न जाने क्योँ, शायद उस के व्यक्तित्व मेँ ही कुछ ऐसा था कि वह शुरू से भीम रहा, तुम रहा, आप कभी था ही नहीँ, न बन पाया
यह कहना अजीब लग सकता है कि भीमसेन उस आदमी का नाम था जो हमेशा बेचैन रहता था. ऊपर से तो वह शांत ही रहता था, बातचीत हमेशा शांत स्वर मेँ करता था. किसी ने कभी उसे किसी पर कोप उतारते, कोसते नहीँ देखा. फिर बेचैन? हाँ, हमेशा बेचैन, अशांत, कुलबुलाता, विकल, उतावला, वर्तमान से असंतुष्ट. जी, हाँ, लगभग, लगभग क्योँ, बिल्कुल वैसा जैसा गोएथे (और उस से पहले मारलो) का फ़ाउस्ट… जिस की आकांक्षाएँ कभी पूरी नहीँ हो सकतीँ… केवल एक अंतर के साथ… फ़ाउस्ट हर ऐश्वर्य का स्वामी बन जाता है, फिर भी असंतुष्ट है. भीमसेन से हर ऐश्वर्य हमेशा दूर रहा, लेकिन उस की आकांक्षाएँ फ़ाउस्ट की ही तरह एक के बाद दूसरी उपलब्धि की ओर बढ़ती रहीँ.
Figure 1भीम सेन
भीमसेन से मेरी मुलाक़ात, जानपहचान, अपनापन सरिता-कैरेवान पत्रिकाओँ के संपादन विभाग मेँ उस के आ जाने पर हुआ 1959-60 के आसपास. (न जाने क्योँ, शायद उस के व्यक्तित्व मेँ ही कुछ ऐसा था कि वह शुरू से भीम रहा, तुम रहा, आप कभी था ही नहीँ, न बन पाया). तब मैँ हिंदी मेँ नहीँ, अँगरेजी मेँ कैरेवान पत्रिका के संपादन से सीधा जुड़ा था. साथ ही विश्वनाथ जी ने मेरे कंधोँ पर दिल्ली प्रैस के सभी प्रकाशनोँ का भार डाल रखा था. हिंदी का काम सीधा देखने की ज़िम्मेदारी खरे पर थी.
भीमसेन आया था हिंदी संपादन विभाग मेँ. जहाँ तक मेरी याद है वह मुख्यतः नवप्रकाशित मुक्ता से अधिक संबद्ध था. पतला दुबला सीँकिया नौजवान. अपने नाम का बिल्कुल उलटा. बिजनौर नजीबाबाद का रहने वाला. यहीँ पर यह भी कह दूँ कि सरिता से, कहेँ तो दिल्ली प्रैस से, जो एक बार गया, उसे कभी वापसी नहीँ मिली. भीम तीन बार गया, तीन बार आया. कभी गया अपनी मर्जी से साहित्यिक आकांक्षाओँ योजनाओँ को पूरा करने, कभी अन्य कारणोँ से. एक बार तो उसे वापस बुलाया भी गया. यह उस की क्षमताओँ को दिल्ली प्रैस का सलाम ही था.
भीम काम मेँ पूरा मुस्तैद था. भीम को साहित्य मेँ, लेखन मेँ, पठन मेँ उच्च कोटि की पहचान थी. उस का भाषा शैली, वर्तनी, साहित्य पर निजी कोई भी मत हो, जब तक दिल्ली प्रैस मेँ रहा, वहाँ की नीतियोँ का पूरी निष्ठा से पालन करता रहा. किसी भी प्रकाशन संस्थान मेँ यह किसी कर्मी का सब से बड़ा गुण माना जाता है.
