श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद
ब्रह्म विद्या योग शास्त्र
अध्याय 17
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अनुवादक
अरविंद कुमार
इंटरनैट पर प्रकाशक
अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.
कालिंदी कालोनी
नई दिल्ली 110065
सप्तदशोऽध्यायः
श्रद्धात्रय विभाग योग
अर्जुनोवाच
ये शास्त्र-विधिम् उत्सृत्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वम् आहो रजस् तमः ॥१॥
अर्जुन ने कहा
बहुत से श्रद्धालु शास्त्र मेँ बताए तरीक़े से हट कर यज्ञ और पूजा करते हैँ. कृष्ण, उन की यह निष्ठा, यह आस्था कैसी है? सत्त्व गुण वाली, राजसी या तामसिक?
श्रीभगवान् उवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥२॥
श्री भगवान ने कहा
देहधारियोँ की श्रद्धा का जन्म उन के स्वभाव से होता है. वह सात्त्विक, राजसिक और तामसिक – तीन प्रकार की होती है. सुन.
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥३॥
भारत, सब की श्रद्धा अपने अपने व्यक्तित्व और अपने अपने स्वभाव के अनुरूप होती है. मनुष्य श्रद्धा का पुतला है. जिस की जैसी श्रद्धा होती है, वैसा ही वह मनुष्य होता है.
यजन्ते सात्त्विका देवान् यक्ष-रक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान् भूतगणांश् चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥४॥
सात्त्विक वृत्ति वाले मनुष्य देवताओँ की पूजा करते हैँ. राजसिक लोग यक्षोँ और राक्षसोँ की पूजा करते हैँ. प्रेतोँ और भूतोँ की पूजा तामसिक जन करते हैँ.
अशास्त्र-विहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः ।
दम्भाहङ्कार-संयुक्ताः काम-राग-बलान्विता ॥५॥
कई लोग शास्त्र के मार्ग से हट कर भयंकर तपस्या करते हैँ. उन मेँ दंभ और अहंकार भरा होता है. उन के मन कामनाओँ से भरे होते हैँ. वे संसार मेँ आसक्त होते हैँ. और अपने बल पर घमंड करते हैँ.
कर्षयन्तः शरीरस्थं भूत-ग्रामम् अचेतसः ।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान् विद्ध्य् आसुर-निश्चयान् ॥६॥
अपने शरीर को और उस शरीर मेँ स्थित मुझे वे नाहक़ खदेड़ते और कष्ट देते हैँ. तू यह समझ कि उन के निश्चय आसुरी हैँ.
आहारस्त्व् अपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
यज्ञस् तपस् तथा दानं तेषां भेदम् इमं शृणु ॥७॥
लोगोँ का प्रिय भोजन भी तीन तरह का होता है. इसी तरह उन का यज्ञ, उन का तप और दान भी तीन तरह का होता है. यह सुन.
आयुः-सत्त्व-बलारोग्य-सुख-प्रीति-विवर्धनाः ।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विक-प्रियाः ॥८॥
वे आहार जो आयु, सत्त्व (प्राण शक्ति), बल, स्वास्थ्य, सुख और प्रेम को बढ़ाते हैँ, जो रसपूर्ण, चिकने, स्थिर और मनभावन होते हैँ, वे सात्त्विक लोगोँ को पसंद आते हैँ.
कट्वम्ल-लवणात्युष्ण-तीक्ष्ण-रूक्ष-विदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःख-शोकामय-प्रदाः ॥९॥
कड़वे, खट्टे, नमकीन, गरम, तीखे, रूखे, जलन पैदा करने वाले, दुःख, शोक और बीमारी लाने वाले आहार रजोगुण वालोँ को पसंद आते हैँ.
यात-यामं गत-रसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टम् अपि चामेध्यं भोजनं तामस्-प्रियम् ॥१०॥
तामसिक जनोँ को वे आहार पसंद हैँ जो यातयाम होँ – जो पिछले दिन बने होँ. ऐसे आहारोँ का रस समाप्त हो चुका होता है. उन मेँ से बास आती है. वे आहार भी तामसी जनोँ का प्रिय हैँ जो बचे खुचे और जूठे होँ, अपवित्र होँ, जो यज्ञ मेँ न चढ़ाए जा सकते होँ.
अफलाकाङ्क्षिभिर् यज्ञो विधि-दृष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यम् एवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥११॥
सात्त्विक यज्ञ किसी फल की इच्छा से नहीँ किया जाता. ऐसा यज्ञ शास्त्र मेँ वर्णित विधि से किया जाता है. यज्ञ करना कर्तव्य है – यह मान कर वह यज्ञ किया जाता है.
अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थम् अपि चैव यत् ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥१२॥
फल की इच्छा से जो यज्ञ किया जाता है और जो अपनी शान का दिखावा करने के लिए किया जाता है, भरत श्रेष्ठ अर्जुन, उस यज्ञ को तू राजसिक यज्ञ समझ.
विधिहीनम् असृष्टान्नं मन्त्रहीनम् अदक्षिणम् ।
श्रद्धा-विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥१३॥
तामसी यज्ञ उसे कहते हैँ जो शास्त्र की विधि बिना किया जाता है. उस मेँ अन्न का दान नहीँ किया जाता, मंत्र नहीँ पढ़े जाते, दक्षिणा नहीँ दी जाती. ऐसे यज्ञ मेँ श्रद्धा भी नहीँ होती.
देव-द्विज-गुरू-प्राज्ञ-पूजनं शौचम् आर्जवम् ।
ब्रह्मचर्यम् अहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥१४॥
देवताओँ, ब्राह्मणोँ, गुरुओँ और ज्ञानियोँ की पूजा को, सफ़ाई और पवित्रता को, सरलता और कपटहीनता को, ब्रह्मचर्या और अहिंसा के आचरण को शरीर का तप कहते हैँ.
