उत्तर भारत मेँ कसार मीठा चूरमा होता है. लेकिन ब्रह्मांड मेँ कसार का मतलब कुछ और ही होता है.
कसार हम से बहुत बहुत दूर जनम लेती सृष्टियोँ के केंद्र मेँ होते हैँ. हमारी अपनी सृष्टि या ब्रह्मांड मेँ इन की चमक से टक्कर लेने वाला कोई पिंड नहीँ है. हम से अरबोँ प्रकाश वर्ष दूर दूरबीनोँ से देखने पर ये बस साधारण तारोँ जैसे ही दिखाई देते हैँ. यह इतना शक्तिशाली होता है कि समूची मंदाकिनियोँ को नष्ट कर देता है.
तथ्योँ के आधारित पर प्रसूत ड्राइंग मेँ दिखाया गया है कसार Q0957+561 की भीतरी कोर का दृश्य. वेधशालाओँ से प्राप्त जानकारी के आधार पर यह कसार 4 अरब सूर्याकार के पिंडों जितना है. इसे मैग्नेटास्फ़ेरिक सतत ढहता पिंड कहा गया है.
कसार की कल्पना गरम गैसों के चक्रित भीमकाय ब्लैक होल जैसी की गई है. इस स्पाइरल के दोनोँ छोरोँ से कुछ गैस विपरीत दिशाओँ मेँ प्रकाश गति से फुहारोँ जैसी छूटती है.
खगोलभौतिकी के पंडित इस तेज़ होती डिस्क या फिरकी को समझने की जीतोड़ कोशिश कर रहे हैँ. तो दूसरी ओर ज्योतिर्विद कसार के भीतर झाँकने की कोशिश मेँ लगे हैँ. दूरबीनोँ की सहायता से इस की केंद्रीय चालक ऊर्जा या इंजन को समझना ख़ाला जी का घर नहीँ है. कारण—यह क्षेत्र अत्यधिक सघन है और हम से बेहद दूरी पर है.
हार्वर्ड विश्वविद्यालय के ऐस्ट्रोनोमर रूडी शिल और साथियोँ ने कसार Q0957+561 का अध्ययन किया. यह धरती से लगभग 9 अरब प्रकाश वर्ष की दूरी पर है. शिल्ड का कहना है कि ये फुहारे कहाँ से और कैसे छूटते हैँ, यह हम 60 साल रेडियो किरणों से अध्ययन करते रहने पर भी समझ नहीँ पाए हैँ.
खोजों के आधार पर मात्र इतना कह सकते हैँ कि हमारा सारा ज्ञान ब्लैक होलों के बारे मेँ हमारी तमाम अवधारणाओँ से भिन्न परिणाम पर पहुँचता है. इसी लिए उन्हों ने इसे मैग्नेटोस्फ़ेरिक ऐटर्नल्ली कोलाप्सिंग ऑब्जेक्ट नाम दिया है—यानी चुंबकपिंडीय सतत ढहनशील वस्तु. इस से मिलता जुलता नाम पहले 1998 मेँ भारतीय ज्योतिर्भौतिकीविद आभास मित्रा ने रखा था.
©अरविंद कुमार
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