फ़ाउस्ट – भाग 1 दृश्य 02 – नगर द्वार के बाहर

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महाकवि योहान वोल्‍फ़गांग फ़ौन गोएथे कृत

जरमन काव्य नाटक

फ़ाउस्ट – एक त्रासदी

अविकल हिंदी काव्यानुवाद

भाग 1 दृश्य 2. फ़ाउस्ट की अँधेरी अध्ययन शाला

अरविंद कुमार

इंटरनैट पर प्रकाशक

अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा लि

ई-28 पहली मंज़िल, कालिंदी कालोनी

नई दिल्ली 110065


© अरविंद कुमार – सर्वाधिकार सुरक्षित

 

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मंचन, फ़िल्मांकन, टेलिविज़न पर प्रदर्शन के लिए लिखेँ -

अरविंद कुमार

सी-१८, चंद्र नगर, ग़ाज़ियाबाद २०१०१

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

भाग १

२. नगर द्वार के बाहर

(हर तरह के लोग नगर से बाहर जा रहे हैँ.)

कुछ नौसिखिए कामगार

बोलो – कहाँ चलेँ?

अन्य

चौकीदार की गुमटी तक.

पहला

नहीँ, जी. चलो, म्यूलबेर्ग चलेँ.

एक अन्य

क्योँ, वासरहौफ़ क्योँ नहीँ?

दूसरा

वहाँ क्योँ? सुनसान है राह – वहाँ क्योँ चलेँ?

अन्य

बोलो क्या कहते हो तुम?

तीसरा

मैँ तो चलूँगा उन के साथ.

चौथा

मैँ तो कहता हूँ – चलो बुर्गडौर्फ़ – बढ़िया बीयर है वहाँ,

और बढ़िया से बढ़िया हैँ छोरियाँ.

और जो चाहो झगड़ा लफड़ा! वह भी कम नहीँ है वहाँ.

पाँचवाँ

हे भगवान! ठरकी का ठरकी! हर वक़्त कामसे काम!

करनी है ठरक पूरी, तो यहाँ मेरा क्या काम!

घिन आती है मुझे – सच, बात है पक्की.

नौकरानी

मैँ चली वापस! कब तक ठहरूँ यहाँ?

दूसरी

मिलेगा ही वह. उधर – पौपलार पेड़ोँ मेँ – देखते हैँ वहाँ.

नौकरानी

मिल भी गया तो? मेरा तो पूरा दिन हो जाएगा ख़राब.

चिपका रहेगा तेरे साथ,

नाचेगा तेरे साथ.

क्या करूँगी मैँ बेचारी!

दूसरी लड़की

अकेला तो नहीँ होगा वह. नहीँ कहा था

उस ने – कर्ली भी होगा उस के साथ!

विद्यार्थी

देख तो! मुरग़ाबियाँ! देख इन की चाल!

चल! मौज करेँ इन के साथ.

सुरा सुंदरी और सिगार – मर्द को चाहिए और क्या माल!

मध्यवर्गीय युवती

देखा! ये हैँ – आजकल के पढ़े लिखे बाँके जवान!

न लाज, न शर्म, न हया!

इन्हेँ मिल सकती है शहर की शान!

देखी – इन की पसंद! कितनी घटिया!

दूसरा विद्यार्थी (पहले से)

ओय, घोड़े को दे लगाम! देख पीछे!

दो लड़कियाँ – ऊँचा घराना, फ़ैशन की पुड़िया!

एक रहती है मेरे घर के पास. मैँ पड़ा हूँ इस के पीछे!

लगती हैँ गंभीर, लेकिन – मान मेरी बात –

इन्हेँ नहीँ होगा एतराज़, आ जाएँगी हमारे साथ.

पहला विद्यार्थी

न-न-न. वे ठहरीँ पालतू चिड़ियाँ!

जल्दी कर! उड़ न जाएँ जंगल की चिड़ियाँ!

