थिसारस है क्या बला? उस की आवश्यकता क्योँ है?
शब्दकोश के मुक़ाबले मेँ थिसारस मेँ शब्दोँ का संकलन अकारादि क्रम से न कर के भावक्रम से किया जाता है. संसार के जितने पदार्थ हैँ, मानव जीवन की जितनी वस्तुएँ हैँ, जीवन के जितने क्रियाकलाप हैँ, जितनी भावनाएँ हैँ, विचार हैँ, मान्यताएँ हैँ – उन सब का वर्गीकरण किया जाता है. फिर उन सब को एक के बाद एक इस तरह रखा जाता है कि एक भाव से दूसरे भाव तक की यात्रा सहज और स्वाभाविक हो. हर भाव का अपना एक शब्द समूह होता है. उस मेँ उस भाव विशेष को अभिव्यक्ति देने वाले अधिकाधिक शब्दोँ को संकलित किया जाता है – संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण और क्रिया विशेषण.
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थिसारस एक तरह का शब्द संग्रह होता है. थिसारस एक यूनानी (ग्रीक) शब्द है. इस का शाब्दिक अर्थ है: कोश, ख़ज़ाना. अँगरेजी का ट्रेज़र शब्द इसी का एक विकसित रूप है. यह डिक्शनरी नहीँ होता. हिंदी मेँ अगर हम डिक्शनरी शब्द का बिल्कुल शाब्दिक अनुवाद करने बैठते तो हम उसे वांग्मयी कहते, और तब हम थिसारस को शब्दकोश कहते. जिस महान संस्कृत ग्रंथ को हम आज अमरकोश के नाम से जानते हैँ, वह डिक्शनरी नहीँ बल्कि थिसारस है.
डिक्शनरी जो काम करती है, थिसारस उस का बिल्कुल उलटा करता है. डिक्शनरी या शब्कोश हमेँ शब्दोँ की परिभाषाएँ देते हैँ, उन के अर्थ बताते हैँ. जब हम कोई नया शब्द पढ़ते या सुनते हैँ और यह नहीँ जानते कि लेखक या वक्ता का तात्पर्य ठीक ठीक क्या है, तो हम कोई अच्छा आधुनिक कोश उठाते हैँ और अकारादि क्रम से वह शब्द ढूँढ़ कर उस की परिभाषा मालूम कर सकते हैँ.
लेकिन जब हम स्वयं लेखक या वक्ता होँ, जब हम शब्दोँ के उपयोक्ता न हो कर प्रयोक्ता होँ, और अपने मन के किसी भाव को सही अभिव्यक्ति देने वाला शब्द हमेँ न मिल रहा हो या हम उस से अपरिचित होँ, तब हमारे भावोँ को शब्दोँ के पंख लगाने मेँ शब्दकोश असमर्थ है. एक शब्द की तलाश मेँ हम ‘अ’ से ले कर ‘ह’ तक सारा शब्दकोश पलटने से रहे! तब थिसारस हमारे काम आता है.
अगर शब्दकोश शब्दोँ को परिभाषा देता है तो थिसारस परिभाषा को शब्द देता है. थिसारस अव्यक्त को व्यक्त करता है, अमूर्त को मूर्त और निराकार को साकार – क्योँ कि भाव अगर निराकार हैँ तो शब्द उन के साकार प्रतीक, उन की सावयव मूर्ति.
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शब्दकोश के मुक़ाबले मेँ थिसारस मेँ शब्दोँ का संकलन अकारादि क्रम से न कर के भावक्रम से किया जाता है. संसार के जितने पदार्थ हैँ, मानव जीवन की जितनी वस्तुएँ हैँ, जीवन के जितने क्रियाकलाप हैँ, जितनी भावनाएँ हैँ, विचार हैँ, मान्यताएँ हैँ – उन सब का वर्गीकरण किया जाता है. फिर उन सब को एक के बाद एक इस तरह रखा जाता है कि एक भाव से दूसरे भाव तक की यात्रा सहज और स्वाभाविक हो. हर भाव का अपना एक शब्द समूह होता है. उस मेँ उस भाव विशेष को अभिव्यक्ति देने वाले अधिकाधिक शब्दोँ को संकलित किया जाता है – संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण और क्रिया विशेषण.
