी है.
जो सदा योगी है.
जिस ने आत्मा को जीत लिया है.
जो इरादे का पक्का है.
जिस ने अपना मन और बुद्धि मुझे अर्पित कर दिए हैँ.
यस्मान् नोद्विजते लोको लोकान् नोद्विजते च यः ।
हर्षामर्ष-भयोद्वेगैर् मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥१५॥
और मुझे प्यारा वह है –
जिस से लोगोँ को बेचैनी नहीँ होती और जो लोगोँ से बेचैन नहीँ होता.
जिसे हर्ष नहीँ है.
जो ईर्ष्या नहीँ करता.
और जो भय और उत्तेजना से मुक्त है.
अनपेक्षः शुचिर् दक्ष उदासीनो गत-व्यथः ।
सर्वारम्भ-परित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रिय ॥१६॥
मेरा वह भक्त मुझे प्यारा है –
जो अनपेक्ष है – जिसे कोई अपेक्षा नहीँ है, जो किसी से कुछ नहीँ चाहता.
जो शुचितापूर्ण है – मन से शुद्ध है, स्वच्छ है, साफ़ है.
जो दक्ष है – कुशल है, अपने काम मेँ होशियार है.
जो उदासीन है – जो असंपृक्त है, तटस्थ है.
जिसे व्यथा नहीँ होती, दुःख नहीँ व्यापता.
जिस ने अपने सब आरंभ – प्रयास और कर्म – मुझे सौँप दिए हैँ.
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभ-परित्यागी भक्तिमान् यः स मे प्रियः ॥१७॥
मुझे प्यारा वह है –
जो न ख़ुश होता है, न दुःख मनाता है.
जो न अफ़सोस करता है, न इच्छा करता है.
जिस ने शुभ अशुभ को, अच्छे बुरे फल को, त्याग दिया है.
जो भक्ति से भरा है.
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानाऽऽपमानयोः ।
शीतोष्ण-सुख-दुःखेषु समः सङ्ग-विवर्जितः ॥१८॥
मुझे वह प्यारा है –
जो शत्रु व मित्र मेँ, मान और अपमान मेँ समान भाव रखता है.
जो सर्दी और गरमी को, सुख और दुःख को बराबर मानता है.
जिस ने संग को – आसक्ति को, लगाव को – त्याग दिया है…
तुल्य-निन्दा-स्तुतिर् मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेतः स्थिर-मतिर् भक्तिमान् मे प्रियो नरः ॥१९॥
निंदा और प्रशंसा जिस के लिए एक समान हैँ,
मौन रह कर जो मनन करता है,
कर्म का जो भी परिणाम हो जो उस मेँ संतुष्ट रहता है,
जो अनिकेत है – जो किसी घर से बँधा नहीँ है,
जिस की मति स्थिर है,
जो भक्ति से भरा है,
– वह मनुष्य मुझे प्यारा है.
ये तु घर्म्यामृतम् इदं यथोक्तं पर्युपासते ।
श्रद्दधाना मत्पर मा भक्तास् तेऽतीव मे प्रियाः ॥२०॥
वे भक्त मुझे बहुत प्यारे हैँ –
जो मेरे इस अमृतमय धर्मोपदेश की पूजा करते हैँ.
जिन के मन मेँ श्रद्धा है.
जो मेरी ओर उन्मुख हैँ.
इति श्रीमद्-भगवद्-गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्म-विद्यायां योग-शास्त्रे श्री-कृष्णार्जुन-संवादे भक्ति-योगो नाम द्वादशोऽध्यायः
यह था श्रमीद भगवद गीता उपनिषद ब्रह्म विद्या योग शास्त्र श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मेँ भक्ति योग नाम का बारहवाँ अध्याय
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