सँभालते हैँ झाड़ू शनीचर को जो हाथ,

जानते हैँ वे – सहलाना है क्या इतवार की रात!

नागरिक

महाचोर है यह नया महापौर! निकम्मा! बेकार!

जीत गया चुनाव, तो वह भी निकला पूरा उचक्का!

हर रोज़ नया फ़रमान, नया फ़तवा!

नहीँ हुआ एक भी सुधार

गरम है लूट का बाज़ार

और, हाँ, नए टैक्स – दे मार! दे मार!

भिखारी

सुनो बड़े बाबू, सुनो बीबी शानदार!

लाल लाल गालकपड़े मालामाल

देखो मेरा हालभूखा हूँ फटेहाल

मेरी पुकारना जाए बेकार

दोगे मुझे दानतुम्हेँ देगा भगवान

मेला है ठेलादुनिया है मेला

देते जाना मुझे भी, सरकार

सुनो बड़े बाबू, सुनो बीबी शानदार!

दूसरा नागरिक

हो त्योहार या हो इतवार

करने को चाहिए कोई बात मज़ेदार.

बात मेँ आ जाता है रंग

जब कहीँ छिड़ जाए जंग.

गरमा जाता है अफ़वाह का बाज़ार.

कितना अच्छा लगता है – करना यह बात –

दूर तुर्किस्तान को खा रहा है आपसी बैर.

वे लोग कर रहे हैँ आपस मेँ तकरार नाहक़.

हो कर रहेगा है तुर्की का बेड़ा ग़र्क़…

और हाथ मेँ थाम कर जाम

खड़े हो जाना सराय की खिड़की पर,

देखना गुज़रते जहाज़

देखना उन पर लहराती रंगबिरंगी बंदनवार.

शाम घर पहुँच कर होना भगवान का शुक्रगुज़ार –

हमारा देश और हमारा काल हैँ शांत – जैसे सपने होँ साकार.

तीसरा नागरिक

हाँ, भाई, बिलकुल यही है मेरा भी हाल.

लड़ेँ मरेँ दूसरे लोग – फोड़ेँ एक दूसरे का कपाल.

उलटा पुलटा हो जाए संसार.

स्वर्ग है अभी तक – हमारे द्वार के इस पार.

बूढ़ी औरत (मध्यवर्गीय लड़कियोँ से)

वाह, हसीन हो तुम और हो जवान.

हज़ारोँ दिल दिमाग़ होँ तुम पर क़ुरबान.

भोली हो, सीधी हो, नहीँ है घमंड, झूठी शान.

अधखिली कली हो तुम, दिल मेँ हैँ अरमान!

पूरे करवा सकती हूँ मैँ तुम्हारे अरमान!

पहली मध्‍मवर्गीय लड़की

अगाथा, यहाँ आ. चुड़ैल से दूर…

बताएगी भाग्य, छलेगी बातोँ से लच्छेदार.

पर, सुन… एक बार था संत ऐंडरू का त्योहार,

इस ने करा दिया था मेरा दूल्हे से साक्षात्कार.

दूसरी मध्‍मवर्गीय लड़की

मेरा दूल्हा था छबीला सिपहसालार

जो अपने दर्पण मेँ इस ने मुझे दिखाया…

तभी से कर रही हूँ उस की तलाश.

दिखा नहीँ वह कहीँ भी आसपास!

सैनिक दल का गीत

ऊँचा क़िला हो

ऊँची दीवार

कँटीली हो नार

पूरी नख़रेदार

बोलेँगे हल्ला

जीतेँगे हम

पाते हैँ वीर

सुंदर उपहार

 

बाजी रणभेरी

करती पुकार

जाग ओ जवान

हिम्मत न हार

जीत हो या हार

 

मौज हो मस्‍ती हो

मार ले मैदान

जीवन तूफ़ान

गढ़ हो या नार

जाएँगे हार

पाते हैँ वीर

सुंदर उपहार

 

(फ़ाउस्ट और वाग्नर)

फ़ाउस्ट

जीवन का संदेश लिए आया वसंत

हिमग्रस्त प्रपात के बंधन का कर दिया अंत.

