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चालीस साल पहले 19 अप्रैल 1976 की सुबह नासिक नगर मेँ गोदावरी नदी मेँ स्नान करने के बाद अरविंद कुमार ने समांतर कोश का पहला कार्ड लिखा था. उस अवसर की याद मेँ प्रस्तुत है:
बीस साल तक एक सपना मन मेँ संजोए रख कर पूरा करने को जुटने वाले ‘समांतर कोश’ के रचेता
नया ज्ञानोदय के संपादक श्री लीलाधर मंडलोई ने कहा मैँ पापा के बारे मेँ कुछ लिखूँ. पापाओँ पर लिखना ख़तरोँ से भरा होता है. लिखने वाले पर हीरो वरशिप का आरोप लग सकता है या फिर झेले कष्टोँ के बारे मेँ आत्मकरुण प्रदर्शन का. मैँ ने इन दोषोँ से बचने की पूरी कोशिश की है.
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16 अप्रैल 1976. मैँ बेहद उतावली थी: कब छठी कक्षा का मेरा अंतिम पेपर ख़त्म हो और मैँ घर पहुँचूँ. मन उत्तेजना से भरा था. कल हम लोग – मम्मी, पापा, भैया सुमीत और मैँ – पूरे एक महीने के लिए नासिक जाएँगे, कितना मज़ा आएगा. टाइम्स आफ़ इंडिया के बड़े बंगले मेँ हम बच्चे मज़े करेंगे. साइकिल, बैड मिंटन, बड़े बड़े मसहरीदार पलंग. गोदावरी नदी का घाट. पापा अपनी मनचाही किताब शुरू करेँगे – थिसारस. वह क्या होता है मुझे पता नहीँ था.
सोमवार 19 अप्रैल की सुबह हम गोदावरी जा पहुँचे. जी भर नहाए. पापा ने ताँबे का लोटा ख़रीदा और उस पर तारीख़ खुदवाई. बंगले पर लौट कर पापा ने अपनी ‘किताब’ का पहला कार्ड बनाया. सब से ऊपर लिखा:
अरविंदकुमारस्य
शब्देश्वरी
(तब ‘किताब’ का यही नाम था. समांतर कोश तो वह छपते समय बनी. हाँ, बहुत बाद मेँ शब्देश्वरी नाम पापा ने पौराणिक नामोँ के अपने थिसारस को दिया.)
बतौर यादगार पापा ने उस कार्ड पर हम सब के दस्तख़त करवाए. हमारे लिए वह क्षण किसी महासंकल्प मेँ सम्मिलित होने का अलौकिक अकथित अनुबंध बन गया. उस दिन का पूरा महत्व मुझे बीस साल बाद 13 दिसंबर 1996 को समझ मेँ आया, जब राष्ट्रपति भवन मेँ मम्मी और पापा ने तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर शंकरदयाल शर्मा को समांतर कोश का पहला सैट भेँट किया और एक अन्य सैट पर उन के हस्ताक्षर करवाए.
मैँ ने अपने पचास वर्षीय जीवन मेँ से चालीस साल पापा के अनथक काम के साथ बिताए हैँ. मेरी उस बढ़ती उमर मेँ कोई पूछता, तुम्हारे पापा क्या करते हैँ, तो मैँ यही कह पाती थी, वह ‘किताब’ पर, थिसारस पर, काम कर रहे हैँ. नवीँ कक्षा मेँ मेरे गणित टीचर ही एक थे जो मेरे जवाब का मतलब समझ पाए. लेकिन हम चारोँ के लिए, पापा की किताब ही हमारे जीवन मेँ सबसे अहम थी.
1996 मेँ समांतर कोश का विमोचन उस संकल्प का पूरा होना था, जो पापा ने 1973 के दिसंबर मास मेँ 27 तारीख़ की सुबह लिया था. लेकिन उस ‘किताब’ का सपना पापा ने और भी बीस साल पहले 1953 मेँ देखा था, जब पापा का साबक़ा पीटर मार्क रोजेट के इंग्लिश थिसारस से पहली बार पड़ा था. उस की उपयोगिता से रोमांचित, पुलकित, हर्षित, मुग्ध, वशीभूत हो कर उन के मन मेँ यह विचार आया था – एक दिन कोई न कोई हिंदी को थिसारस का वरदान देगा! 27 दिसंबर 1973 की उस सुबह पापा को याद आया वह विचार. तब पापा के मन मेँ यह सपना जागा: किसी और ने थिसारस नहीँ बनाया है, तो शायद मैँ ही यह काम करने के लिए पैदा हुआ हूँ!
