हंस – अप्रैल 1991 अंक
हंस – अप्रैल 1991 मुखपृष्ठ
कुछ लोग थिसारस को पर्यायवाची कोश समझने की ग़लती कर बैठते हैँ. जब मैँ किसी साहित्यिक मित्र से अपने काम की चर्चा करता हूँ, तो उन मेँ से अधिकांश कह बैठते हैँ: अच्छा, तुम पर्यायवाची कोश बना रहे हो… कुछ तो हिंदी मेँ पहले से ही हैँ.
लेकिन थिसारस पर्यायवाची कोश नहीँ होता. अगर यह मात्र पर्यायवाची कोश होता, तो इस के लिए कोई सा भी भावक्रम काम दे सकता था. तब मेरा काम बहुत आसान हो गया होता, और मुझे इस के निर्माण पर इतने सारे साल न लगाने पड़ते.
मान लीजिए कि आप को स्वर्ग शब्द के किसी पर्यायवाची की तलाश है, तो इस से कोई अंतर नहीँ पड़ता कि स्वर्ग शब्द के पर्यायवाची उस ग्रंथ मेँ किस कोटि के अंतर्गत किस स्थान पर किस क्रम से रखे हैँ. अकारादि क्रम से भी काम चल सकता था, जैसा कि हिंदी के सभी पर्यायवाची कोशोँ मेँ मिलता है. मुखशब्द स्वर्ग न हो कर जन्नत भी हो सकता था.
लेकिन थिसारस आप को मात्र पर्यायवाची शब्द नहीँ देता, वह आप को उस शब्द तक भी पहुँचा सकता है, जिस का अर्थ स्वर्ग न हो कर कुछ और हो और जिस की आप को तलाश हो. हो सकता है आप को नरक शब्द की तलाश हो. या फिर पाताल लोक की, या यमलोक की. हो सकता है आप को इन मेँ से किसी भी शब्द की ज़रूरत न हो. हो सकता है कि आप को याद ही न आ रहा हो कि आप को इहलोक या परलोक की तलाश है. ऐसी स्थिति मेँ भी थिसारस आप को उस शब्द तक पहुँचने की सुविधा प्रदान करता है, और वह भी बहुत कम समय मेँ.
इस के लिए थिसारसकार यह मान कर चलता है कि भाषा के प्रयोक्ता होने के नाते आप अपनी भाषा से परिचित हैँ. वह यह भी मान कर चलता है कि आप के मन मेँ स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से जो विचार या जो भाव अभिव्यक्ति के लिए व्याकुल है, आप उस से संबंधित या उस के विपरीत कोई एक शब्द ज़रूर जानते हैँ. आप की ज़बान तक आते आते जो शब्द आप के मन मेँ घूम रहा है, वह शब्द उस बात को कहने के लिए पूर्णत: उपयुक्त नहीँ है. ऐसी हालत मेँ आप को क्या करना है? आप के मन मेँ जो शब्द स्पष्ट रूप से उभर कर आ रहा है, उस शब्द को आप थिसारस के इंडैक्स मेँ देख लीजिए. वहाँ आप को एक क्रम संख्या मिलेगी. उस क्रम संख्या वाले शब्द समूह तक पहुँच कर आप पाएँगे कि थिसारस ने आप के लिए उस शब्द के समभाव, सहभाव और विषम भाव वाले शब्दोँ के भंडारोँ के महाकपाट खोल दिए हैँ. तत्काल ही आप का वांछित शब्द आप की आँखोँ के सामने होगा.
