चलती फ़िल्म के पहला शो ‘आलीशान हिंद काफ़े’ था, तो जल्दी ही चल कर जल्दी ही हिंद के द्वार बंबई आ पहुँची
-26 दिसंबर 1895. पैरिस. ‘ल सालोँ दु इंदीएन् ग्राँ काफ़े’ (‘आलीशान हिंद काफ़े’) मेँ एक फ़्रैंक प्रति व्यक्ति दे कर 200 दर्शकोँ ने लूमियर बंधुओँ की नावल्टी देखी – चलती-फिरती तस्वीरोँ से बनीं छोटी छोटी दस फ़िल्में. इन मेँ सब से लंबी 49 सैकंड की थी, तो सब से छोटी की कुल लंबाई थी 39 सैकंड.
1896 मेँ उन्हीँ की ‘रेलवे ट्रेन का आगमन’ ने दर्शकों मेँ खलबली मचा दी. अपनी तरफ़ बढ़ती ट्रेन देख कर लोग डर से काँप उठे. कहीँ परदा फाड़ कर रेलगाड़ी उन्हेँ रौंद तो नहीँ देगी! इस प्रकार पता चला कि चंचल छाया से भयानक रस की अनुभूति पैदा की जा सकती है.
पैरिस वाले शो का स्थल ‘आलीशान हिंद काफ़े’ था, तो इस चमत्कार का जल्द ही हिंदुस्तान पहुँचना अघटनघटनाघटीयसी जैसा सुसंयोग ही धा. लूमियरोँ का सहायक मारियु सेस्तिए फ़िल्मेँ ले कर आस्ट्रेलिया जा रहा था. किसी कारण पानी के जहाज़ को बंबई मेँ कुछ दिनों का पड़ाव करना पड़ा, और…
-27 जुलाई 1896. बंबई. ‘टाइम्स आफ़ इंडिया’ मेँ विज्ञापन छपा. “आइए, देखिए: शताब्दी का चमत्कार, विश्व का अजूबा” (” the marvel of century, the wonder of the world”).
बंबई मेँ जो छह फ़िल्मेँ दिखाई गईं उन में ‘रेलवे ट्रेन का आगमन’ भी थी. यह कमाऊ कार्यक्रम कभी वाटसन होटल तो कभी नावल्टी थिएटर मेँ एक महीने से अधिक चला, और अब से 121 साल पहले 15 अगस्त 1896 में समाप्त हुआ.
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