पापा अपनी राह चल पड़े, हमारा जीवन बदल गया. 1978 मेँ पापा ने थिसारस बनाने के लिए, टाइम्स आफ़ इंडिया की फ़िल्म पत्रिका माधुरी का संपादक पद त्याग दिया. मुंबई मेँ हमारा अपना घर नहीँ था. ऐंबेसडर कार से पूरा विंध्याचल पठार पार कर के हम 21 मई की शाम दिल्ली आ पहुँचे, जहाँ मम्मी पापा ने मौडल टाउन मेँ घर बनाया था. वहीँ दादा दादी और चाचा सपरिवार रहते थे. हम भी उन के साथ रहने लगे. भैया ऐमबीबीऐस की पढ़ाई करने मुंबई चला गया. दिल्ली आना मुझे कुछ ख़ास अच्छा नहीँ लगा – अलग तरह का जीवन. नया स्कूल, नए सहपाठी. परिवार की भिन्न आंतरिक परस्परता. जैसा जीवन मैँ ने तब तक देखा था, वह हमेशा के लिए पीछे छूट गया था.
अप्रैल 1976 मेँ समांतर कोश के शुरू होने और दिसंबर 1996 मेँ उस के विमोचन के बीच के 20 सालोँ मेँ हमारे जीवन मेँ बहुत बदलाव आए. मौडल टाउन वाले घर मेँ बाढ़ आई. वह छोड़ कर हम गाज़ियाबाद के सूर्यनगर, और फिर चंद्रनगर वाले मकान मेँ आए. बिगड़ी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए पापा ने 1980 मेँ रीडर्स डाइजेस्ट के हिंदी संस्करण सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट का शुभारंभ कर के पाँच साल तक उस का संपादन करने का दायित्व सँभाल लिया. इस के कुछ साल बाद उन्हेँ दिल का भारी दौरा पड़ा, बाईपास सर्जरी हुई. कई और बीमारियोँ से उबरे. मम्मी पापा के स्वास्थ्य पर पूरा ध्यान देते हुए पापा के साथ किताब के काम मेँ लगातार लगी रहीँ.
भैया और मैँ नई ज़िंदगी के नए संदर्भ तलाश रहे थे, और नई दिशाओँ मेँ बढ़ रहे थे. भैया बंबई मेँ ऐमबीबीऐस और ऐमऐस कर हमारे पास लौट आया, दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल मेँ रैज़िडैंट सर्जन बन गया. नई दिल्ली के लेडी इर्विन कालिज से न्यूट्रीशन मेँ ऐमए पास कर के मैँ ने एक साल वहाँ पढ़ाया भी, फिर अमेरिकन ऐनजीओ ‘केअर’ मेँ काम किया. मेरी शादी हुई.
लेकिन हम सब का लक्ष्य वही बना रहा: पापा का थिसारस का सपना पूरा होना. सुमीत के वापस आने का दूरगामी परिणाम हुआ – पापा के सपने का साकार होना.
