श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद
ब्रह्म विद्या योग शास्त्र
अध्याय 4
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अनुवादक
अरविंद कुमार
इंटरनैट पर प्रकाशक
अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.
कालिंदी कालोनी
नई दिल्ली
चतुर्थोऽध्यायः
ज्ञान कर्म संन्यास योग
श्रीभगवान् उवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम ।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुर् इक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥१॥
श्री भगवान ने कहा
कभी व्यय न होने वाला यह योग मैँ ने पहले विवस्वान सूर्य को बताया था. सूर्य ने यह अपने बेटे मनु को बताया. मनु ने यह अपने पुत्र इक्ष्वाकु को बताया.
एवं परम्परा-प्राप्तम् इमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥२॥
परंपरा से यह योग राजर्षियोँ के पास सुरक्षित रहा. लेकिन बहुत काल से यह योग इस लोक मेँ नष्ट हो गया था.
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतद् उत्तमम् ॥३॥
यह वही पुराना योग आज मैँ ने तुझे बताया. तू मेरा भक्त है और सखा है. यह योग रहस्यपूर्ण और उत्तम है.
अर्जुनोवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथम् एतद् विजानीयां त्वम् आदौ प्रोक्तवान् इति ॥४॥
अर्जुन ने कहा
आप का जन्म बाद मेँ हुआ. विवस्वान सूर्य का जन्म पहले हुआ था. यह कैसे जानूँ कि आरंभ मेँ आप ने ही यह कहा था?
श्रीभगवान् उवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्य् अहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥५॥
श्री भगवान ने कहा
अर्जुन, मेरे बहुत सारे जन्म हो चुके हैँ, और तेरे भी. मैँ उन सब को जानता हूँ, तू नहीँ जानता.
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानाम् ईश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वाम् अधिष्ठाय सम्भवाम्य् आत्म-मायया ॥६॥
मैँ जन्महीन, विकारहीन, परिवर्तनहीन हूँ, अव्यय हूँ. मैँ सब भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ का ईश्वर हूँ, स्वामी हूँ. प्रकृति को अधीन कर के मैँ अपनी माया के द्वारा बार बार होता हूँ.
यद यदा हि धर्मस्य ग्लानिर् भवति भारत ।
अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तद् आत्मानं सृजाम्य् अहम् ॥७॥
भरत वंशी अर्जुन, जब जब धर्म घटता है और अधर्म बढ़ता है, तब तब मैँ अपने आप को फिर से बनाता हूँ.
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्म-संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥८॥
भलोँ की रक्षा करने के लिए, बुरोँ का नाश करने के लिए, और धर्म की स्थापना के लिए मैँ युग युग मेँ होता रहूँगा.
जन्म कर्म च मे दिव्यम् एवम् यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति माम् एति सोऽर्जुन ॥९॥
मेरा जन्म और मेरा कर्म दोनोँ दिव्य हैँ. मेरे इस तत्त्व को जो अच्छी तरह जानने वाला जब शरीर त्यागता है, तो उस का पुनर्जन्म नहीँ होता. वह मुझ मेँ आ जाता है.
वीत-राग-भय-क्रोधा मन्मया माम् उपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञान-तपसा पूता मद्-भावम् आगताः ॥१०॥
राग, भय और क्रोध को त्याग कर बहुत से लोग मेरी शरण मेँ आ चुके हैँ. वे ज्ञान के तप से पवित्र हो गए, और मुझ मेँ लीन हो गए.
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस् तथैव भजाम्य् अहम् ।
मम र्वत्माऽऽनुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥११॥
जो मेरे पास जिस भाव से आते हैँ, उसी भाव से मैँ उन की भक्ति करता हूँ – वैसे ही मैँ उन्हेँ देता हूँ. पार्थ, हर प्रकार से मनुष्य मेरे ही मार्ग पर आते हैँ.
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर् भवति कर्मजा ॥१२॥
कर्मोँ की सिद्धि के लिए लोग देवताओँ के श्रम करते हैँ. कर्मोँ की वह सिद्धि उन्हेँ मनुष्य लोक मेँ शीघ्र ही मिल जाती है.
चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुण-कर्म-विभागशः ।
तस्य कर्तारम् अपि मां विद्धय् अकर्तारम् अव्ययम् ॥१३॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम के ये जो चार वर्ण हैँ, इन की रचना मैँ ने गुण और कर्म के विभाजन से की है. मैँ ने इन की रचना तो की है, फिर भी तू यह समझ कि मैँ न तो कुछ करता हूँ, न मुझ मेँ कोई परिवर्तन होता है.
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्म-फले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर् न स बध्यते ॥१४॥
न कर्म मुझे लीपते हैँ, न कर्म का फल पाने की मेरी कोई लालसा है. मुझे इस प्रकार जो अच्छी तरह जानता है, वह कर्मोँ से नहीँ बँधता.
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैर् अपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात् त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥१५॥
यह जान कर मुमुक्षुओँ ने – मोक्ष की इच्छा करने वाले ज्ञानियोँ ने – पूर्व काल मेँ कर्म किया था. इस लिए तू उसी तरह कर्म कर जैसे पूर्वजोँ ने पहले किया था.
किं कर्म किम् अकर्मेति कवयोऽप्य् अत्र मोहिताः ।
तत् ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज् ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥१६॥
कर्म क्या है? अकर्म क्या है? यह तय कर पाना विचारकोँ के लिए भी भ्रामक हो जाता है. इस लिए मैँ तुझे बताता हूँ कि कर्म क्या है. यह जान कर तू अशुभ से बच जाएगा.
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश् च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥१७॥
कर्म को जानना चाहिए. साथ ही विपरीत कर्म को और अकर्म को भी समझना चाहिए. कर्म की गति बहुत गहरी है.
कर्मण्य् अकर्म यः पश्येद् अकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्न-कर्मकृत् ॥१८॥
जो कर्म मेँ अकर्म देखता है और अकर्म मेँ जिसे कर्म दिखाई देता है, वह मनुष्योँ मेँ बुद्धिमान है. यह योगी है. उस ने सब कर्म कर लिया है.
यस्य सर्वे समारम्भाः काम-सङ्कल्प-वर्जिताः ।
ज्ञानाग्नि-दग्ध-कर्माणं तम् आहुः पण्डितं बुधाः ॥१९॥
समझदार लोग पंडित ज्ञानी उसे कहते हैँ जो अपने सब समारंभों मेँ से, उद्यमोँ मेँ से, सब इच्छाओँ और संकल्पोँ को, इरादोँ और कुलाबोँ को, सब मनसूबोँ को निकाल देता है. उस के सब कर्म ज्ञान की अग्नि मेँ जल चुके होते हैँ.
त्यक्त्वा कर्म-फलासङ्गं नित्य-तृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्य् अभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित् करोति सः ॥२०॥
कर्म फल मेँ आसक्ति को त्याग कर सदा तृप्त – संतुष्ट – रहने वाला निराश्रित आदमी कर्मोँ मेँ लगा होने पर भी कुछ नहीँ करता.
निराशीर् यत-चित्तात्मा त्यक्त-सर्व-परिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन् नाप्नोति किल्बिषम् ॥२१॥
जिसे कोई आशा, अपेक्षा, उम्मीद, तवक्को नहीँ होती. जो अपने चित्त और आत्मा को जीत चुका होता है. जो सारे परिग्रह को त्याग चुका होता है – जो आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीँ करता. जो केवल शरीर से कर्म करता है. ऐसे व्यक्ति को पाप नहीँ लगता.
यद्-ऋच्छा-लाभ-सन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धाव् असिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥२२॥
कर्म और प्रयास का परिणाम जो भी निकले, उसे वह संतोष के साथ स्वीकार करता है. वह सुख और दुःख आदि द्वंद्वोँ से ऊपर उठ चुका होता है. वह ईर्ष्या नहीँ करता. कर्म की सिद्धि और असिद्धि – सफलता और असफलता – दोनोँ उस के लिए एक समान होती हैँ. कर्म कर के भी ऐसा मनुष्य नहीँ बँधता.