थिसारस की कार्यक्षमता का आधार ही यह है कि वह यह मान कर चलता है कि आप अपनी भाषा जानते हैँ, और मनोवांछित शब्द देखते ही आप जान लेँगे कि आप को इसी शब्द की तलाश थी. थिसारस को यह क्षमता मिलती है उस के शब्द समूहोँ की स्थापना के लिए चुने गए भावक्रम से (यहाँ जिसे मैँ ने भावक्रम लिखा था, समांतर कोश मेँ उसे संदर्भ क्रम कहा गया है. मतलब एक के बाद वे शब्द समूह जिन का आपस मेँ कोई संदर्भ बनता है. – अरविंद, मार्च 2015)
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तो शब्द समूहोँ की चर्चा और भावक्रम स्थापना.
मेरे काम के कमरे मेँ मेरे सामने की एक बड़ी मेज़ पर सामने, बाएँ, दाहिने और इसी मेज़ के पीछे, फिर दाहिनी ओर की मेज़ पर भी इसी प्रकार, और मेरे बाएँ और पीछे के रैकोँ पर कई ख़ानोँ मेँ लकड़ी की अनेक ट्रे रखी हैँ. फिर उधर एक और मेज़ है, जिस के बाएँ एक और मेज़ है. यही नहीँ, कमरे के दूर कोनोँ मेँ भी तीन तीन रैक हैँ. वे सब की सब भी ट्रेओँ से लदी हैँ. इन ट्रेओँ मेँ पोस्टकार्ड साइज़ के कार्ड लगभग ठसाठस खड़े हैँ. हर कार्ड मेँ ऊपर एक शीर्षक लिखा है. शीर्षक के नीचे किसी कार्ड पर कुल दो तीन शब्द हैँ, अधिकांश पर दस बीस से ले कर सौ डेढ़ सौ तक शब्द लिखे हैँ. ये सब उन सब शब्द समूहोँ के प्रारूप हैँ जो एक सुनिश्चित भावक्रम से रखे जा कर थिसारस के रूप मेँ आप के सामने पहुँचेँगे.
इस भीड़भाड़ मेँ मैँ कहाँ से आरंभ करूँ, समझ मेँ नहीँ आता था.
चलिए, हम अपने पुराने अमरकोश के आधार पर ही इस चर्चा का आरंभ करते हैँ.
लेकिन… आगे बढ़ने से पहले मैँ कुछ बातेँ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ.
अभी तक मैँ ने अपने थिसारस के लिए शब्द समूहोँ का कोई क्रम अंतिम रूप से सुनिश्चित नहीँ किया है.
जब लगभग चौदह साल पहले मैँ ने काम शुरू किया था, तो अपने उद्यम का आरंभ एक सुनिश्चित क्रम की स्थापना से किया था. यह क्रम रोजेट के थिसारस पर आधारित था. तब मैँ ने हर शब्द समूह को बाक़ायदा एक क्रम संख्या दे दी थी और उन का इंडैक्स भी साथ साथ बनाने लगा था. मैँ शब्द समूह बनाता था, उस मेँ वे तत्संबंधी शब्द लिखता जाता था, जो मुझे याद आते जाते थे, और मेरी पत्नी कुसुम उन का इंडैक्स तैयार करती थीँ. लगभग दो साल तक बहुत सारा काम कर लेने के बाद पता चला कि वह क्रम और क्रम संख्या हिंदी के थिसारस के लिए नाकाफ़ी थी. उस पद्धति मेँ न तो किसी कार्ड पर दो शब्दोँ के बीच मेँ अतिरिक्त शब्द जोड़ने की सुविधा थी, और न ही दो कार्डों के बीच मेँ आवश्यकतानुसार नया कार्ड जोड़ पाना संभव था. इस लिए बार बार उसे बदलना पड़ता था, और उस के साथ साथ पूरा इंडैक्स भी बदलना पड़ता था.