होते होते एक समय ऐसा आ गया था जब एक पूरे कमरे मेँ दो मेज़ेँ और स्टील के रैक लकड़ी की ट्रेओँ से भरे गए. उन मेँ साठ हज़ार से अधिक कार्डों पर ढाई लाख शब्द लिखे थे – और पापा परेशान रहते थे. ज़िंदगी छापेख़ाने से शुरू की थी. छपाई की समस्याएँ, उलझनेँ और संकट जानते थे. वे सोचते और सोच सोच कर काँपते रहते:
पहले कार्ड टाइपिस्टोँ को दिए जाएँगे. उन से कई कार्ड खो सकते हैँ, उन का क्रम बिगड़ सकता है. टाइपिस्ट बीच बीच मेँ से कई शब्द ग़लत टाइप कर जाते हैँ, कई शब्द और पंक्तियाँ टाइप करना भूल जाते हैँ और कई पंक्तियाँ दोबारा टाइप कर जाते हैँ. टाइप किए दो लाख साठ हज़ार शब्दोँ को मैँ पढ़ूँगा, उन की ग़लतियाँ ठीक कराऊँगा. कई पेज कई बार टाइप कराने पड़ सकते हैँ. हर बार नई ग़लतियाँ होने की संभावना रहेगी. फिर टाइप शीट छापेख़ाने मेँ कंपोज़िंग के लिए जाएँगी. वहाँ बार बार उन की प्रूफ़ रीडिंग करानी होगी. प्रैस वाला सैकड़ोँ पेजोँ का कंपोज़्ड मैटर रखेगा कहाँ. उन दिनोँ छपाई के लिए मशीन पर जाने से पहले कई बार पेज टूट जाते थे. तब क्या होगा? वे पेज फिर से कंपोज़ करवाने और फिर से उन के प्रूफ़ पढ़ने होँगे! हर शीर्षक और उपशीर्षक की एकोत्तर संख्या मैनुअली लिखते समय सही क्रम का अनुपालन हो पाएगा या नहीँ? अनुक्रम बनाने की समस्या तो और भी जटिल होगी. पूरा संदर्भ खंड छप जाने के बाद उस के एक एक शब्द को अकारादि क्रम से लिखना और उन की शीर्षक उपशीर्षक संख्या दर्ज़ करना – तौबा! यह मेरे बस का काम नहीँ है. दूसरोँ से बनवाएँ. उन्हेँ देने का पैसा कहाँ से आएगा. वे सब संख्याएँ सही लिखेँगे या नहीँ. प्रैस मेँ कंपोज़िंग मेँ कितनी ज़्यादा ग़लतियाँ होँगी – यह कौन जाँचेगा?
सुमीत ही था जिस ने पापा की चिंताओँ का हल निकाला: पापा के शब्दोँ के संग्रह का डाटाबेस बनाना होगा.
एक ईरानी अस्पताल मेँ साल भर सर्जरी कर के उस ने कंप्यूटर के लिए आर्थिक संसाधन जुटाए और किताबेँ पढ़ कर डाटाबेस बनाने की विधि स्वयं बनाने मेँ जुट गया. ट्रायल ऐंड ऐरर मैथड के ज़रिए वह अभ्यास करता रहा और एक दिन हमारे पास था – पापा के लिए डाटाबेस बनाने का एक अनोखा और पूरी तरह स्वनिर्मित स्वदेशी समाधान – अरविंद लैक्सिकन! कंप्यूटर पर डाटा ऐंट्री सीखने मेँ 63-वर्षीय पापा को देर नहीँ लगी – सन 1951-52 से वह अपनी सारी लिखाई हिंदी टाइपराइटर करते जो आ रहे थे! बस कुंजीपटल भिन्न था! डाटाबेस तैयार होने को आया तो सुमीत ने एक और कंप्यूटर ऐप्लीकेशन बना डाली – डाटाबेस को किताब के रूप मेँ परिवर्तित करने का तरीक़ा. अब हम सक्षम थे. कंप्यूटर से सीधे किताब के रूप मेँ समांतर कोश का आविर्भाव हो गया. 13 सितंबर 1996 को हम ने नेशनल बुक ट्रस्ट को समांतर कोश के अठारह सौ पेजोँ के प्रिंटआउट दिए और 13 दिसंबर 1996 को भारत का पहला आधुनिक और विशाल थिसारस राष्ट्रपति के हाथोँ मेँ था.
तब से अब तक पापा के हर कोश का अंतरंग अनिवार्य कारक सुमीत ही है – कंप्यूटर विशेषज्ञ डाक्टर!
समांतर कोश का संयोजन
समांतर कोश का हृदय है – संयोजन. सही संयोजन की तलाश ही इस की रचना मेँ इतना अधिक समय लगने का कारण भी थी.
थिसारस कोश से उलट होता है. संक्षेप मेँ कहेँ तो कोश शब्द को अर्थ देता है और थिसारस का काम है किसी विचार को, भाव को, शब्द देना. इस के लिए थिसारस मेँ शब्दोँ का संकलन या संयोजन कभी समानता के आधार पर तो कभी विपरीत संदर्भ के अनुसार किया जाता है. कोश मेँ शब्द अकारादि क्रम से रखे जाते हैँ, लेकिन थिसारस मेँ उन्हेँ भाव क्रम या संदर्भ क्रम से संकलित किया जाता है. हर शब्दकोटि और उपकोटि को विशिष्ट संख्या प्रदान की जाती है. अनुक्रम खंड मेँ सामान्य कोशोँ की ही तरह हर शब्द अकारादि क्रम से रखा जाता है और संदर्भ खंड मेँ उस तक पहुँचने के लिए उसका संख्या क्रम लिख दिया जाता है.