पांडुर शीत ऋतु का टूट गया मनोबल

भाग रही है छोड़ उपत्यका का आँचल.

पर्वत शिखरोँ से करती तीव्र पलायन

जब तब बरसाती शीतल जलकण.

गिरते हैँ जैसे बीज शस्य पर श्यामल

रंंजित कर देते पुष्पोँ से धरती का आँचल.

 

सूरज को सहन नहीँ है पांडुरता पल भर.

जब जैसे और जहाँ हो जीवन की हलचल

नवल जागरण को वह देता है रंगोँ से भर.

पुष्प आगमन मेँ यदि हो जाए देरी

बुलवा लेता है वह सुंदर नर नारी

दल के दल रंगबिरंगे वस्त्रोँ से सज्‍जित.

देखो, पीछे मुड़ कर नगर द्वार तक देखो –

दूर दूर तक पाओगे नर नारी शोभित…

 

काला विशाल जो नगर द्वार है

अनगिनत रंग वह उगल रहा है.

धूप से खिले उत्सवी नगरजन

करते उद्घोष उमड़े आते हैँ –

हो गया ख्रीस्त का पुनर्जागरण.

 

आकाश मगन हो देख रहा है –

सड़ती झुग्गी से, तंग गली से

कामगार बाहर निकले हैँ.

चौबारोँ, कोठारोँ, तलघर से

कामगार बाहर निकले हैँ.

नीची छत वाले बदबूदार घरोँ से

कामगार बाहर निकले हैँ.

 

पावन गिरजाघर के उत्सव से आते

धूप सेँकते, मौज मनाते

पैर सैकड़ोँ थिरक रहे हैँ,

खेतोँ मेँ, बाग़ों मेँ, मस्‍ती मेँ जन घूम रहे हैँ.

देखो उधर – नदी के चौड़े तल पर

नर्तन करती नौकादल पर

धूप चमकती फिसल रही है.

 

अनगिनत थीँ नाव –

निकल गईँ नज़र के पार –

उन मेँ से अंतिम – इतनी बोझिल

लगता था डूबी, अब डूबी!

 

वह देखो – दूर – सड़क

पर्वत पर चढ़ती, बल खाती,

उस पर भी रंगोँ का मेला.

मस्त है हर बूढ़ा, हर जवान.

 

हर्ष उल्लास का एक ही है संदेश –

मानव का स्वर्ग नहीँ है कहीँ और.

स्वर्ग है यहाँ नीचे – धरती पर.

यहाँ मैँ हूँ मात्र मानव – उन्मुक्त

मनोभाव हैँ संभावनाओँ से युक्त.

 

सीधी सादी मानवता का सहज प्रदर्शन

इस मेँ भागी हो जाता है मेरा मन.

वाग्नर

आभारी हूँ मैँ, महामान्य डाक्टर!

मुझे मिला आप के साथ चलने का अवसर.

है मुझ पर आप का महान उपकार.

अकेला कभी नहीँ आता मैँ यहाँ पर,

नहीँ करता जन साधारण से व्यवहार.

बेसुरे हैँ इन की बीन के तार.

सस्ते हैँ इन के मनोरंजन.

यह सब झेलना है मेरी क्षमता के पार.

लगता है इन पर हो गया है भूत सवार.

फिर भी ये कहते हैँ – ये मना रहे हैँ त्योहार.

 

(लिंडन वृक्ष के नीचे किसान. नाच गान.)