इस ग़लती का अहसास मुझे मुंबई मेँ सुबह शाम पार्टटाइम काम शुरू करने के छ: महीने बाद ही होने लगा था. फिर भी मैँ अपनी ग़लती दोहराता चला गया, इस आशा मेँ कि शायद काम करते करते कोई हल निकल आए. आख़िर इस पद्धति को त्यागना ही पड़ा. इस के बाद दो तीन तरह से काम शुरू किया. हर बार नए ढंग से काम शुरू करने का मतलब होता था – एक बार फिर अस्सरे नौ हर कार्ड का पुनरवलोकन या उसे कंडम कर के पुनर्लेखन. कई बार एक कार्ड के लिए दो तीन या अधिक नए कार्ड बनाने पड़ते थे.
इस प्रकार कई बार मुँह की खा कर अब जो तरीक़ा मैँ ने अपनाया है वह फ़िलहाल एक ऐसे कामचलाऊ भावक्रम का है जिस मेँ हर स्टेज पर परिवर्तन की सहज सुविधा हो. वास्तव मेँ यह कंप्यूटर के लिए प्रोग्रामिंग की पहली स्टेज मात्र है. विषय या कोटि के अनुसार शब्द समूहोँ को अलग अलग ट्रेओँ या ख़्वानोँ मेँ रखा भर है. इस मेँ मुझे यह सुविधा है कि किसी एक विषय से संबद्ध नए भावोँ और नई अभिव्यक्तियोँ के लिए मैँ क्रमांक भंग किए बिना नए कार्ड यथास्थान बीच मेँ घुसा सकता हूँ क्योँ कि किसी भी कार्ड की कोई संख्या नहीँ है. किसी ट्रे विशेष मेँ भी पूर्णत: अंतिम भावक्रम अभी तक नहीँ बनाया गया है. इस मेँ यहाँ तक सुविधा है कि किसी विषय के अंतर्गत जो अनेक विभाग और उपविभाग हैँ, उन के जो शीर्षक हैँ, जो क्रम है, वे जब चाहे बदले जा सकेँ. आवश्यकता पड़ने पर एक ख़्वान के आधे, चौथाई, कुछ या सारे कार्ड किसी दूसरे ख़्वान मेँ स्थानांतरित किए जा सकते हैँ.
एक भाव को प्रकट करने वाले शब्द एक कार्ड पर हैँ. कंप्यूटरी भाषा मेँ एक कार्ड का मतलब है एक उपशीर्षक. किसी किसी उपशीर्षक के अंतर्गत लिखे जाने वाले शब्दोँ की संभावित संख्या कई बार इतनी अधिक हो सकती है कि वे सब शब्द शायद एक कार्ड मेँ न समा सकेँ. इस संभावित संख्या के अनुमान के आधार पर एक कार्ड का अर्थ उस भाव विशेष के लिए मनोनीत सोलह कार्ड तक हो सकता है, और कभी कभी तो बत्तीस भी – क्योँ कि हिंदी और संस्कृत भाषाएँ प्रभूत पर्यायवाचियोँ से परिपूर्ण भाषाएँ हैँ. ‘शिव’ का ही उदाहरण लीजिए. पहले मैँ ने शिव के लिए कुल दो कार्ड बनाए थे, फिर चार, बाद मेँ आठ बनाए, फिर सोलह, और अब वे बत्तीस की ओर बढ़ रहे हैँ. हो सकता है शिव के पर्यायवाचियोँ के लिए बत्तीस कार्ड भी कम पड़ जाएँ! लेकिन शिव की बात हम अगले अंक मेँ करेँगे और उस के साथ ही ब्रह्मा और विष्णु की भी.
मेरी ट्रेओँ मेँ जो कार्ड रखे हैँ और उन पर जो शब्द फ़िलहाल लिखे हैँ, वे उस के उपशीर्षक के भाव को अभिव्यक्त करने वाले सभी शब्द नहीँ हैँ. वास्तव मेँ जब तक मेरे थिसारस का काम संपूर्ण नहीँ हो जाता, तब तक हर कार्ड मेँ नए शब्द जोड़े जाते रहेँगे. ये तो मात्र वे शब्द हैँ जो इस थिसारस मेँ स्ट्रक्चर, ढाँचे या संस्तर की स्थापना की प्रक्रिया के दौरान इन कार्डों पर लिख दिए गए हैँ.