रोजेट ने शब्दोँ का संकलन (संयोजन) मूलतः वैज्ञानिक कोटियोँ के आधार पर किया था. रोजेट मेँ ‘गेहूँ’ एक तरह की ‘घास’ है. लेकिन आम आदमी के मन मेँ चीज़ोँ के संदर्भ विज्ञान के आधार पर न हो कर दैनिक उपयोग या अनुभूति से संबद्ध होते हैँ. उस के लिए ‘गेहूँ’ एक ‘अनाज’ है. उस का संबंध ‘बाजरे’ या ‘ज्वार’ से तो है ही, ‘चने’ से भी है जो कि एक ‘दाल’ है. रोजेट के ढाँचे को आधार बना कर आगे बढ़ते पापा समझ गए कि उस के जैसा क्रम उन के थिसारस के लिए संगत नहीँ है. यही नहीँ, रोजेट के क्रम मेँ भारतीय संस्कृति और समाज और हिंदी की अनेक धारणाओँ को खपाना असंभव होता जा रहा था.
हताश पापा ने संस्कृत थिसारस अमरकोश मेँ रास्ता तलाशने की कोशिश की. उस की कई सीमाएँ निकलीँ. उस मेँ कुल आठ हज़ार शब्द थे. इस के मायने हैँ कि उस मेँ शब्दकोटियाँ बेहद कम थीँ. मानव समाज का वर्गीकरण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों के आधार पर किया गया था. कई जीवोँ के नाम इन वर्णों से जोड़े गए थे, जैसे ‘हाथी’ और ‘घोड़ा’ क्षत्रिय वर्ग मेँ थे, ‘गाय’ आदि वैश्य वर्ग मेँ. ‘मृत्यु’ क्षत्रिय वर्ग मेँ थी क्योँकि क्षत्रियोँ का एक कर्म युद्ध होता था, और लड़ते लड़ते मृत्यु की संभावना उन के मन मेँ सदा वर्तमान रहती थी. ‘संगीत’ दैवी गतिविधि था, संगीतकार ‘शैलूष’ आदि शूद्र थे.
कहाँ पुरातन समाज कहाँ आज का हिंदुस्तान! कहीँ कोई मीज़ान नहीँ बैठ रहा था.
कुल मिला कर बात यह थी कि इन दोनोँ मेँ – रोजेट के थिसारस मेँ और अमरकोश मेँ – शब्दावली को कोटियोँ मेँ बाँधने की कोशिश की गई थी. जबकि भाषा संकीर्ण खाँचोँ मेँ समाए जाने से कहीँ बड़ी शै है. भाषा सारी सीमाओँ से परे है. हर रोज़ नए से नए भाव आते हैँ, नई से नई चीज़ेँ बन जाती हैँ. इनसान न हिंदू वर्णोँ तक सीमित रह सकता है, न मार्क्सवादी वर्गों मेँ बँध सकता है. थिसारस जैसे संदर्भ ग्रंथ की भूमिका बस इतनी होनी चाहिए कि वह किसी विचार की अभिव्यक्ति के लिए वांछित शब्द तक पहुँचने मेँ उपयोक्ता का सहायक हो सके. कोई ऐसी प्रणाली बनाई जाए जो मानसिक परस्परता या विरुद्धता के आधार पर मानव मन को एक से दूसरे विषय तक ले जाए. जैसे ‘जल’ से संबद्ध ‘गीलापन’ या ‘प्यास’ और विपरीत ‘शुष्कता (सूखापन)’ या फिर ‘प्यास बुझाई (तृषाशमन या पान कर्म)’ या फिर ‘जल’ से संबद्ध ‘बूँद’ से ‘वर्षा’ या ‘बर्फ़’ या ‘भाप’ की दिशा मेँ ले जाए. और इन सभी दिशाओँ को जोड़ने वाला लिंक बनाया जाए.
