श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद
ब्रह्म विद्या योग शास्त्र
अध्याय 9
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अनुवादक
अरविंद कुमार
इंटरनैट पर प्रकाशक
अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.
कालिंदी कालोनी
नई दिल्ली
नवमोऽध्यायः
राजविद्या राजगुह्य योग
श्रीभगवान् उवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्य् अनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञान-सहितं यज् ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥१॥
श्री भगवान ने कहा
अब मैँ तुझे ज्ञान विज्ञान सहित परम गुप्त रहस्य बताऊँगा. तू अनसूय है – तुझे ईर्ष्या नहीँ है. यह जान कर तुझे अशुभ से मुक्ति मिलेगी.
राज-विद्या राज-गुह्यं पवित्रम् इदम् उत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुम् अव्ययम् ॥२॥
यह सब ज्ञानोँ का राजा है. यह परम गुप्त रहस्य है. पवित्र करने वाला है. उत्तम है. इसे प्रत्यक्ष समझा जा सकता है. यह धर्म के अनुरूप है, करने मेँ सहज है और अव्यय है.
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्यु-संसार-वर्त्मनि ॥३॥
परंतप, जो लोग इस धर्म मेँ श्रद्धा नहीँ करते, वे मुझे नहीँ पाते. मृत्यु से भरे इस संसार मार्ग पर वे बार बार आते रहते हैँ.
मया ततम् इदं सर्वं जगद् अव्यक्त-मूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्व-भूतानि न चाहं तेष्व् अवस्थितः ॥४॥
यह सारा जगत मुझ से, मेरे अप्रकट रूप से, ओतप्रोत है. सारे भौतिक पदार्थ और जीव मुझ मेँ हैँ. और मैँ उन मेँ नहीँ हूँ…
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगम् ऐश्वरम् ।
भूतभृन् न च भूतस्थो ममात्मा भूत-भावनः ॥५॥
… और वे भूत मुझ मेँ नहीँ हैँ. मेरे योग की महिमा देख! इन भौतिक पदार्थोँ और प्राणियोँ को जन्म देने वाली और इन का भरण – पालन – करने वाली मेरी आत्मा इन मेँ नहीँ है.
यथाकाश-स्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्य् उपधारय ॥६॥
जिस प्रकार सब कहीँ घूमने वाली महान वायु आकाश मेँ स्थित रहती है, तू यह समझ कि वैसे ही सारे भूत मुझ मेँ हैँ.
सर्व-भूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।
कल्प-क्षये पुनस् तानि कल्पादौ विसृजाम्य् अहम् ॥७॥
कौंतेय, जब कल्प का अंत होता है, तो सब भूत समुदाय मेरी प्रकृति मेँ समा जाते हैँ. वे मुझ मेँ लय हो जाते हैँ. कल्प का आरंभ होने पर मैँ फिर से उन्हेँ निकालता हूँ.
प्रकृतिं स्वाम् अवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूत-ग्रामम् इमं कृत्स्नम् अवशं प्रकृतेर् वशात् ॥८॥
अपनी प्रकृति को अधीन कर के मैँ इस संपूर्ण भूत समुदाय को बार बार सृजित करता हूँ. ये सब मेरी प्रकृति के अधीन हैँ.
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवद् आसीनम् असक्तं तेषु कर्मसु ॥९॥
लेकिन, धनंजय, मेरे ये कर्म मुझे बाँधते नहीँ. यह सब करते समय मैँ उदासीन की भाँति तटस्थ रहता हूँ और आसक्त नहीँ होता.
मयाऽऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।
हेतुनाऽऽनेन कौन्तेय जगद् विपरिवर्तते ॥१०॥
मेरी अध्यक्षता मेँ प्रकृति सब चर और अचर जगत को जन्म देती है. इस लिए, कौंतेय, जगत का चक्र चलता रहता है.
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुम् आश्रितम् ।
परं भावम् अजानन्तो मम भूत-महेश्वरम् ॥११॥
वे मूर्ख लोग मेरा तिरस्कार करते हैँ, मेरा महत्व घटाते हैँ. वे यह समझते हैँ कि सब भूत प्राणियोँ का महेश्वर और अजन्मा मैँ (इन कर्मोँ को करने के लिए) मानव देह पर आश्रित हूँ. वे मेरे परम भाव को नहीँ जानते.
मोघाशा मोघ-कर्माणो मोघ-ज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीम् आसुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥१२॥
उन चेतनाहीन लोगोँ की आशा बेकार है. उन का कर्म निष्फल है. उन का ज्ञान निरर्थक है. वे मनमोहक राक्षसी और आसुरी प्रकृति पर आश्रित हैँ.