 

सुंदर सजीला गबरू जवान

रंगीन जाकट, फूलोँ की माला

गबरू जवान, रिबन गफ्फेदार

गोल गोल नाचेचक्कर पे चक्कर

    हुर्रा, हुर्रा

        हुर्राट्रा ला ला ला

    बेले पे बजतीमस्‍ती की तान

 

मस्‍ती मेँ नाचा गबरू जवान

कोहनी से ठोँकी छोरी जवान

बल खा के छोरीछोरे से बोली

होश मेँ तो है, ओय गबरू जवान,

खाय मत चक्कर, गबरू जवान

    हुर्रा, हुर्रा

        हुर्राट्रा ला ला ला

    बेले पे बजतीमस्‍ती की तान

 

दाएँ भी चक्करबाएँ भी चक्कर

जामा भी खाएगोल गोल चक्कर

ताल पे ताललाल लाल गाल

चढ़ गई गरमीचढ़ गई साँस

धरती पे लोटे गलबहियाँ डाल

    हुर्रा, हुर्रा

        हुर्राट्रा ला ला ला

    बेले पे बजतीमस्‍ती की तान

 

सँभाल, ओय छोरेहाथ तू सँभाल,

यहाँ वहाँ पापीनज़रेँ ना डाल.

फिर नाचा छोराफिर नाची छोरी

छोरे ने छोरीउठाई हाथो हाथ

लिंडन के पीछेगए साथ साथ

    हुर्रा, हुर्रा

        हुर्राट्रा ला ला ला

    बेले पे बजतीमस्‍ती की तान

 

वृद्ध ग्रामीण

कृपा है आप की, डाक्टर, आइए.

पधारे हम लोगोँ के बीच, आइए.

लीजिए, यह है हमारा सब से अच्छा प्याला,

कगार तक छलछलाता. ताज़ी है हाला.

मेरी यही है हार्दिक शुभकामना –

शांत हो आप की हर प्यास, पूरी हो हर मनोकामना,

आप के जीवन मेँ होँ उतने दिन

जितने हैँ इस हाला के कण.

फ़ाउस्ट

आभारी हूँ – जो पाया आप का सत्कार.

मिले आप को भी मनचाहा उपहार.

वृद्ध

ठीक ही है – आप हमारे हर्ष मेँ आए.

दयावान हैँ आप. बुरे समय पर हमेशा आए.

कृपा बनाए रखेँ हम पर.

हैँ यहाँ कितने ही जन –

जिस साल प्लेग फैला था धरती पर –

आप के पूज्य पिता से जो जीवन धन पाए.

आप के हाथोँ ज्वर ताप और संताप से बच पाए.

उन दिनोँ आप थे नौजवान – थे वय मेँ छोटे.

हर अस्पताल हो निर्भय तब भी आप गए थे.

गली गली मरने वालोँ के अंबार लगे थे.

जी जान लगा कर – सब की सेवा मेँ आप लगे थे.

रक्षक थे आप हमारे. आप का रक्षक था भगवान.

आप आते थे ऐसे जैसे संकट मेँ आता है भगवान.

सब

हर्र डाक्टर! यह जाम आप के नाम!

बरसोँ बनी रहे आप की कृपा.

बरसोँ आएँ आप हमारे काम.

फ़ाउस्ट

धन्यवाद का पात्र है भगवान –

वही सिखाता है आदमी को आना एक दूसरे के काम.

वाग्नर

धन्य हैँ आप! आप को मिला है जन गण का प्यार.

धन्य हैँ – जीते जी पा रहे हैँ प्रशंसा का पुरस्कार.

पुत्रोँ को करा रहे हैँ पिता आप के दर्शन.

गौरव से दमक रहे हैँ उन के नयन.

पूछते हैँ वे – आप हैँ कौन?

दौड़ते हैँ छूने को आप के चरण,

करने को आप के दर्शन.

रुक गया है नृत्य! मौन है ताल.

आप को देखने खड़े है सब बाँध के क़तार.

हर्ष से टोप रहे हैँ उछाल.

टेक कर घुटने कर रहे हैँ सम्मान.