तो रास्ता क्या था? अंततः पापा के चिंतन परिचिंतन से धीरे धीरे जो ढाँचा उभरा उस मेँ से कुछ उदाहरण मैँ नीचे दे रही हूँ. जहाँ ज़रूरत समझी, वहाँ बात साफ़ भी कर रही हूँ:
ब्रह्मांड शीर्षक के अंतर्गत उपशीर्षक पहले सृष्टि (किसी ईश्वर या अन्य दैवी शक्ति द्वारा सृष्ट संपूर्ण संसार और उस मेँ स्थित सभी पदार्थ और जीव), फिर ब्रह्मांड (स्रष्टा की कल्पना से परे भौतिक विश्व – सुव्यवस्थित विश्व – कास्मोस) Òखगोल (पृथ्वी को केंद्र बना कर एक कल्पित अनंत मंडल – पृथ्वी के अतिरिक्त सभी आकाश पिंड इस मेँ परिलक्षित होते हैँ) Òसृष्टिकी (खगोलिकी की नक्षत्रोँ के जन्म आदि का अध्ययन करने वाली शाखा और सृष्टि की उत्पत्ति और विकास का अध्ययन और सिद्धांत) Òसृष्टि रचना सिद्धांत (सूची)…
अगले कुछ शीर्षकोँ मेँ: ब्रहमांड मेँ स्थित आकाश, आकाशीय पिंड आदि के बाद सौर मंडल, Òसूर्य चंद्रमा, Òपिंड कक्षा. पृथ्वी आवर्तन से हम स्वयं पृथ्वी तक आ जाते हैँ. बढ़ते बढ़ते समांतर कोश ले जाता है भूगर्भ मेँ, और उस के विपरीत भूतल पर… फिर गड्ढा गुहा घाटी आदि और उन के विपरीत टीला पर्वत... मैदान और मरुथल… वन और उपवन…
बीच के ढेरोँ शब्दसमूह छोड़ मैँ बहुत आगे बढ़ती हूँ… शाश्वतता, क्षणिकता, प्राचीनता, प्राचीनता… पदार्थ… ताप, शीतलता… प्रेम. घृणा… निराशा, आशा… चिंता, आनंद, उदासी, हँसी, रुदन… शब्द, अर्थ… सत्य, असत्य… गद्य, पद्य, संगीत, नृत्य, नाटक… परिश्रम, विश्राम… कर्म, कारण, परिणाम, प्रभाव, सफलता, असफलता, प्रारंभ, समापन, सृजन, नाश, परिरक्षण, अवनति, उन्नति… परख के बाद तुलना (और तुलना के अंतर्गत सादृश्य, उदाहरण, उपमा, फिर कैसा, ऐसा, वैसा, जैसा). तुलना के बाद भिन्नता (विपरीतता, विरोधाभास, विविधता), साधारणता के बाद असाधारणता (विशिष्टता, विचित्रता, अजूबा, अनुपमता, अभूतपूर्वता), या अच्छाई बुराई.
कहीँ भी किसी तरह के कोटिकरण की कोशिश नहीँ, बस परस्परता-अपरस्परता का संदर्भ क्रम मात्र है. पापा का कहना है इसी प्रकार सर्वकालीन सर्वदेशीय थिसारस गठित किए जाने चाहिएँ.
66-वर्षीय पापा की पहली छपी ‘किताब’ समांतर कोश छपते ही सुपर हिट हो गया. हिंदी जगत ने हाथोँहाथ उस का स्वागत किया. पाँच हज़ार प्रतियोँ का संस्करण दो-तीन महीनोँ मेँ ही बिक गया. तत्काल ही दस हज़ार प्रतियोँ के मुद्रण का आदेश दिया गया.
समांतर कोश ने हिंदी ही नहीँ आधुनिक भारत की कोशकारिता मेँ नया आयाम जोड़ा था. साथ ही संस्कृत थिसारसोँ की निघंटु और अमरकोश वाली पुरातन परंपरा को पुनर्जीवित किया था. एक उत्साही प्रशंसक ने तो इसे ‘शताब्दी की सब से महत्वपूर्ण पुस्तक’ घोषित कर दिया. एक हिंदी साप्ताहिक ने मुखपृष्ठ पर पापा का फ़ोटो छापा और समांतर कोश को ‘हिंदी के माथे पर सुनहरी बिंदी’ बताया. लेखक-संपादक श्री ख़ुशवंत सिंह ने हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा: “ इस ने हिंदी की एक कमी तो पूरी की ही, हिंदी भाषा को इंग्लिश के समकक्ष खड़ा कर दिया.”