अपनी कार्य प्रणाली और अपने काम की वर्तमान स्थिति का यह विस्तृत वर्णन मैँ ने इस लिए किया कि जब हम शब्द समूहोँ की और भावक्रम की समस्या पर बातचीत करेँगे, तो यह न मान लिया जाए कि इस थिसारस मेँ अमुक शीर्षक के अंतर्गत मात्र इतने ही शब्द होँगे, यह तो मात्र बानगी है.
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अपनी बात का सिलसिला फिर से शुरू करने के लिए हम अमरकोश का पहला शब्द समूह लेते हैँ: स्वर्ग. इस मेँ कुल नौ शब्द हैँ, जो कि पूर्णत: नाकाफ़ी हैँ. स्वयं संस्कृत मेँ ही स्वर्ग के लिए सैकड़ोँ शब्द मिल जाएँगे जो अमरकोशकार ने नहीँ लिखे हैँ. उस की समस्या यह थी कि वह अपने युग की शैली के अनुसार अपना कोशग्रंथ काव्य मेँ रच रहा था और केवल याददाश्त पर निर्भर था. छंदोँ की रचना करते समय उसे जो शब्द याद आ जाते थे, और जो छंद मेँ फ़िट होते थे, वही उस मेँ जगह पा जाते थे. उस के पास कार्ड प्रणाली की सुविधा भी नहीँ थी, जो कि आधुनिक तकनीक की देन है.
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किसी थिसारस मेँ आज हमेँ स्वर्ग के संदर्भ मेँ हिंदी और संस्कृत भाषाओँ तक सीमित न रह कर अरबी, फ़ारसी और अँगरेजी के – कभी कभी तो ग्रीक, लैटिन, फ़्राँसीसी, जर्मन आदि भाषाओँ के – शब्द भी डालने होँगे जो अब बोलचाल का हिस्सा बन गए हैँ या जिन्हेँ कोई आधुनिक भाषा प्रयोक्ता इस्तेमाल करना चाहेगा.
अभी जब मैँ ने स्वर्ग वाले कार्ड पर पूरे शब्द नहीँ डाले हैँ, मेरे पास पचास से ऊपर शब्द इस प्रकार हैँ (अकारादि क्रम से):
बाग़े अदन
स्वर्ग: अक्षय लोक, अगिर, अमरधाम, अमरलोक, अमरालय, अमरावती, अमर्त्य भुवन, इंद्रलोक, उर्ध्वलोक, ऋभुव, कल्याण, ख, गो, गोलोक, जन्नत, दिव, त्रिदशालय, त्रिदिव, त्रिविष्टप, देव निकाय, देव भवन, देवभू, देवभूमि, देवलोक, देवस्थान, देवागार, देवालय, देवावसथ, देवावास, द्यावा, द्यु, धरण, नाक, नागवीथि, निसर्ग, पुण्यलोक, पुरु, बहिश्त, बिहिश्त, बैकुंठ, मंदर, मंदार, रामपुर, विबुधावास, विष्टप, विहा, वैकुंठ, शक्र भवन, शक्र भुवन, शक्रवास, शक्रलोक, सर्ग, सर्वतोमुख, सातवाँ आसमान, सुरधाम, सुर नगर, सुरपुर, सुरलोक, सुरवर्त्म, सुरवास, सुरवेश्म, सुर सदन, सुरसद्म, सुरावास, स्व:, स्वर्, स्वर्ग, स्वर्गधाम, स्वर्गलोक, स्वलोक, ह, हैवन (अँ).
