श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद
ब्रह्म विद्या योग शास्त्र
अध्याय 5
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अनुवादक
अरविंद कुमार
इंटरनैट पर प्रकाशक
अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.
कालिंदी कालोनी
नई दिल्ली
पञ्चमोऽध्यायः
कर्म संन्यास योग
अर्जुनोवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर् योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोर् एकं तन् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥१॥
अर्जुन ने कहा
कृष्ण, आप ने संन्यास की और फिर कर्म योग की प्रशंसा की. इन मेँ से कौन एक हितकारी है – निश्चित कर के मुझे बताइए.
श्रीभगवान् उवाच
संन्यासः कर्म-योगश् च निःश्रेयसकराव् उभौ ।
तयोस् तु कर्म-संन्यासात् कर्म-योगो विशिष्यते॥२॥
श्री भगवान ने कहा
संन्यास और कर्म योग दोनोँ ही कल्याण कारक हैँ. लेकिन उन दोनोँ मेँ संन्यास से बेहतर कर्म योग है.
ज्ञेयः स नित्य-संन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात् प्रमुच्यते ॥३॥
नित्य संन्यासी उसे समझना चाहिए जो न तो दुःखोँ से दूर रहना चाहता है और न सुखोँ की इच्छा करता है. महाबाहु, निर्द्वंद्व मनुष्य आसानी से बंधनोँ से छूट जाता है.
साङ्ख्य-योगौ प्रथग् बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकम् अप्य् आस्थितः सम्यग् उभयोर् विन्दते फलम् ॥४॥
सांख्य और योग को केवल नादान बच्चे अलग कहते हैँ, पंडित नहीँ. इन मेँ से एक मेँ भी अच्छी तरह स्थित मनुष्य को दोनोँ के फल मिलते हैँ.
यत् साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद् योगैर् अपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥५॥
सांख्य का पालन कर के जो स्थान मिलता है, योग का अनुसरण कर के भी वहीँ पहुँचते हैँ. सांख्य और योग को जो एक समझने वाला व्यक्ति समझदार है.
संन्यासस् तु महाबाहो दुःखम् आप्तुम् अयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर् ब्रह्म नचिरेणाऽऽधिगच्छति ॥६॥
महाबाहु, योग के बिना संन्यास को भी पाना कठिन है, जब कि योगी मुनि को ब्रह्म शीघ्र मिल जाता है.
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्व-भूतात्म-भूतात्मा कुर्वन्न् अपि न लिप्यते ॥७॥
योगी, शुद्धात्मा, आत्मविजेता और जितेंद्रिय मनुष्य उस परमात्मा मेँ समा जाता है जो सारे भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ की आत्मा है. ऐसा मनुष्य कर्म कर के भी लिप्त नहीँ होता.
नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।
पश्यञ् शृण्वन् स्पर्शञ् जिघ्रन् अश्नन् गच्छन् स्वपञ् श्वसन् ॥८॥
तत्त्व ज्ञानी योगी को यही मानना चाहिए कि मैँ कुछ भी नहीँ कर रहा हूँ. यह जो मैँ देख रहा हूँ, सुन रहा हूँ, छू रहा हूँ, सूँघ रहा हूँ, खा रहा हूँ, सो रहा हूँ, साँस ले रहा हूँ…
प्रलपन् विसृजन् गृह्णन्न् उन्मिषन् निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीऽऽन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते इति धारयन् ॥९॥
बात कर रहा हूँ, विसर्जित कर रहा हूँ, ले रहा हूँ, आँख खोल और बंद कर रहा हूँ… यह सब मैँ नहीँ कर रहा, बल्कि मेरी इंद्रियाँ अपने अपने विषयोँ के साथ व्यवहार कर रही हैँ.
ब्रह्मण्य् आधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्म-पत्रम्-इवाम्भसा ॥१०॥
जो अपने सब कर्म ब्रह्म को अर्पित कर के और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पाप से लिप्त नहीँ होता, जैसे कमल के पत्ते को पानी नहीँ लगता.