लगता है कर रहे हैँ साक्षात भगवान का सम्मान.

फ़ाउस्ट

बस कुछ ही क़दम पर है वह चट्टान

जहाँ बैठेँगे हम – कुछ पल करेँगे विश्राम.

कितनी बार बैठा हूँ वहाँ – मैँ, अकेला, जिज्ञासा से भरपूर –

पूजा उपवास से चकनाचूर.

तब आशा थी बलवान, अचल अडिग था विश्वास,

सपनोँ से भरा रहता था मन मस्तिष्क का आकाश.

सोचता था –

आँसू और बलिदान से पसीज जाएँगे भगवान.

प्राप्त हो जाएगा मुझे उस महारोग का निदान

जिस से पीड़ित था सारा ग्राम.

अब जब मेरा अभिनंदन कर रहा है ग्राम

अपने पर हँस रहा है मन,

इन की प्रशंसा से, स्तुति से, पीड़ित है मन.

कराह उठता है मेरा मन.

काश, झाँक सकते तुम मेरे भीतर –

जान जाओगे तुम – न मुझे, न मेरे पिता को है अधिकार

जो कर सकेँ यह स्तुति स्वीकार.

मेरे पिता थे ईमानदार.

वे रहते थे हैरान, परेशान.

कई बार किए सत्य प्रयास

जानने को प्रकृति के नियम और रहस्य.

करते रहते थे कीमियागरी के प्रयोग.

चूल्हे पर चढ़ाते थे भाँति भाँति के रसायन.

खोजते रहते थे नए नए नुस्ख़े अनजान.

करते रहते थे रक्तसिंह का, जिसे कहते हैँ सिंदूर,

रजत की संतान कमलिनी – यानी सीसे से – मिलाप.

चलती थी धौँकनी, खौलता था क्वाथ.

तब होती थी स्वर्ण और रजत की सुहागरात.

काँच की बोतल थी सुहाग कक्ष. उस पर छा जाती थी धुंध

तब तैयार होती थी औषध.

भगवान को प्यारे हो जाते थे रोगी, बंद हो जाती थी ज़बान.

जीवितोँ का असीम था अज्ञान.

बचे रहते थे जो – मृत्यु का कारण नहीँ पाते थे जान.

कहना कठिन है – कितने हुए महामारी का शिकार,

हमारी औषध ने ली कितनोँ की जान.

मेरे इन हाथोँ ने कराया था सैकड़ोँ को विषपान.

वे चले गए. जीवित हूँ मैँ सुनने को अज्ञान का गुणगान.

वाग्नर

क्योँ दोष देते हैँ अपने को आप?

स्पष्ट है – हर भले आदमी का है काम

पालना पूर्वजोँ के आदेश, करना हर संभव प्रयास.

आप का गौरव था – होना अपने पिता की संतान.

आप ने पाया था उन से जो ज्ञान

आप के हाथोँ विकसित हो रहा है वह ज्ञान.

जाने किस बुलंदी को पहुँचाएगी उसे आप की संतान!

फ़ाउस्ट

सुखी है वह जन जो कर सकता है

असत्य के तल से उठ पाने की दुस्साहसपूर्ण आशा.

मानव की बुद्धि और पहुँच से रहती है दूर

मानव की सर्वाधिक महत्वपूर्ण आकांक्षा.

उस की हर उपलब्धि है निष्फल.

छोड़ो, वह बात. सुंदर है यह पल.

इस के सौंदर्य पर मत छाने दो निराशा के बादल.

देखो –

खेतोँ खलिहानोँ ने ओढ़ ली सूर्यास्त की लाल चादर.

उड़ा जा रहा है दिनकर

किसी और देश

देने नव जागरण का संदेश.

काश, लग जाएँ मेरे पंख.

तोड़ दूँ धरती का बंधन. उड़ जाऊँ सूर्य के संग.

अनश्वर लालिमा की बाँहोँ मेँ सिमट आया है संसार.