हमारा काम यहीँ समाप्त नहीँ हो जाता. यह तो हमारी स्वर्ग यात्रा की शुरूआत मात्र है. वर्तमान संसार मेँ संचार व्यवस्था की विश्वजनीनता के कारण बड़ी तेज़ी से एक ऐसी संस्कृति बन रही है, जो किसी देश या महाद्वीप की भौगोलिक सीमाओँ मेँ बँधी नहीँ रह सकती. न सिर्फ़ आम भारतीय शब्द प्रयोक्ता आज मात्र अपनी मातृभाषा पढ़ता है, बल्कि दो अन्य भाषाएँ भी पढ़ता है, जिन मेँ से एक आम तौर पर अँगरेजी होती है. इस के अलावा आज फ़्राँसीसी, जर्मन, रूसी, स्पेनी आदि भाषाएँ जानने वालोँ की संख्या भी बढ़ती जा रही है. आज का आम पाठक अँगरेजी के माध्यम से पूरे विश्व का साहित्य पढ़ता है. प्राचीनतम मिस्री और बेबिलोनियाई संस्कृति से ले कर आज की सभी आदिम और विकसित संस्कृतियाँ, उन की भाषाएँ और उन की शब्द संपदा हमारी दैनिक अनुभूति और अभिव्यक्ति का अंग बनती जा रही हैँ.
अत: स्वर्ग संबंधी अन्य अनेक धारणाओँ मेँ से भी शब्द चयन की आवश्यकता हमारे आज के शब्द प्रयोक्ता को पड़ सकती है. इस लिए हमेँ अपने आधुनिक हिंदी थिसारस मेँ स्वर्ग का विस्तार बढ़ाना होगा. स्वर्ग वाले कार्ड के बाद ही मैँ ने फ़िलहाल ये कार्ड और बनाए हैँ.
धरती पर स्वर्ग – बाग़े अदन.
ईरानी स्वर्ग- बिहिश्त.
सब से ऊँची बिहिश्त.
नक़ली बिहिश्त- बिहिश्ते शद्दाद.
ग्रीक स्वर्ग- एलिसीयम.
ग्रीक स्वर्ग- ओलिंपस पर्वत.
जैन स्वर्ग.
जैन स्वर्ग सूची.
नार्वे का स्वर्ग- वल्लहल्ल.
यहूदी स्वर्ग- ज़ायन.
स्पष्ट है कि जैसे जैसे नई सूचनाएँ प्राप्त होती जाएँगी, इन कार्डों की संख्या और उन पर लिखे शब्दोँ की संख्या बढ़ती जाएगी. बहुत से विदेशी शब्दोँ के साथ रोमन लिपि मेँ उन के हिज्जे देने की आवश्यकता भी है. तभी प्रयोक्ता उन्हेँ सही संदर्भ मेँ इस्तेमाल कर पाएगा.
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यह तो हुई नामवाचक संज्ञाओँ की बात. अमरकोश मेँ संज्ञाओँ के विशेषण नहीँ दिए गए हैँ. लेकिन आधुनिक थिसारस का काम केवल संज्ञाओँ की सूची से नहीँ चलता. जहाँ तक संभव हो, उस मेँ भाववाचक संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, मुहावरे, विशेषण और क्रिया विशेषण भी होने चाहिए. तभी प्रयोक्ता को यह सुविधा मिल पाएगी कि यदि उस का काम संज्ञा से न चलता हो तो क्रिया, विशेषण या क्रिया विशेषण की सहायता से घुमा फिरा कर अपने मन की बात को सटीक तरीक़े से कह सके. (अमरकोश मेँ विशेषणोँ का अपना एक अलग वर्ग है. आजकल क्रिया, विशेषण, क्रिया विशेषण आदि किसी भी शीर्षक के अंतर्गत एक साथ मिलते हैँ. इस का सब से बड़ा लाभ यह है कि उपयोक्ता अपनी बात संज्ञा पद मेँ न कह कर किसी और तरह भी कह सकता है.)