अरविंद लैक्सिकन तथा सौफ़्टवेअर
समांतर कोश के प्रकाशन के समय मेरी बेटी तन्वी प्राइमरी स्कूल मेँ थी. एक दिन पापा मुझ से पूछ बैठे: “तुम्हारे लिए यह कितने काम का है.” बिना लागलपेट मैँ ने कहा: “अकेली हिंदी मेँ काम करने वालोँ के लिए तो यह बेहद काम का है, लेकिन मुझ जैसोँ के लिए, मेरे अपने काम के लिए, मेरे अपने लिखने मेँ और तन्वी जैसे बच्चोँ को पढ़ाने के लिए कुछ ख़ास नहीँ है – हमेँ कभी हिंदी तो कभी इंग्लिश और अकसर साथ साथ दोनोँ के शब्दोँ की ज़रूरत पड़ती है.”
इस बातचीत से शुरू हुआ समांतर कोश के डाटाबेस मेँ इंग्लिश शब्दावली पिरोने का काम – और पापा के काम से मेरी सक्रिय संलग्नता का दौर.
पहले चरण मेँ मैँ ने समांतर कोश की एक प्रति पर उस के सभी शीर्षकोँ और उपशीर्षकोँ के इंग्लिश शब्द लिख डाले. उधर सुमीत ने डाटाबेस मेँ सही जगहोँ पर इंग्लिश अभिव्यक्तियाँ जोड़ने का प्रोग्राम बना दिया. अब पापा डाटाबेस को सँवारने सुधारने मेँ लग गए. हमारे हिंदी डाटाबेस मेँ मूलतः हिंदी शब्दावली ही थी. लेकिन उस का सुदृढ़ आधार था पापा द्वारा बनाई गई कोटिकरण से मुक्त सर्वसंगत संदर्भसंगत प्रणाली – जिस मेँ जहाँ भी ज़रूरत हो नई शब्दकोटियाँ सम्मिलित की जा सकेँ. उदाहरण के लिए जब हिंदू या मुस्लिम संस्कारोँ का विषय हो तो ईसाई संस्कार भी बड़ी आसानी से जोड़े जा सकते थे.
पूरा काम सरअंजाम देने या कार्यान्वित करने मेँ पापा को दस साल लगे. पापा ने अपने विशाल डाटाबेस मेँ से द्विभाषी इंग्लिश-हिंदी-इंग्लिश पुस्तक मेँ जाने लायक़ अभिव्यक्तियोँ को चयन-चिह्नित कर दिया तो सुमीत ने उस मेँ से जो आउटपुट निकाला वह समांतर कोश के प्रथम प्रकाशन के ग्यारह साल बाद पेंगुइन इंडिया तथा यात्रा बुक्स की संयुक्त प्रस्तुति के रूप मेँ The Penguin English-Hindi/Hindi-English Thesaurus & Dictionary (द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी) नाम से प्रकाशित हुआ. तीन खंडोँ मेँ 3144 पेजोँ वाला यह कोश संसार मेँ सब से बड़ा द्विभाषी कोश है. तीनोँ खंडोँ मेँ कुल मिला कर अठाइस लाख, उन्नीस हज़ार शब्द हैँ. इस के पहले संदर्भ खंड (कुल शब्द साढ़े आठ लाख) की एक विशेषता है – सपर्याय और विपरीत धारणाओँ के क्रौसरैफ़रेंस. इस से पाठक को एक ही जगह अधिकाधिक जानकारी मिल जाती है. उल्लेखनीय है कि संसार के संदर्भ क्रम से संयोजित किसी भी अन्य थिसारस मेँ यह सुविधा उपलब्ध नहीँ है.
पापा हैँ कि कहीँ ठहरने या रुकने का नाम नहीँ लेते. नित नई संभावनाएँ तलाशते रहते हैँ! उन की लगन है हमारे डाटाबेस को अपटूडेट करते रहना, उस मेँ नए से नए शब्द जोड़ते रहना! इस डाटाबेस को हम लोगोँ ने नाम दिया है अरविंद लैक्सिकन. अब इस मेँ दस लाख से ज़्यादा अभिव्यक्तियाँ हैँ – 5,56,960 हिंदी और 4,55,794 इंग्लिश – कुल जमा 10,12,754! यह संसार मेँ अपनी तरह का एक ही डाटाबेस है. इस की विशेषता है कि चाहे कितनी ही भारतीय और विदेशी भाषाएँ इस मेँ पिरोई जा सकती हैँ.