हो कर उस से एकाकार

निरखना चाहता हूँ मैँ पर्वतोँ के दमकते शिखर,

घाटियाँ अँधेरी और शांत.

देखना है रजत जलधार पर चढ़ता है कैसे सोने का पानी.

बनैले पर्वत और गहरी खाई

रोक नहीँ पाएँगे मेरी देवताओँ जैसी उड़ान.

फट जाएगा सागर का सीना – जब देखेगा मुझे

विस्मय से विस्फृत हो जाएँगे नयन.

नहीँ होगा यह सब! डूब जाएगा सूरज.

फिर क्षीण हो जाएगी मेरी जाग्रत चेतना?

काश, अनश्वर प्रकाश का कर सकूँ मैँ पान.

मेरे सामने हो दिन, पीठ पीछे हो रात.

चरणोँ मेँ लहराए सागर – शीश पर हो दिव्य आकाश!

स्वप्न है यह, मात्र स्वप्न!

सूर्य ने बिखरा दिया अंधकार.

हो नहीँ सकती कोई नश्वर उड़ान

इस आध्यात्मिक चेतना के समान!

फिर भी – जिन मेँ है चेतना का वास

उन की प्रगति होती है अनंत, उद्दाम.

ऊपर जहाँ है नील गगन का विस्तार

गूँजता है अदृश्य कोकिलोँ का गान.

ऊँचे देवदार के ऊपर, बहुत ऊपर…

देखो पंख फैलाए गरुड़ोँ की उड़ान.

वहाँ खादर और सागर के पार

देश जाते राजहंसोँ की उड़ान.

वाग्नर

सपने मेरे भी हैँ, कल्पनाएँ भी,

नहीँ है उन मेँ एक भी आप के समान.

ऊबता हूँ मैँ भी

देख कर वही खेत, वही नदी नाले, वही मैदान.

नहीँ चाहा मैँ ने कभी भरना उड़ान.

नहीँ, जी, नहीँ. मेरे लिए है काफ़ी

पलटते रहना पुस्तक और पोथी.

वह शाम हो जाती है सुहानी –

जब मिल जाए पढ़ने को कोई अनमोल पोथी पुरानी.

यही है क्या कम उपहार –

जीवन की धड़कन मेँ बहती है

स्वर्ग की अनुकंपा की रसधार.

फ़ाउस्ट

एकाकी है तुम्हारी आत्मा की प्यास.

नहीँ जानते तुम – तुम मेँ है एक और भी प्यास.

मेरे हृदय मेँ एक साथ है दो आत्माओँ का वास.

दोनोँ चाहती हैँ एक दूसरे से छुटकारा.

एक आत्मा चाहती है भोगना सृष्टि के भोग.

इस की वासना है मर्त्य जीवन के सब हर्ष उल्लास.

दूसरी आत्मा छटपटाती रहती है दिन रात.

धरातल से छूट कर – वह चाहती है छूना अनंत आकाश.

आकाश मेँ कहीँ विचरते होँ देवता

तो उन को पुकारती है मेरी आत्मा.

आओ, अपना स्वर्णिम लोक छोड़ कर आओ –

मुझे नव जीवन, नव भाग्योदय के देश ले जाओ,

काश, मिल जाए किसी वैतालिक का मायावी परिधान

जो करा दे मुझे अनुभव

अनोखा, अभूतपूर्व, अनजान…

नहीँ छोड़ूँगा मैँ उसे – बदले मेँ मिले चाहे पूरा संसार…

वाग्नर

पारासेल्सस ने लिखा है –

हवा मेँ तैरते रहते हैँ भूत पिशाच.

आमंत्रण मत दीजिए उन्हेँ

मत बुलाइए उन्हेँ.

आ धमकते हैँ वे

चारोँ ओर से घेर लेते हैँ वे…

 

उत्तर का पिशाच!

तीर सी तीखी है उस की जीभ!