Figure 2 भीम सेन ने दिल्ली प्रैस को और हिंदी को चित्रकार हरिपाल त्यागी का वरदान दिया
भीम ने ही दिल्ली प्रैस को और हिंदी को चित्रकार हरिपाल त्यागी का वरदान दिया. मुक्ता मेँ संस्कृत नाटक मृच्छकटिकम् (शूद्रक) का हमारे मित्र स्वर्गीय ललित सहगल कृत अविकल अनुवाद छपना था. हम लोग चाहते थे उस के हर पृष्ठ पर कुछ कुछ अजंता शैली मेँ इलस्ट्रेशन के रूप मेँ छोटे छोटे रेखाचित्र छापे जाएँ. भीम ने बड़े उत्साह से नाम सुझाया हरिपाल का. दोनोँ नए नए मित्र बने थे. बिजनौर नजीबाबाद के रहने वाले थे. हरिपाल भी भीम जैसा सीँकिया नौजवान निकला. दोनोँ मेँ ही उत्कृष्टता गहरे व्यापी थी. हरिपाल आया तो मैँ ने और खरे ने उस से पूछा तुम ऐसे चित्र बना लोगे? हरिपाल के बोलने से पहले ही भीम ने कहा– हाँ हाँ, क्योँ नहीँ! हरिपाल ने हामी भरी. उस ने जो चित्र बनाए वे पहली ही झलक मेँ सब को पसंद आए. (बाद मेँ, बहुत बाद मेँ, हरिपाल ने मुझे बताया कि उस से पहले उस ने वैसे चित्र कभी नहीँ बनाए थे. लेकिन हरिपाल उन चित्रोँ के कारण हर जगह जाना माना जाने लगा.)
जब भी भीम का चेहरा मेरे मन मेँ आता है तो साथ मेँ हरिपाल का चेहरा भी सिलुएट मेँ उभर आता है. दोनोँ का साथ ज़िक्र करना मेरी मजबूरी है, क्योँ कि इस के बाद अंत तक दोनोँ ने बहुत सारे काम साथ साथ किए.
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मैँ क़रोल बाग़ के देवनगर मेँ ब्लाक नंबर पाँच मेँ रहता था. कुछ ही दूरी पर भीम रहता था रहगड़ पुरे मेँ. कभी बहुत पहले क़रोल बाग़ बसाया गया था… चावड़ी बाज़ार आदि से हटा कर रहगड़ोँ चमारोँ को बसाने के लिए. रहगड़पुरा ही नहीँ देवनगर वग़ैरा सब मेँ चमड़े का काम करने वाले रहगड़ोँ की, जिन्हेँ दलित या पिछड़े वर्गोँ मेँ गिना जाता था और है, आबादी थी, जिस मेँ मध्यम वर्गीय उच्चजातीय लोग आ कर बसते जा रहे थे. सन 47 मेँ विभाजन के बाद वहाँ पाकिस्तान से आए पंजाबी बसते और छाते चले गए थे.
भीम जैसे लेखक का मन इन सब के बारे मेँ उत्सुक हो जाना स्वाभाविक ही था. उस ने रहगड़ोँ के बारे मेँ कुछ लिखा हो मुझे याद नहीँ. रहगड़पुरा और देव नगर से कुछ ही दूरी पर थी न्यू रोहतक रोड. वहाँ पर आनंद पर्वत तक जब तब यायावर गड़िया लुहार आ कर डेरा जमाते रहते थे. डेरा कहना ग़लत होगा. वे डेरा नहीँ बनाते. गाड़ियोँ पर ही चादर तान कर, उसे और कुछ दूरी तक फैला कर, वहीँ रहते और काम करते हैँ.
इन यायावरोँ का जीवन हम जैसे सभी घरबसिया लोगो के लिए उत्सुकता का विषय रहता था. सुबह सबेरे मैँ और मेरा पड़ोसी मित्र संतोष रोहतक रोड पर सैर के लिए जाते थे. गड़िया लुहारोँ की गतिविधि को देखने कहीँ देर तक रुक जाते थे. प्रातःकालीन दिनचर्या मेँ व्यस्त बड़े बूढ़े, नौजवान, बच्चे… कुछ लुहार तभी से भटिटयाँ गरमाने लगते थे, कुछ तैयारी मेँ होते. अकसर वे पास के ही नीमों से तोड़ कर दातुन कर रहे होते. औरतेँ परातों मेँ आटा गूँधने मेँ लगी होतीँ. इन की सजीव चित्रात्मक सी ज़िंदगी मेँ भीम और हरिपाल की रुचि कुछ गहरी ही जमी. फिर एक दिन दोनोँ ने सुंदर सी किताब दिखाई मुझे–गड़िया लुहारोँ की ज़िंदगी पर भीम के शब्द और हरिपाल के चित्रोँ वाली. वाह! एकबारगी मुँह से यही निकलता था. अब वह किताब मेरे पास नहीँ है. पता नहीँ उन दोनोँ के पास भी आख़िर तक रही या नहीँ. कभी हरिपाल से पूछूँगा.