समय से क़दम मिला कर चलते पापा ने सुमीत के सहयोग से इंटरनैट पर जो औनलाइन भाषायी संसाधन, जो सौफ़्टवेअर दिया है वह आधुनिक भारतीय कोशकारिता का सिरमौर है. एक साथ थिसारस, कोश, भाषाखोजी – जो पर्यायवाची और विपर्यायवाची शब्द तो देता ही है, सांस्कृतिक भौगोलिक रैफ़रेंस बुक भी है. हर हिंदी शब्द इस मेँ रोमन हिंदी मेँ भी लिखा है. दुनिया भर मेँ लाखोँ लोग हिंदी जानते हैँ, हिंदी टाइप करना नहीँ जानते. इंटरनैट पर वे भी रोमन लिपि मेँ टाइप कर के इस से लाभ उठा सकते हैँ, और सरकारी दफ़्तरोँ मेँ काम करने वाले अ-हिंदी बाबू भी.
पापा को शलाका सम्मान मिलने वाले दिन ही 21 मई 2011 को औनलाइन अरविंद लैक्सिकन का विमोचन हुआ. यह तीन संस्करणोँ मेँ उपलब्ध है, उन मेँ से एक निश्शुल्क है और आम आदमी की हर ज़रूरत पूरी करने मेँ सक्षम है. इस से ऊँचे वाले संस्करण वार्षिक शुल्क पर लिए जा सकते हैं.
अब हमारे परिवार के एक और सदस्य मेरे पति अतुल लाल भी हमारी टोली मेँ शामिल हो गए हैँ. हाल ही मेँ उन्होँ ने भगवद् गीता का इंग्लिश अनुवाद अरविंद लैक्सिकन की सहायता से किया है. उन्हीँ के प्रोत्साहन से ही मैँ अरविंद लैक्सिकन के साथ साथ पापा के सभी काम आगे बढ़ाने मेँ लगी हूँ. इस के लिए हम ने एक कंपनी खोली है – अरविंद लिंग्विस्टिक्स. यह कंपनी मुनाफ़े के लिए नहीँ बनी है. हम उत्साहियोँ की मंडली का उद्देश्य है कि आधुनिक परिवेश मेँ भारतीय भाषाओँ को संसार के पटल पर रखना और इंग्लिश को भारतीयोँ के नज़रिए से देखना. अकेली इंग्लिश ही नहीँ अन्य भाषाओँ के साथ भाँति भाँति के कोशोँ की रचना करना. तभी हम संसार के साथ क़दम से क़दम मिला कर बढ़ सकेँगे.
पिछले साल हम ने Arvind Word Power: English-Hindi (अरविंद वर्ड पावर: इंग्लिश-हिंदी) प्रकाशित की. अकारादि क्रम से निर्मित यह हैंडी कोश थिसारस, डिक्शनरी और मिनी ऐनसाइक्लोपीडिया है. एक साथ दोनोँ भाषाओँ के पर्याय, सपर्याय और विपर्यायओँ का अपनी तरह का संकलन. हमारा एक और प्रकाशन है अरविंद तुकांत कोश – उदीयमान कवियोँ के लिए जेबी साथी. अनेक एकल तथा द्विभाषी कोश रचनाधीन हैँ.
हमारा नवीनतम प्रकाशन है शब्दवेध – शब्दोँ के संसार मेँ पापा के सत्तर सालोँ के कृतित्व का लेखाजोखा. आत्मकथाओँ मेँ अपनी तरह का यह अनोखा प्रयोग है.
और एक नया सपना – वर्ल्ड बैंक आफ़ वर्ड्स
अब पापा ने एक नया सपना देखा है: भाषाओँ का विश्व बैंक. उन का काम ख़त्म होने मेँ ही नहीँ आ रहा! उन्होँ ने ऐसी परिकल्पना की है जिस का ख़्याल अब तक किसी को नहीँ आया है. एक ऐसे डाटाबेस की रचना जिस मेँ संसार की सभी भाषाएँ समाई होँ. सारी दुनिया से भाषायी सेतु बनाने का सपना. किसी भी अन्य माध्यमिक भाषा के बग़ैर हिंदी के साथ अनेक भाषाओँ के कोश – जैसे हिंदी-चीनी या हिंदी-फ़्रैंच या हिंदी-अरबी. हमारे डाटाबेस ढेरोँ भाषाएँ समो पाने मेँ सक्षम है. भैया सुमीत ने अपने सौफ़्टवेअर को यह सब कर दिखाने की क्षमता दी है.