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैर् इन्द्रियैर् अपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्म-शुद्धये ॥११॥
योगी जन शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियोँ मात्र से कर्म करते हैँ. आत्मा की शुद्धि के लिए वे कर्म से आसक्त नहीँ होते.
युक्तः कर्म-फलं त्यक्त्वा शान्तिम् आप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः काम-कारेण फले सक्तो निबध्यते ॥१२॥
योगी कर्म के फल को त्याग देता है. उसे नैष्ठिकी शांति – परम शांति – मिलती है. जो योगी नहीँ है वह कामनाओँ से भरा होता है और कर्म के फल से चिपका होता है. इस लिए वह बँध जाता है.
सर्व-कर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नव-द्वारे पुरे देही नैव कुर्वन् न कारयन् ॥१३॥
सब कर्मोँ को सच्चे मन से संयम के द्वारा त्याग कर योगी की आत्मा नौ दरवाज़ोँ वाले इस नगर मेँ, इस शरीर मेँ, बड़े सुख से ऐसे रहती है मानो वह न कुछ करती हो, न करवाती हो.
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्म-फल-संयोगं स्वभावस् तु प्रवर्तते ॥१४॥
ये जो लोक के तमाम कर्म हैँ – इन की रचना प्रभु नहीँ करता. न ही वह कर्म और उस के फल के परस्पर संबंध की रचना करता है. यह सब तो स्वभाव का, प्रकृति का, नियम है और उसी के द्वारा प्रवर्तित होता है.
नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥१५॥
विभु – परम शासक, परमात्मा – न किसी का पाप लेता है न पुण्य. अज्ञान ने ज्ञान को ढँक रखा है, इस लिए सब जीव भ्रमित हो रहे हैँ.
ज्ञानेन तु तद् अज्ञानं येषां नाशितम् आत्मनः ।
तेषाम् आदित्यवज् ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥१६॥
अज्ञान को जो लोग ज्ञान से काट डालते हैँ, उन के लिए ज्ञान सूर्य जैसा चमचमा उठता है और ‘उस’ के दर्शन करा देता है, जो परे है.
तद् बुद्धयस् तदात्मानस् तन्निष्ठास् तत्परायणाः ।
गच्छन्त्य् अपुनरावृत्तिं ज्ञान-निर्धूत-कल्मषाः ॥१७॥
जिन की बुद्धि ‘उस’ का रूप हो गई है, जिन की अत्मा ‘उस’ मेँ रम गई है, जिन की निष्ठा, आस्था, विश्वास ‘उस’ मेँ हैँ, जो ‘उस’ की ओर उन्मुख हैँ, उन्हेँ आवागमन के चक्र से मुक्ति मिलती है. उन के पापोँ को ज्ञान ने नष्ट कर दिया है.
विद्या-विनय-सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः सम-दर्शिनः ॥१८॥
चाहे कोई विद्वान और विनयी ब्राह्मण हो, या गाय हो, हाथी हो, कुत्ता हो या चांडाल हो – इन सब को सच्चे ज्ञानी पंडित एक समान देखते हैँ.
इहैव तैर् जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥१९॥
उन लोगोँ ने इहलोक मेँ, इस जीवन मेँ, ही सृष्टि को जीत लिया है. उन का मन साम्य भाव मेँ स्थित है. वे यह मानते हैँ कि सब एक बराबर हैँ. निर्दोष ब्रह्म सब मेँ समान भाव से विद्यमान है. इस लिए ज्ञानी जन ब्रह्म मेँ स्थित हैँ.
न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य नोद्विजेत् प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिर-बुद्धिर् असम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥२०॥०
मनचाहा पा कर मनुष्य को हर्षित नहीँ होना चाहिए और अनचाहा पा कर दुःखी नहीँ होना चाहिए. ऐसे मनुष्य की बुद्धि स्थिर है. वह भ्रमित नहीँ है. वह ब्रह्म को जानता है. वह ब्रह्म मेँ स्थित है.