यह उन के लिए जीवन की दिशा का बड़ा मोड़ था. भीम की, और हरिपाल की न हो यह संभव न था, रुचि दिल्ली गाज़ियाबाद की सीमा पर बसाई गई बस्ती सीमापुरी मेँ हो गई. वहाँ हर तरह के बदमाश कहे जाने वाले कारीगरोँ की बस्ती बन गई थी. भीम उन के जीवन मेँ झाँकने को उतावला हो गया. उन्हीं मेँ घुल मिल कर रह कर, उन्हेँ, उन की मानसिकता को समझ कर उन के बारे मेँ लिखना, और साथ मेँ हरिपाल का सजीव चित्र बनाना. दोनोँ ने तय किया–यह काम लगातार वहाँ रहने पर ही होगा. मेरा ख़्याल है यह काम करने के लिए ही भीम ने सरिता से पहली विदाई ली थी. गड़िया लुहारोँ की ही तरह वह भी यायावर ही होता जा रहा था. मुझ जैसे घरबसिया के लिए यह समझना, अपनी तमाम कामनाओँ के बावजूद, सहज नहीँ था. लेकिन भीम और हरिपाल जो सोच लेते थे, वह कर के रहते थे. उन्होँ ने अपना स्थिर होता जीवन एक बार फिर अस्थिर कर लिया. कुछ समय बाद उन की किताब आई. अब मुझे उस का नाम भी याद नहीँ. सीमापुरी के लोगो के शब्दचित्र और रेखाचित्र. उत्कृष्टता दोनोँ की पहचान बन चुकी थी. यह किताब भी उसी कोटि की थी.
Figure 3 भीम और फत्नी शारदा
इस के बाद के भीम के बारे मेँ मेरी यादें पूरी तरह अस्पष्ट हैँ. असल मेँ मुझे पुराना बहुत याद ही नहीँ रहता. केवल कुछ ही चीज़ें हेँ जो मुझे याद हैँ. कई साल बाद, नहीँ कई दशकोँ बाद, नौएडा वाले घर मेँ भीम ने मुझे एक घटना बताई. मैँ तो पूरी तरह भूल चुका था. भीम ने कहा तो मैँ ने उसे सही मान लिया. पर मुझे अभी तक वे दृश्य याद नहीँ आए हैँ. वह मैँ यहीँ लिख देता हूँ, क्योँकि प्रसंग उन्हीं दिनोँ का है–
रहगड़ पुरा के बेताज़ बादशाह थे डाक्टर रतन लाल शारदा. डाक्टर शारदा पूरी तरह गाँधीवादी. पंदरह साल की उमर मेँ (यानी सन 45 मेँ) मैँ ने मैट्रिक की परीक्षा दी थी, और साथ ही दिल्ली प्रैस मेँ डिस्ट्रीब्यूटर (छपी सामग्री को फिर से कंपोज़िंग केसों मेँ डालने वाले) का काम सीखने लगा था. देशभक्त पिताजी से मैँ हमेशा प्रभावित रहा. दिन रात रोज़ी की मशक्कत मेँ रहने वाले पिताजी दिल्ली मेँ राजनीतिक सरगर्मियोँ से जुड़ नहीँ पाए थे. एक दिन सुबह हम ने काँग्रेस की प्रभात फेरी दखी. पता करते करते पहुँचे डाक्टर शारदा के पास. कलफ़दार सफ़ेद खादी का कुरता, चूडी़दार पाजामा, गाँधी टोपी लगाने वाले डाक्टर साहब का व्यक्तित्व भव्य था. बोलचाल मधुर. दिल खुला. देश और गाँधी जी के लिए कुछ भी करने को कटिबद्ध. एक बार जब दिल्ली मेँ गाँधी जी भूख हड़ताल पर थे, तो उन से अनशन समाप्त करने की अपील के लिए जुलूस मेँ शामिल होने के लिए जिस तरह शारदा जी ने करोल बाग़ से विशाल जनसूह इकट्ठा किया था, वह मुझे अभी तक याद है.