महात्मानस् तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिम् आश्रिताः ।
भजन्त्य् अनन्य-मनसो ज्ञात्वा भूतादिम् अव्ययम् ॥१३॥
लेकिन, पार्थ, जो महात्मा मेरी दैवी प्रकृति की शरण मेँ आते हैँ, वे अनन्य मन से मुझे भजते हैँ – उन का मन किसी अन्य मेँ नहीँ होता. वे जानते हैँ कि मैँ सब को जन्म देता हूँ और अव्यय हूँ.
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश् च दृढव्रताः ।
नमस्यन्तश् च मां भक्त्या नित्य-युक्ता उपासते ॥१४॥
वे हमेशा मेरा कीर्तन करते हैँ – मेरे गुणोँ का गान करते हैँ. दृढ़ निश्चय से वे हमेशा मुझे पाने का जतन करते हैँ. भक्ति के साथ वे मेरे सामने शीश नवाते हैँ. वे नित्य योगी हैँ. वे मेरी पूजा उपासना करते हैँ.
ज्ञान-यज्ञेन चाप्य् अन्ये यजन्तो माम् उपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥१५॥
कुछ अन्य जन ज्ञान यज्ञ से मेरी उपासना करते हैँ. उन मेँ से कुछ लोग मेरी पूजा मुझे एक – अविभाज्य, अविभक्त – मान कर, अद्वैत भाव से करते हैँ. कुछ द्वैत भाव से मेरी पूजा करते हैँ. कुछ अन्य अकसर मेरी पूजा विश्वरूप मेँ करते हैँ.
अहं क्रतुर् अहं यज्ञः स्वधाहम् अहम् औषधम् ।
मन्त्रोऽहम् अहम् एवाज्यम् अहम् अग्निर् अहं हुतम् ॥१६॥
क्रतु – वैदिक कर्मकांड – मैँ हूँ. यज्ञ मैँ हूँ. आहुति मैँ हूँ. औषध – हवन सामग्री – मैँ हूँ. यज्ञ मेँ बोला जाने वाला मंत्र मैँ हूँ. मैँ ही घी हूँ. मैँ ही अग्नि हूँ. जिसे आहुति दी जाती है, वह भी मैँ हूँ.
पिताहम् अस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
वेद्यम् पवित्रम् ओँकार ऋक् साम यजुर् एव च ॥१७॥
इस जगत का पिता मैँ हूँ, माता मैँ हूँ, धाता मैँ हूँ, दादा मैँ हूँ. जानने योग्य जो पवित्र ओँकार है, वह मैँ हूँ. मैँ ही ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद हूँ.
गतिर् भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजम् अव्ययम् ॥१८॥
जगत का लक्ष्य, पालक स्वामी, कर्मोँ का साक्षी, शरणस्थल, शुभचिंतक मित्र मैँ हूँ. इसे बनाने और नष्ट करने वाला मैँ हूँ. मैँ इस का स्थान हूँ. मैँ इस का भंडार हूँ. इस का कभी नष्ट न होने वाला बीज मैँ हूँ.
तपाम्य् अहमहं वर्षं निगृह्णाम्य् उत्सृजामि च ।
अमृतं चैव मृत्युश् च सद् असच् चाहम् अर्जुन ॥१९॥
अर्जुन, मैँ तपता हूँ, वर्षा को लाता और बरसाता हूँ. अमरत्व मैँ हूँ और मृत्यु भी मैँ ही हूँ. सत् असत् – जो है और नहीँ है, विद्यमान और अविद्यमान – वह मैँ हूँ.
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैर् इष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यम् आसाद्य सुरेन्द्रलोकम्
अश्नन्ति दिव्यान् दिवि देवभोगान् ॥२०॥
तीनोँ वेदोँ को जानने वाले, सोम रस का पान करने वाले और वे लोग जिन के पाप पवित्र हो चुके हैँ, यज्ञ के द्वारा मेरी पूजा करते हैँ. यज्ञ कर के वे स्वर्ग प्राप्ति की प्रार्थना करते हैँ. पुण्योँ के प्रताप से उन्हेँ इंद्रलोक मिल जाता है. वहाँ उन्हेँ वे सब भोग भोगने को मिलते हैँ जो देवताओँ को मिलते हैँ.
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं त्रयी-धर्मम् अनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते ॥२१॥
विशाल स्वर्ग लोक को भोग कर जब उन के पुण्योँ का प्रभाव क्षीण हो जाता है, तो वे फिर मर्त्य लोक मेँ आ जाते हैँ. तीनोँ वेदोँ के धर्म का आश्रय लेने और फल पाने की इच्छा से कर्म करने वालोँ को आवागमन का यही चक्र मिलता है.
अनन्याश् चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याऽऽभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्य् अहम् ॥२२॥
किसी अन्य का ध्यान मन मेँ न लाते हुए कुछ लोग मेरा ही चिंतन करते हैँ और मेरी ही पूजा करते हैँ. उन नित्य योगियोँ के योग और क्षेम की, कल्याण की, देखभाल मैँ स्वयं करता हूँ.