बाह्य-स्पर्शेष्व् असक्तात्मा विन्दत्य् आत्मनि यत् सुखम् ।
स ब्रह्म-योग-युक्तात्मा सुखम् अक्षयम् अश्नुते ॥२१॥
बाह्य स्पर्शोँ से अनासक्त होने पर भीतर का सुख मिलता है. ऐसा ब्रह्म योगी मनुष्य अक्षय सुख भोगता है.
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःख-योनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥२२॥
बाह्य स्पर्श से मिलने वाले भोग दुःख को ही जन्म देते हैँ. इन स्पर्शोँ का आरंभ और अंत है – वे क्षणभंगुर हैँ. कौंतेय, ज्ञानी उन मेँ रमता नहीँ.
शक्नोतीऽऽहैव यः सोढुं प्राक् शरीर-विमोक्षणात् ।
काम-क्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥२३॥
इस शरीर का नाश होने से पहले ही, जीते जी, जो काम और क्रोध से होने वाले आवेगोँ को सह सकता है, वह पुरुष योगी है और सुखी है.
योऽन्तः सुखोऽन्तरारामस् तथान्तर्-ज्योतिर् एव यः ।
स योगी ब्रह्म-निर्वाणं ब्रह्म-भूतोऽधिगच्छति ॥२४॥
जो अंदर से सुखी होता है. जो अंदर ही प्रसन्न होता है, अंदर ही रमता है. जिस के अंदर प्रकाश फैला होता है. ऐसे योगी को ब्रह्म निर्वाण मिलता है. वह स्वयं ब्रह्म बन जाता है.
लभन्ते ब्रह्म-निर्वाणम् ऋषयः क्षीण-कल्मषाः ।
छिन्न-द्वैधां यतात्मानः सर्व-भूत-हिते रताः ॥२५॥
ब्रह्म निर्वाण पाने वाले ऋषियोँ के पाप नष्ट हो जाते हैँ. उन की दुविधा कट जाती है. वे अपने की जीत चुके होते हैँ. वे सब प्राणियोँ के कल्याण कार्य मेँ लगे रहते हैँ.
काम-क्रोध-वियुक्तानां यतीनां यत-चेतसाम् ।
अभितो ब्रह्म-निर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥२६॥
यति संन्यासी काम और क्रोध से कटे होते हैँ. वे अपनी चेतना को जीत चुके होत हैँ. उन्हेँ हर जगह ब्रह्म निर्वाण ही है क्योँ कि वे आत्मज्ञानी होते हैँ.
स्पर्शान् कृत्वा बहिर् बाह्यांश् चक्षुश् चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तर-चारिणौ ॥२७॥
(मोक्ष का खोजी मनुष्) बाह्य स्पर्शोँ को बाहर कर देता है… आँखोँ को, दृष्टि को, भँवोँ के बीच मेँ केंद्रित कर लेता है… नाक मेँ विचरण करने वाली प्राण और अपान वायुओँ को साध लेता है…
यतेन्द्रिय-मनो-बुद्धिर् मुनिर् मोक्ष-परायणः ।
विगतेच्छा-भय-क्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥२८॥
इंद्रियोँ को और मन और बुद्धि को जीत लेता है… मोक्ष का खोजी मुनि इच्छा, भय और क्रोध को दूर कर देता है. वह मुनि हमेशा मुक्त है.
भोक्तारं यज्ञ-तपसां सर्व-लोक-महेश्वरम् ।
सुहृदं सर्व-भूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिम् ऋच्छति ॥२९॥
सब यज्ञोँ और तपोँ को भोगने वाला मैँ हूँ. सारे लोकोँ का महेश्वर मैँ हूँ. सब प्राणियोँ का सखा और शुभ चिंतक मैँ हूँ. मुझे इस प्रकार समझ लेने पर शांति मिलती है.
इति श्रीमद्-भगवद्-गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्म-विद्यायां योग-शास्त्रे श्री-कृष्णार्जुन-संवादे कर्म-संन्यास-योगो नाम पञ्चमोऽध्यायः
यह था श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद ब्रह्म विद्या योग शास्त्र श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मेँ कर्म संन्यास योग नाम का पाँचवाँ अध्याय
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