शारदा जी के कहने पर मैँ काँग्रेस सेवा दल का सदस्य बना. छुट्टी के दिन दोपहरी मेँ उस की डिस्पैंसरी मेँ अंदर की तरफ़ चरखा क्लासेँ अटैंड करता. डाक्टर शारदा पूरे क्षेत्र के विशेषकर रहगड़ पुरे के आपसी मनमुटाव और मारपीट के मामले निपटाते थे. उन का फ़ैसला पूरी तरह न्यायपूर्ण होता था, और सब सिरमाथे रखते थे. शाम को डिस्पैंसरी मेँ आधी से ज़्यादा भीड़ झगड़े निपटवाने आने वाले ग़रीबों की होती थी.
तो भीम ने बड़े स्मित से बताया: जब वह दिल्ली प्रैस मेँ था, बाला (भीम की पत्नी) शारदा जी के दरबार मेँ पहुँचीं. भीम की शिकायत ले कर–मनमुटाव की और बाला को नज़रअंदाज़ करने की. डाक्टर साहब को पता चला भीम दिल्ली प्रैस मेँ है, जहाँ मैँ था ही. उन्होँ ने मुझे फ़ोन किया और भीम के बारे मेँ पूछा. मैँ ने भीम की प्रशंसा की. बस मामला सुलझ गया. बाला को उपयुक्त आश्वासन दे कर विदा किया. सचमुच तब मामला निपट गया था.
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1963 मेँ विश्वनाथ जी से बिना मतलब की सी बात पर मेरा, साथ साथ कुछ अन्य सीनियर लोगोँ का, मनमुटाव हो गया. मेरे साथ स्वदेशकुमार (तब जनरल मैनेजर, पहले संपादन विभाग अध्यक्ष), खरे (ऊपर ज़िक्र हो चुका है), मनमोहन कुमार भार्गव (प्रैस के मैनेजर). बात ईगो की रक्षा के स्तर तक जा पहुँची. एक साथ सब छोड़ देना चाहते थे. हमेँ लगा कि खरे भी छोड़ देगा तो उस पर भारी पड़ेगा. बाक़ी सब किसी न किसी तरह चला सकते थे. खरे का नया विवाह हुआ था, दिल्ली मेँ कोई निकट का नहीँ था. तो हम ने खरे को अपने से अलग कर दिया.
मनमुटाव मुझ से शुरू हुआ था. मेरे ही लिए विश्वनाथ जी से अलग होना मानसिक स्तर पर सब से भारी और दुःखदायी था. मेरे लिए दिल्ली प्रैस स्कूल कालिज गुरुकुल सभी कुछ था. मैँ वहाँ मैट्रिक के बाद गया था. जब से एक बार विश्वनाथ जी की नज़र मेँ आया (इस मेँ कोई पाँच साल लगे), मेरे हर प्रकार के नए अनुभवोँ के प्रेरक, गुरु, शिक्षक, साथी वही थे. हम दोनोँ सरिता के सामाजिक सैद्धांतिक पक्ष के सहप्रणेता बन गए थे. विश्वनाथ जी के लिए भी झगड़े का यह दौर कोई कम कष्टप्रद नहीँ था. असावधानी मेँ कहे उन के किसी एक उत्तेजित वाक्य का मैँ इतना बुरा मान जाऊँगा, वह शायद सोच भी नहीँ सकते थे. हम दोनोँ आपस मेँ सीधे बात कर लेते तो शायद आगे न भी बढ़ती. मैँ ही कड़वा घूँट पी लेता तो एक दिन मेँ वह भी शांत हो जाने वाले थे. लेकिन बिना इंतज़ार किए हम ने स्वदेश को माध्यम बनाया. पता नहीँ उन्होँ ने विश्वनाथ जी से बात किस लहज़े मेँ की, विश्वनाथ जी जाने किस मूड मेँ थे, और जाने किस ने उन्हेँ कैसे समझाया, बात बनने के बजाए बिगड़ और बढ़ गई. स्वदेश और भार्गव मैनेजमैँट मेँ थे. उन्हेँ ग्रैचुइटी नहीँ मिलनी थी. उन्होँ ने नौकरी छोड़ दी.