गत-सङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानाऽऽवस्थित-चेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥२३॥
मन आसक्तिरहित और मुक्त हो. चेतना ज्ञान मेँ स्थित हो. आचरण यज्ञ के लिए हो… ऐसे मनुष्य का सारा कर्म विलीन हो जाता है.
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म-कर्म-समाधिना ॥२४॥
ब्रह्म हवन अर्पण है, सामग्री है, अग्नि है, उस मेँ सामग्री डालने वाला होता है. ब्रह्म कर्म है. कर्म की समाधि द्वारा व्यक्ति जहाँ पहुँचेगा वह भी ब्रह्म है.
दैवम् एवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्मागनाव् अपरे यज्ञं यज्ञेनैवोऽऽपजुह्वति ॥२५॥
कुछ योगी देवताओँ के निमित्त यज्ञ आदि करते हैँ. और कुछ योगी ब्रह्म रूपी अग्नि मेँ यज्ञ के द्वारा यज्ञ को ही होम देते हैँ – वे अपने सब यज्ञकर्म ब्रह्म को समर्पित कर देते हैँ.
श्रोत्रादीनीऽऽन्द्रियाण्य् अन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन् विषयान् अन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥२६॥
कुछ लोग कान आदि इंद्रियोँ को संयम रूपी अग्नियोँ मेँ झोँक देते हैँ. और कुछ लोग हैँ जो इंद्रियोँ के शब्द आदि विषयोँ को इंद्रिय रूपी अग्नियोँ मेँ झोँक देते हैँ.
सर्वाणीन्द्रिय-कर्माणि प्राण-कर्माणि चापरे ।
आत्म-संयम-योगाग्नौ जुह्वति ज्ञान-दीपिते ॥२७॥
कुछ लोग अपनी सब इंद्रियोँ के कर्मोँ के साथ साथ प्राण के श्वास प्रश्वास आदि कर्मोँ को भी योगाग्नि मेँ होम देते हैँ. ऐसे लोग ज्ञान की चिंगारी से आत्मसंयम रूपी योग की अग्नि को प्रज्वलित करते हैँ.
द्रव्य-यज्ञास् तपो-यज्ञा योग-यज्ञास् तथापरे ।
स्वाध्याय-ज्ञान-यज्ञाश् च यतयः संशित-व्रताः ॥२८॥
कोई धन संपत्ति के यज्ञ करते हैँ. कोई तप और साधना के यज्ञ करते हैँ. कोई योग के यज्ञ करते हैँ. प्रखर व्रतोँ के साधक कई यति संन्यासी स्वाध्याय और ज्ञान रूपी यज्ञ करते हैँ.
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापान-गती रुद्ध्वा प्राणायाम-परायणाः ॥२९॥
…प्राण और अपान वायुओँ को साध कर कुछ लोग अपान को प्राण मेँ और प्राण को अपान मेँ झोँक देते हैँ. उन की निष्ठा प्राणायाम मेँ होती है.
अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञ-विदो यज्ञ-क्षपित-कल्मषाः ॥३०॥
नियत आहार आदि भोग करने वाले कुछ अन्य योगी प्राणोँ मेँ प्राणोँ को होम देते हैँ. प्राणयज्ञ को जानने वाले इन लोगों ने अपने पापोँ को यज्ञ की अग्नि मेँ होम दिया है.
यज्ञ-शिष्टामृत-भुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्य् अयज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥३१॥
जो लोग यज्ञ से बचा अमृतमय प्रसाद पाते हैँ उन्हेँ सनातन ब्रह्म मिलता है. कुरुश्रेष्ठ, जो यज्ञ नहीँ करते, उन्हेँ यह लोक भी नहीँ मिलता, परलोक की तो बात ही क्या है?