अत: स्वर्ग के बाद हमेँ स्वर्ग के विशेषण भी देने होँगे. यही नहीँ, यदि आवश्यकता हो तो हमेँ स्वर्गोपम जैसे शब्दोँ के कार्ड भी बनाने पड़ेँगे. स्वर्गीय शब्द अब हिंदी मेँ स्वर्ग विषयक या स्वर्गोपम अर्थ मेँ न के बराबर प्रयुक्त होता है. अत: स्वर्गीय लिख कर हमेँ उस के अन्य संदर्भ की ओर भी संकेत करना होगा. स्वर्गीय: देखिए मृत और स्वर्गसमान.
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भावक्रम की समस्या पर बात यहीँ ख़त्म नहीँ होती, बल्कि शुरू होती है.
अमरकोश मेँ स्वर्ग के तुरंत बाद देवता लिखा गया है. देवता स्वर्ग मेँ रहते हैँ, और अमरकोश की संस्कृति मेँ देवता और स्वर्ग का निकट का संबंध था. वहाँ देवता के कुल छब्बीस पर्याय गिनवाए गए हैँ. इस के तुरंत बाद नौ देवगणोँ की सूची दी गई है, फिर ग्यारह देवयोनियोँ के नाम गिनवाए गए हैँ.
अमरकोशकार ब्रह्मा आदि पर जाने से पहले बुद्ध के कुल अठारह पर्याय बताता है और फिर सातवेँ बुद्ध शाक्यमुनि के सात पर्यायोँ का उल्लेख करता है. प्रसंगवश यह बताना अनुपयुक्त न होगा कि ब्रह्मादिक से पहले बुद्ध के उल्लेख के आधार पर अनेक विद्वान अमरसिंह को बौद्ध मतवलंबी मानते हैँ.
लेकिन आधुनिक थिसारस पद्धति के अनुसार स्वर्ग के तुरंत बाद नरक लिया जाना अधिक उपादेय और समीचीन है – क्योँ कि हमारा उद्देश्य शब्द प्रयोक्ता को किसी शब्द के सहभाव, समभाव या विषम भाव तक पहुँचाना है. लेकिन अमरकोश मेँ स्वर्गवर्ग और नरकवर्ग के बीच मेँ हैँ: व्योमवर्ग, दिग्वर्ग, कालवर्ग, धीवर्ग, शब्दादिवर्ग, नाट्यवर्ग और पातालभोगिवर्ग और इन सब के अंतर्गत अनेक उपवर्ग हैँ.
स्वर्ग और नरक वास्तव मेँ अनेक काल्पनिक लोकोँ की गिनती मेँ आते हैँ. इहलोक के विपर्याय के तौर पर इन्हेँ परलोक की कोटि मेँ भी गिना जा सकता है. अत: स्वर्ग और नरक शब्द समूहोँ के आसपास या इन से पहले लोक मात्र की स्थापना की जानी चाहिए. इस संदर्भ मेँ मेरा अभी तक का प्रस्तावित क्रम इस प्रकार है. लोक. लोक – सूची. दो लोक. दो लोक – सूची. तीन लोक. तीन लोक – सूची. चार लोक. चार लोक – सूची. सात लोक. सात लोक – सूची. चौदह लोक. चौदह लोक – सूची. सात लोकोँ मेँ आता है पाताल. यह सात लोकोँ का संयुक्त नाम भी है, और उन मेँ से एक लोक का नाम भी.
जहाँ तक लोकोँ की प्राचीन मान्यताओँ का सवाल है, उन की गिनती इतने मात्र से पूरी नहीँ हो पाती. और भी लोक हैँ. जैसे: गंधर्व लोक, नाग लोक, पितृ लोक, यम लोक. इन मेँ से कई स्वर्ग और नरक और पाताल से भिन्न हैँ. अपने थिसारस मेँ हमेँ इन सब के लिए भी उपयुक्त स्थान और क्रम निकालना पड़ेगा.
(शब्दवेध से)
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