मैँ ने भी छोड़ देने का प्रस्ताव रखा. बस एक शर्त थी–मुझे मेरी ग्रैचुइटी मिलनी चाहिए. विश्वनाथ जी देना नहीँ चाहते थे. मैँ ने कह दिया कि मैँ पत्रकार हूँ, आप निकाल नहीँ सकते, मैँ ग्रैचुइटी के बग़ैर जाऊँगा नहीँ. बस यही वहाँ मेरे अपनी तरह के अलग लंबे सत्याग्रह का आधार बना. कई महीने चला. भुस मेँ आग लगाने वाले कहीँ कम नहीँ होते. उत्तेजना मेँ, क्रोध मेँ, विश्वनाथ जी ने कई ऐसी बातेँ कीं जो उन के स्वभाव के बाहर थीँ. मुझे काम देना बंद कर दिया, हर तरह नीचा दिखाने के काम करते रहे. मैँ ने क़सम खा ली थी जो भी हो जब तक ग्रेचुइटी नहीँ मिलेगी त्यागपत्र नहीँ दूँगा. मैँ ने देख लिया था कि मुझे तो कष्ट था ही, उन्हेँ शायद मुझ से भी ज़्यादा था. अपनी तरफ़ से मैँ सत्याग्रह कर रहा थ, पुराना काँग्रेसी जो ठहरा. मैँ देख रहा था कि वह वे काम कर कर रहे थे उन के स्वभाव मेँ नहीँ थे, विश्वनाथ जी घोर मानसिक संताप से गुज़र रहे थे. सन 1963 का हमारा वह तनाव दिल्ली के हिंदी पत्रकारोँ मेँ लेखकोँ मेँ सतत चर्चा का विषय बन गया.
जो हो, कुछ महीनोँ बाद जब मुझे लिखित आश्वासन मिला कि ग्रैचुइटी मिलेगी तो विश्वनाथ जी के पास जा कर मैँ ने त्यागपत्र दे दिया. कहा, हिसाब बनवा कर रखेँ, कुछ दिन बाद पैसे ले जाऊँगा.
इस झगड़े मेँ मुझे अपने सभी सहयोगियोँ साथियोँ से मनोबल और सहयोग मिला. वे मुझे सही बताते, मेरे साथ विद्रोह करने की बात कर देते. मैँ सब से कहता कि आप इस झगड़े मेँ मत पड़िए. ग्रैचुइटी की लड़ाई तो सब की हो सकती है, पर झगड़ा मेरा अपना है. मुझे ही अकेले भुगतने दीजिए. आप अपना प्रौफ़ैशनल कैरियर मत बिगाड़िए. भीमसेन जैसे सभी मित्र बड़े बेमन से चुप लगा जाते. वह मनमुटाव कई बरस विश्वनाथ जी और मेरे मन मेँ रहा.
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नवंबर 63 मेँ मैँ बंबई (अब मुंबई) चला गया– पहले संपादक के रूप मेँ टाइम्स के लिए फ़िल्म पत्रिका माधुरी का प्रकाशन आरंभ करने. वहाँ 14 साल रहा. दिल्ली के सब संपर्क धीरे धीरे असक्रिय होते चले गए. भीम से भी संपर्क न के बराबर हो गया. 78 मेँ दिल्ली आया (माडल टाउन वाले मकान मेँ) तो लगभग एकांतवास ही था. वहीँ रहने वाले बालस्वरूप राही, सत सोनी, ईश्वर सिंह बैस के अतिरिक्त किसी से संपर्क नहीँ रहता था. मैँ और कुसुम अपने समांतर कोश वाले काम मेँ लगे रहते. उसी साल वहाँ जमना की बाढ़ की चपेट मेँ हमारा घर भी आया. मूल्यवान वस्तुओँ मेँ केवल समांतर कोश के कार्ड बचे. एक दो साल मेँ स्थानांतरित हो कर ग़ाज़ियाबाद (सूर्य नगर चंद्र नगर एरिया) आ गए. संसार से संपर्क न के बराबर ही रहा. हम लोग अपने काम मेँ लगे थे. हाँ, बीच मेँ आर्थिक संकट के कारण पाँच साल के लिए रीडर्स डाइजेस्ट के हिंदी सस्करण सर्वोत्तम का प्रकाशनारंभ और संपादन का काम सँभाला.