एवं बहु-विधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान् विद्धि तान् सर्वान् एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥३२॥
ब्रह्म प्राप्ति के लिए लोग अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैँ. वे सब यज्ञ केवल कर्म द्वारा किए जा सकते हैँ. यह जान कर तुझे मोक्ष मिलेगा.
श्रेयान् द्रव्यमयाद् यज्ञाज् ज्ञान-यज्ञः परन्तप ।
सर्वंर्ं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥३३ ।
धन संपत्ति की सहायता से जो भौतिक यज्ञ किए जाते हैँ, परंतप, उन से अच्छा ज्ञान का यज्ञ है. पार्थ, संसार के जितने भी कर्म हैँ, उन की पराकाष्ठा ज्ञान है.
तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस् तत्त्व-दर्शिनः ॥३४॥
ज्ञान की प्राप्ति के लिए तू तत्त्वज्ञानियोँ को झुक कर प्रणाम कर, उन की सेवा कर, उन से प्रश्न कर. वे तुझे ज्ञान का उपदेश देँगे.
यज् ज्ञात्वा न पुनर् मोहम् एवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्य् अशेषेण द्रक्ष्यस्य् आत्मन्य् अथो मयि ॥३५॥
इस ज्ञान को प्राप्त कर के फिर कभी तुझे भ्रांति नहीँ होगी. पांडव, इस ज्ञान से तू सब भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ को पहले अपने मेँ और फिर मुझ मेँ देखने लगेगा.
अपि चेद् असि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञान-प्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥३६॥
संसार मेँ जितने पापी हैँ, उन मेँ सब से बड़ा पापी भी अगर तू है, तो ज्ञान की इस नौका से तू पापोँ के सागर को पार कर लेगा.
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर् भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्व-कर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥३७॥
जलती आग ईँधन को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञान की अग्नि सारे कर्मोँ को भस्म कर डालती है.
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रम् इह विद्यते ।
तत् स्वयं योग-संसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥३८॥
सचमुच ज्ञान जैसा कोई अन्य पावन कर्ता इस संसार मेँ नहीँ है. ज्ञान योग मेँ सिद्धि पाने के पाद समय आने पर मनुष्य अपने को आत्मज्ञान मिल जाता है.
श्रद्धावाँल् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम् अचिरेणाऽऽधिगच्छति ॥३९॥
ज्ञान श्रद्धावान, खोजी और जितेंद्रिय मनुष्य को मिलता है. ज्ञान मिलने पर शीघ्र ही परम शांति मिलती है.
अज्ञश् चाश्रद्दधानश् च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥४०॥
अज्ञानी, श्रद्धाहीन और दुविधाग्रस्त आदमी नष्ट हो जाता है. दुविधाग्रस्तोँ के लिए न यह लोक है, न परलोक है, न सुख.
योग-संन्यस्त-कर्माणं ज्ञान-सञ्छिन्न-संशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥४१॥
आत्मज्ञानी मनुष्य योग की साधना के द्वारा कर्मोँ से संन्यास ले चुका होता है. ज्ञान के द्वारा वह अपने संशय को, अपनी दुविधाओँ को काट देता है. धनंजय, ऐसे आत्मज्ञानी को कर्म नहीँ बाँधते.
तस्माद् अज्ञान-सम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनाऽऽत्मनः ।
छित्त्वैनं संशयं योगम् आतिष्ठोऽत्तिष्ठ भारत ॥४२॥
अज्ञान ने तेरे हृदय मेँ संशय – संदेह, दुविधा – पैदा कर दी है. तू उसे ज्ञान की तलवार से काट डाल. योग मेँ स्थित हो. भारत, उठ खड़ा हो.
इति श्रीमद्-भगवद्-गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्म-विद्यायां योग-शास्त्रे श्री-कृष्णार्जुन-संवादे ज्ञान-कर्म-संन्यास-योगो नाम चतुर्थोऽध्याय
यह था श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद ब्रह्म विद्या योग शास्त्र श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मेँ ज्ञान कर्म संन्यास योग नाम का चौथा अध्याय
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