सदा उत्साही स्वप्नदर्शी पापा कहते हैँ, “भाषाएँ बढ़ती रहेँगी मेरा काम बढ़ता रहेगा.” यथार्थवादी पापा जानते हैँ कि यह काम कोई एक दो पीढियोँ मेँ पूरा होने वाला है. एक एक कर के नई भाषाएँ इस मणिमाला मेँ पिरोनी होँगी. सब भाषाएँ सम्मिलित होने के बाद यह मानवता की धरोहर, थाती, विरासत बन जाएगा.
उन की टीम के हम साथी भी अपनी सीमित क्षमताएँ जानते पहचानते हैँ. इतना बड़ा काम अकेले हमारे दम पर नहीँ हो सकता. कहीँ से कोई अनुदान या सहयोग हमेँ नहीँ मिला. अपने निजी संसाधनोँ, समझ और श्रम के बल पर काम करते रहे. हम कुल दो भाषाएँ जानते हैँ – हिंदी और इंग्लिश. अब मान लीजिए लिपि की समानता के भरोसे डाटाबेस मेँ मराठी भाषा सम्मिलित करने से शुरू किया जाए, तो काफ़ी शब्द भी एक से होते हुए भी उन के मायने अलग हैँ. राज़ीनामा हिंदी मेँ सहमति या अनुबंध है, मराठी मेँ त्यागपत्र है. वाट लगना जैसा मराठी मुहावरा कहाँ किस जगह डाला जाएगा – यह किसी को तय करना होगा.
यूँ पापा भारतीय भाषाओँ मेँ तमिल से और विदेशी भाषाओँ मेँ चीनी से शुरू करना चाहते हैँ. तमिल दक्षिण भारत से पुल के रूप मेँ काम करेगी. चीनी भाषा इसलिए कि चीन और भारत को एक दूसरे को समझने की ज़रूरत तत्काल है. इस सदी मेँ हमेँ एक दूसरे को झेलना होगा, बातचीत करनी होगी. दोनोँ देशोँ की सरकारेँ दोनोँ भाषाओँ के शिक्षण पर ज़ोर दे रही हैँ. मेरी नज़र मेँ भाषाओँ के विश्व बैंक का सवाल तात्कालिक महत्व का है. छियासीवेँ वर्ष मेँ पापा अभी तक पूरी तरह स्वस्थ और सक्रिय हैँ. जब तक उन का मार्गदर्शन उपलब्ध है, इस पर काम शुरू हो जाना चाहिए. लक्ष्य भाषाओँ के अच्छे ज्ञाताओँ की टीम बना कर हम तत्काल आगे बढ़ना चाहते हैँ.
अरविंद लिंग्विस्टिक्स परिवार के हम सभी सदस्य इस के लिए कटिबद्ध हैँ. यह होना ही चाहिए. होना ही है.
1988 के नवंबर की बात है. पापा को दिल का भारी दौरा सौभाग्यवश सुमीत के अस्पताल के कमरे मेँ ही पड़ा था. इंटैंसिव केअर यूनिट तक ले जाते ले जाते पापा की धड़कन बंद हो गई. मुक्के मार कर फिर से शुरू की गई. कुछ दिनोँ मेँ पापा घर लौट आए – इस सलाह के बाद कि तीन महीने बाद पूरी तरह स्वस्थ हो कर, परहेज़ बरत कर वज़न कम करने बाद बाइपास सर्जरी करवानी होगी. बतरा अस्पताल मेँ आपरेशन सफल रहा. जब छूटे तो एक सप्ताह बाद चैकअप के लिए कहा गया. पापा ख़ुद हमारी ऐंबेस्डर कार चला कर जा पहुँचे. डाक्टर साहब को पता चला तो नाराज़ हुए. आदेश दिया तीन महीनोँ तक कार मत चलाना – ऐसे हैँ मेरे पापा!
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