डाइजेस्ट के दफ़्तर मेँ भीम आते रहते थे. बहुत आते थे. तब वे नौएडा मेँ रहने लगे थे. उन के बारे मेँ जब तब बातेँ भी सुनने को मिलतीँ. मैँ किसी के निजी जीवन पर सुनी बातों पर ज़्यादा ध्यान न देता था न अब देता हूँ. एक बार सुनने मेँ आया वह अपने परिवार से अलग हो कर वहीँ किसी और के साथ रहते हैँ. डाइजेस्ट छोड़ने के बाद यह भी सुना हमारे दफ़्तर आने मेँ उन की रुचि मुझ मेँ कम हुआ करती थी, वहाँ काम करने वाले किसी और मेँ अधिक थी. यह भी सुना कि नौएडा मेँ वह उसी के साथ रहते थे… पता नहीँ, कहाँ तक सच है! सन 85 से 97-98 तक मेरा भीम से व हिंदी संसार से संपर्क एक बार फिर टूट गया.
1993 के अंत तक हम लोग बेंगलूरु (तब बंगलौर)… चले गए. वहाँ हम ने बेटे डाक्टर सुमीत के साथ रह कर समांतर कोश का काम पूरा किया. दिसंबर 1996 मेँ समांतर कोश का प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया नई दिल्ली ने किया. सन 97 मेँ पुस्तक मेले के लिए मुझे बेंगलूरु से इंदौर जाना था. रास्ते मेँ मैँ एक दिन अपने मित्र अभिनेता चंद्रशेखर के घर रहा. बंबई मेँ टीवी अभिनेता राजेंद्र गुप्ता के घर चौपाल नाम की संस्था की बैठक मेँ जाना हुआ. तमाम लोग वहाँ थे, पुष्पा भारती, नादिरा बब्बर, उर्दू कवि निदा फ़ाज़ली… निदा का और मेरा सम्मान किया जाना था. वहाँ कई साल बाद भीम से मुलाक़ात हुई. उन्होँ ने नहीँ बताया, पर अभी कुछ महीने पहले मुझे पता चला कि वे ज़ी टीवी मेँ काम कर रहे थे. वही सौजन्य, वही विनम्रता. बातचीत मेँ कई बार उन्होँ टीवी के प्रसिद्ध सीरियल चंद्रगुप्त के निर्माता निर्देशक का ज़िक्र किया.
संपर्क फिर टूट गया. कई बरस हम लोग सुमीत के साथ कभी मद्रास (अब चेन्नई), कभी अमरीका, कभी पौंडिचेरी रहे. एक बार जब हम लोग कुछ महीनोँ के लिए चंद्रनगर ठहरे थे, भीम से मुलाक़ात हुई. इस बार वे अपनी साहित्यिक पत्रिका भारतीय लेखक का समांरभ करने वाले थे. पहले ही अंक मेँ मुझ से इंटरव्यू छापना चाहते थे. इस के लिए उन्होँ ने मेरी मुलाक़ात लेखक पत्रकार अनुराग से कराई. उन का तो अभिन्न वह रहा ही है, मेरा भी हो गया. मुझे इस बात का गर्व है कि भारतीय लेखक के पहले अंक मेँ मुझ पर लेख है, समांतर कोश की रचना प्रक्रिया के बारे मेँ बातचीत है. मुझे यह पहली बार पता चला कि भीम मुझे कितना चाहते थे, मन ही मन कितना सम्मान करते थे. मुँह से कभी नहीँ कहा. अनुभूति मुझे भी होती थी. लेकिन पहले अंक मेँ मुझ पर लेख प्रमाण थी भीम के मेरे प्रति प्रेम का. पत्रिका का पहला ही अंक लाजवाब था. वही भीम और हरिपाल की जोड़ी. भीम का संपादन और हरिपाल के चित्र… यहीँ नहीँ, उस अंक मेँ पहली बार मैँ ने हरिपाल का लेखक रूप भी देखा… हिंदी महापुरुषोँ (!) पर तीखे पैने वारोँ से भरपूर लेकिन आदरपूर्ण कटाक्ष. व्यंग्यात्मक शब्दचित्र का अनुपम उदाहरण. मुझे हरिपाल से ईर्ष्या भी हुई– मैँ इतना अच्छा लेखक कभी क्योँ नहीँ बन पाया…
जब भी मौक़ा मिलता भीम मुझ से लिखवाते. मेरी कितनी भी व्यस्तताएँ हों, मैँ कभी न नहीँ कर पाया…
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अब कुछ साल पहले से मैँ फिर चंद्रनगर मेँ लगभग मुस्तक़िल तौर पर रहता हूँ. हर साल कुछ महीने औरोवील (पुदुच्चेरी) ज़रूर जाता हूँ.