येऽप्य् अन्य देवता-भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्य् अविधिपूर्वकम् ॥२३॥
श्रद्धा के वशीभूत हो कर जो लोग अन्य देवताओँ को भजते हैँ, कौंतेय, वे भी मेरी ही पूजा करते हैँ. उन की वह पूजा विधिपूर्वक नहीँ होती.
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु माम् अभिजानन्ति तत्त्वेनातश् च्यवन्ति ते ॥२४॥
मैँ ही तमाम यज्ञोँ का भोक्ता हूँ और सब का प्रभु हूँ – यह बात वे ठीक से नहीँ जानते. इस लिए चूक जाते हैँ.
यान्ति देवव्रता देवान् पितृन् यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद् याजिनोऽपि माम् ॥२५॥
जो लोग देवताओँ को पूजते हैँ, वे देवताओँ तक पहुँचते हैँ. पितृपूजकोँ को पितृ मिलते हैँ. भौतिक तत्त्वोँ को पूजने वालोँ को भौतिक तत्त्व प्राप्त होते हैँ. जो मुझे पूजते हैँ, उन्हेँ मैँ मिलता हूँ.
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्य् उपहृतम् अश्नामि प्रयतात्मनः ॥२६॥
पत्र पुष्प फल जल – जो भी कोई मुझे भक्ति भाव से अर्पित करता है, उस भक्त का वह उपहार मैँ स्वीकार करता हूँ.
यत् करोषि यद् अश्नासि यज् जुहोषि ददासि यत् ।
यत् तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मद् अर्पणम् ॥२७॥
तू जो भी करे, जो भी खाए, जो भी यज्ञ करे, दान करे, तप करे, कौंतेय, वह सब तू मुझे अर्पित कर.
शुभाशुभ-फलैर् एवं मोक्ष्यसे कर्म-बन्धनैः ।
संन्यास-योग-युक्तात्मा विमुक्तो माम् उपैष्यसि ॥२८॥
ऐसा कर के तू कर्मोँ के शुभ और अशुभ फलोँ से और कर्म के बंधनोँ से छूट जाएगा. तू संन्यास और योग – दोनोँ – से जुड़ जाएगा. इस प्रकार पूरी तरह मुक्त हो कर तू मेरे पास आ जाएगा.
समोऽहं सर्व-भूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्य् अहम् ॥२९॥
मैँ सब भूत पदार्थोँ और प्राणियोँ मेँ समान भाव से हूँ. मैँ न तो किसी का बुरा चाहता हूँ, न भला. जो मुझे भक्ति भाव से भजते हैँ वे मुझ मेँ हैँ और मैँ भी उन मेँ हूँ.
अपि चेत् सुदुराचारो भजते माम् अनन्य-भाक् ।
साधुर् एव स मन्तव्यः सम्यग् व्यवसितो हि सः ॥३०॥
कोई कितना ही कुटिल क्योँ न हो, दुराचारी क्योँ न हो, अगर वह मुझे भजने लगे और किसी अन्य मेँ मन न लगाए, तो उसे साधु ही मानना चाहिए. उस ने सही निर्णय ले लिया है.
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिम् निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥३१॥
जल्दी ही वह धर्मात्मा हो जाता है, और उसे शाश्वत शांति मिल जाती है. कौंतेय, तू यह पक्की तरह समझ ले कि मेरे भक्त का नाश नहीँ होता.
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास् तथा शूद्रास् तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥३२॥
मेरी शरण मेँ आ कर, पार्थ, पापियोँ को भी परम गति प्राप्त होती है. यह परम गति स्त्रियोँ, वैश्योँ और शूद्रोँ को भी मिलती है.
किं पुनर् ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस् तथा ।
अनित्यम् असुखम् लोकम् इमं प्राप्य भजस्व माम् ॥३३॥
फिर पुण्यवान ब्राह्मणोँ और भक्त राजर्षियोँ का तो कहना ही किया! इस नाशवान और सुखहीन मर्त्य लोक मेँ तू आया है, तो मेरा भजन कर.
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
माम् एवैष्यसि युक्त्वैवम् आत्मानं मत्परायणः ॥३४॥
अपना मन मुझ मेँ लगा. मेरा भक्त बन. अपने यज्ञ मेरे लिए कर. मुझे नमस्कार कर. जैसा मैँ ने बताया है, उस प्रकार अपने को योग मेँ लगा. मेरी ओर उन्मुख हो. तू मुझ मेँ ही आएगा.
इति श्रीमद्-भगवद्-गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्म-विद्यायां योग-शास्त्रे श्री-कृष्णार्जुन-संवादे राजविद्या-राजगुह्य-योगो नाम नवमोऽध्यायः
यह था श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद् ब्रह्म विद्या योग शास्त्र श्री कृष्ण अर्जुन संवाद मेँ राजविद्या राजगुह्य योग नाम का नवाँ अध्याय
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