उड़ते उड़ते काट खाता है वह!

भूखा है, प्यासा है, पूर्व का पिशाच!

मरुथल का ताप ले कर आता है दक्षिण का भूत!

जला डालता है वह दिल और दिमाग़.

पश्चिम से आते हैँ दानवोँ के दल.

पहले लगते हैँ मधुर, मधुरतर, मधुरतम.

फिर सुखा डालते हैँ सारे खेत और इनसान.

पुकारते ही आ धमकते हैँ वे.

क़हर बरपाना है उन का काम.

बनते हैँ वे आप के दास.

हुकुम बजा लाने का करते हैँ दिखावा.

चालाक हैँ वे, कहते हैँ वे – देवदूत हैँ वे.

करने आए हैँ आप के काम.

देवदूतोँ जैसे मधुर होते हैँ उन के झूठे बैन.

 

आइए, अब लौट चलेँ हम.

हो गया धरती का मेला उदासा.

हवा मेँ आ गई सिहरन. घिर आया कुहासा.

भले लगने लगते हैँ जब पड़े शाम

घर के चूल्हे, चिमनी और काम.

रुक क्योँ गए? हुआ क्या?

धुँधलके मेँ घूर रहे हैँ – क्या?

फ़ाउस्ट

वह कुत्ता…

मक्का के खेत मेँ, खूँट मेँ, दौड़ता -

वाग्नर

तो क्या? कुछ देर पहले मैँ ने भी देखा.

फ़ाउस्ट

अजीब जानवर है वह! तुम ने ध्यान से देखा?

वाग्नर

पूडल है! हर पूडल के जैसा.

खोज रहा है गंध स्वामी की, स्वामी से बिछुड़ कर.

फ़ाउस्ट

देखो – वह लगा रहा है हमारे चक्कर.

हमारे पास, पास, और पास…

आ रहा है उस का हर चक्कर.

हो सकता है – हो आँखोँ का धोखा –

मुझे लगता है – मैँ ने देखा

उस की राह मेँ था

उस के पीछे ज्वाला का चक्कर.

वाग्नर

मुझे तो दिखाई देता है, बस, एक काला कुत्ता.

हुआ है आप को धोखा.

फ़ाउस्ट

नहीँ, हमारे चारोँ ओर खीँचा जा रहा है घेरा.

लपेटने को हमारे पैर – माया का चकफेरा.

वाग्नर

नहीँ! नहीँ! भय ने है उसे घेरा.

मालिक से बिछुड़ गया है वह.

अजनबियोँ से घिरा है वह.

फ़ाउस्ट

आ गया और भी पास.

और भी छोटा है घेरा.

वाग्नर

नहीँ है भूत पिशाच.

कुत्ता है वह, बस, कुत्ता.

घुरघुरा रहा है, पिनपिना रहा है,

लोट कर धरती पर दुम हिला रहा है –

जैसे हर कुत्ता.

फ़ाउस्ट

चलो! फिर चलेँ!…

हिश! तू! तू यहीँ ठहर.

वाग्नर

पूडल है. खेलना चाहता है हमारे साथ.

रुक जाइए. उस ने फिर हमेँ देखा.

बुलाइए उसे. ख़ुश हो कर उछलेगा, कूदेगा.

छड़ी फेँक कर देखिए – पानी की ओर.

मुँह मेँ पकड़ ले आएगा –

कुत्तोँ को अच्छा लगता है यह खेल.

फ़ाउस्ट

ठीक कहते हो!

कल्पना नहीँ है यह. खेल है सच्चा.

नहीँ है कोई पिशाच! बस सरकसी कुत्ता.

वाग्नर

कुत्ता सधा हो और अच्छा,

तो हो सकता है दोस्त सच्चा.

हाँ, उसे चाहिए आप का प्यार.

बना लीजिए उसे भी अपना छात्र!

विद्वान कुत्ता! आप के छात्रोँ का छात्र!

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