एक बार भीम के घर गया… राष्ट्रीय सहारा के दफ़्तर के सामने गली मेँ पहली मंज़िल पर फ़्लैट… मैँ ने देखा वह सपरिवार रहता है. बाला थीँ, बेटा विक्की (विवेक) था, उस की पत्नी थी. हरिपाल? वह तो होना ही था. दोनोँ ही बीमार थे. बीमारी मेँ भी हरिपाल कई बसेँ बदल कर वहाँ आया था. मैँ कृतकृत्य हो गया.
भीम को कैंसर का शक़ था. (बाद मेँ उन्होँ ने मेरे डाक्टर बेटे को दिखाने के लिए अपने मैडिकल काग़ज़ात, रिपोर्ट भिजवाईँ. सुमीत से मुझे पता चला कि रोग अब अंत की तरफ़ बढ़ रहा है–भीम का अंत… मैँ ने भीम को यह नहीँ बताया. हिम्मत नहीँ पड़ी. बाद मेँ एक बार फिर मैँ भीम के घर गया. पर ज़्यादा नहीँ. मुझे रोगियोँ के पास जाने मेँ या मित्रोँ के गुज़र जाने बाद उन के घर जाने मेँ बड़ा डर लगता है. जब से मैँ दिल के बाईपास आपरेशन के लिए राममनोहर अस्पताल और बतरा अस्पताल मेँ रहा और बाद मेँ फिर जौंडिस हो जाने पर राममनोहर अस्पताल मेँ रहा, कोई भी अस्पताल मुझे डराता है. मुंबई 1966 मेँ कवि शैलेंद्र के जीवन के अंतिम साल बहुत निकट रहने के बाद जब ने गए, तो एक बार भी मेरी हिम्मत शकुंतला भाभी को विधवा रूप मेँ देखने की न हुई. मैँ फिर कभी उन के घर नहीँ गया. बेटे बांटू — शैली शैलेंद्र — से बाहर मिलता रहा, उसे प्रोत्साहन देता रहा. यही हाल रेणु जी का भी हुआ. वह भी फिर कभी नाइंथ रोड खार नहीँ गए.
मैँ ज़िद करता रहा, भारतीय लेखक का दो सालों का शुल्क नक़द देने की. मुझे पता है लघु पत्रिकाएँ लोग किस जीवट से निकालते हैँ. हर लेखक यह जानता है. पर सब निश्शुल्क प्रतियाँ रैगुलरली पाना चाहते हैँ, पैसे कितने भेजते हैँ! भीम पैसे लेने से इनकार करता रहा. मैँ जानता था वह कितने कष्ट सह कर पत्रिका निकालता है. उस की शालीनता ही थी, जो इनकार करता रहा. अंत मेँ बाला जी ने कहा, आप दे ही दीजिए, ये तो ना करते रहेँगे–साधु लोग अपने हाथों पैसे कब लेते हैँ! मैँ ने पैसे दिए, बाला जी को. भीम चुप देखता रहा.
क़लम के सिपाही प्रेमचंद को मैँ ने कभी नहीँ देखा. लेकिन अपनी आँखोँ देखे क़लम के उस दीवाने सिपाही को मैँ अंतिम विदा देने या अंतिम सलाम करने गया था निगम बोध घाट पर. कार ड्राइव करने का मनोबल नहीँ था. पत्नी को साथ ले कर किसी की कार मेँ गया. चुपचाप एक ओर खड़ा रहा, सोचता रहा उस आत्मा के बारे मेँ जो पता नहीँ होती है या नहीँ, जो इस शरीर मेँ कभी हुआ करती थी. एक बेचैन व्याकुल आत्मा जो एक निरंतर सपनीला मन लिए थी, संघर्ष करती रही और फिर मैँ चुपचाप लौट आया.
बाद मेँ साहित्य अकादमी के हाल मेँ भीम की स्मृति मेँ सभा हूई. सभी मित्र वहाँ थे. सब से पहले बोलने को मुझ से कहा गया. मैँ बोल नहीँ पाया. मैँ समझता हूँ यही श्रद्धांजलि मैँ उसे दे सकता था! ❉
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