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रिय-हितं च यत् ।
स्वाध्यायाऽऽभ्यासनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥१५॥
वाणी का तप वह बोली है जो उत्तेजित न करे. सत्य और प्यार से भरी हो और भला करने वाली हो, स्वाध्याय और अभ्यास मेँ लगी हो.
मनः-प्रसादः सौम्यत्वं मौनम् आत्म-विनिग्रहः ।
भाव-संशुद्धिर् इत्य् एतत् तपो मानसम् उच्यते ॥१६॥
मन की प्रसन्नता को, शांत सौम्य स्वभाव को, मौन को, आत्मनियंत्रण को और विचारोँ की शुद्धता को मन का तप कहा जाता है.
श्रद्धया परया तप्तं तपस् तत् त्रिविधं नरैः ।
अफलाकाङ्क्षिभिर् युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥१७॥
ये तीन प्रकार के तप सात्त्विक कहे जाते हैँ. ये पूरी श्रद्धा से किए जाते हैँ. इन्हेँ करने वालोँ के मन मेँ फल की इच्छा नहीँ होती.
सत्कार-मान-पूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।
क्रियते तद् इह प्रोक्तं राजसं चलम् अध्रुवम् ॥१८॥
अपने सत्कार, अपनी शान के लिए दंभपूर्वक किए गए तप को राजसिक तप कहते हैँ. वह तप टिकाऊ नहीँ होता. उस मेँ दृढ़ता नहीँ होती.
मूढ-ग्राहेणात्मनो यत् पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत् तामसम् उदाहृतम् ॥१९॥
तामसिक तप मूढ़तापूर्वक और हठ से मन, वाणी और शरीर को पीड़ा पहुँचा कर किया जाता है. उस का उद्देश्य दूसरोँ का बुरा करना होता है.
दातव्यम् इति यद् दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद् दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥२०॥
सात्त्विक दान मात्र दान के लिए किया जाता है. यह ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है जिस से बदले मेँ कुछ मिलने की आशा न हो. ऐसा दान सही स्थान और समय पर सही पात्र को दिया जाता है.
यत् तु प्रत्युपकारार्थं फलम् उद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद् दानं राजसं स्मृतम् ॥२१॥
राजसिक दान वह है जो बदले मेँ कुछ मिलने की आशा से किया जाता है. इस दान मेँ दानी को कुछ अच्छा फल मिलने की आशा होती है. यह दान बड़ी कठिनाई से दिया जाता है.
अ-देश-काले यद् दानम् अपात्रेभ्यश् च दीयते ।
असत्कृतम् अवज्ञातं तत् तामसम् उदाहृतम् ॥२२॥
ग़लत स्थान पर, ग़लत समय, ग़लत पात्र को दिया दान तामसी होता है. इस मेँ दान पाने वाले का तिरस्कार किया जाता है.
ॐ तत्सद् इति निर्देशो ब्रह्मणस् त्रिविध स्मृतः ।
ब्राह्मणास् तेन वेदाश् च यज्ञाश् च विहिताः पुरा ॥२३॥
‘ॐ तत् सत्’ – यह ब्रह्म का तिहरी परिभाषा कही गई है. प्राचीन काल मेँ इस ने ब्राह्मणोँ, वेदोँ और यज्ञोँ को बनाया.
तस्माद् ओम् इत्य् उदाहृत्य यज्ञ-दान-तपः क्रियाः ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्म-वादिनाम् ॥२४॥
इस लिए ब्रह्मवादी लोग शास्त्रोँ मेँ वर्णित सभी यज्ञ, दान, तप आदि काम के आरंभ मेँ ॐ आदि का उच्चारण करते हैँ.
तद् इत्य् अनभिसन्धाय फलं यज्ञ-तपः क्रियाः ।
दान-क्रियाश् च विविधाः क्रियन्ते मोक्ष-काङ्क्षिभिः ॥२५॥
‘तत्’ – ‘वह’ यानी परे, दूर, अलग, असंपृक्त – का उच्चारण कर के, और मन मेँ किसी भी प्रकार के फल की इच्छा न कर के, मोक्ष चाहने वाले लोग यज्ञ, तप और दान आदि धार्मिक कृत्य करते हैँ.
सद्भावे साधु-भावे च सद् इत्य् एतत् प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥२६॥
सद्भाव और साधु भाव मेँ ‘सत्’ का प्रयोग किया जाता है. जितने भी अच्छे काम हैँ, पार्थ, उन सब मेँ ‘सत्’ लगता है.
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सद् इति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयम् सद् इत्य् एवाभिधीयते ॥२७॥
यज्ञ, तप और दान मेँ लगे रहने के भाव को ‘सत्’ कहा जाता है. और इन के लिए जो कर्म किया जाता है वह भी ‘सत्’ कहलाता है.
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस् तप्तं कृतं च यत् ।
असद् इत्य् उच्यते पार्थ न च तत् प्रेत्य नो इह ॥२८॥
जो कुछ भी हवन, दान, तप या अन्य कोई कर्म किया, उस मेँ अगर श्रद्धा नहीँ है, निष्ठा नहीँ है तो, पार्थ, वह ‘असत्’ ही कहा जाता है. उस का प्रभाव न उस लोक मेँ हैँ, न इस लोक मेँ.
इति श्रीमद्-भगवद्-गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्म-विद्यायां योग-शास्त्रे श्री-कृष्णार्जुन-संवादे श्रद्धात्रय-विभाग-योगो नाम सप्तदशोऽध्यायः
यह था श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद् ब्रह्म विद्या योग शास्त्र श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मेँ श्रद्धात्रय विभाग योग नाम का सतरहवाँ अध्याय
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