समभाव, सहभाव और विषम भाव वाले शब्द समूह एक के बाद एक रखे जाने पर भाषा का इंद्रधनुषी पुल बन जाते हैँ जिस पर चढ़ कर पाठक भाषा के बहते नीर को देखता रह सकता है.
बृहत् समांतर कोश के पहले खंड एक पेज – भावक्रम
बृहत् समांतर कोश का दूसरा भाग – इंडैक्स
यह थिसारस का केवल आधा भाग होता है.
थिसारस की उपयोगिता मेँ जान पड़ती है इंडैक्स से, अनुक्रमणिका से. यह अनुक्रमणिका अकारादि क्रम से बनाई जाती है और इस मेँ थिसारस मेँ सम्मिलित हर शब्द संकलित किया जाता है, और उस संदर्भ क्रम की सूचना दी जाती है जहाँ उस शब्द विशेष से संबंधित अन्य शब्द पाए जा सकते हैँ. इस के अर्थ हैँ कि अनुक्रमणिका मेँ दिया शब्द वह कुंजी बन जाता है, जिस से हम भाषा के कोषागार मेँ प्रवेश का दरवाज़ा खोल सकते हैँ और उस शब्द के समभाव, सहभाव या विषम भाव वाले शब्दोँ के समूहोँ तक पलक झपकते पहुँच सकते हैँ.
ये दोनोँ भाग मिल कर ही थिसारस को उपयोगी वस्तु बनाते हैँ.
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भारत मेँ भाषा और शब्द के अध्ययन की परंपरा अत्यंत प्राचीन और समृद्ध है.
जब भारत मेँ एक सक्रिय, सचेतन और गतिशील समाज था, जब हमारे यहाँ ज्ञान, विज्ञान, दर्शन और कलाओँ के क्षेत्र मेँ नए से नए काम हो रहे थे, जब हमारे दस्तकार नई से नई सुंदर वस्तुएँ उत्पादित करने मेँ लगे थे, जब हमारे सार्थवाह हमारे उत्पादोँ को ले कर सारे संसार को हमारी वैचारिक और सांसारिक समृद्धि का समाचार पहुँचा रहे थे, तो महान वैयाकरण और भाष्यकार हमारी भाषा को सुसंस्कृत भी कर रहे थे.
कहा गया है कि बृहस्पति के समान गुरु भी इंद्र के समान शिष्य को हज़ारोँ वर्षों तक शब्द पारायण कराते कराते शब्द सागर का अंत नहीँ पा सके थे.
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पहला भारतीय थिसारस निघंटु था. उस मेँ प्रजापति कश्यप ने वेदोँ के चुने 1800 (अठारह सौ) शब्दोँ का संकलन किया था. बाद मेँ जब निघंटु की व्याख्या की आवश्यकता पड़ी तो महर्षि यास्क ने निरुक्त की रचना की.
आधुनिक थिसारस के सब से नज़दीक पड़ने वाला संस्कृत भाषा का कोश अमरसिंह कृत अमरकोश है, जिसे नामलिंगानुशासन और त्रिकांड भी कहते हैँ. अमरकोश की रचना कब हुई, इस के बारे मेँ निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीँ कहा जा सकता. उस के रचेता अमरसिंह का काल गुप्तवंशीय सम्राट विक्रमादित्य के काल से ले कर ग्यारहवीँ सदी ईसवी तक कभी भी हो सकता है. अनेक विद्वान मानते हैँ कि अमरसिंह ईसा की सातवीँ सदी मेँ रहे होँगे.
अमरसिंह से पहले भी इस प्रकार के कोश रचे जाते थे. स्वयं अमरसिंह ने कहा है कि अमरकोश की रचना मेँ उन्होँ ने अपनी पूर्ववर्ती कोशोँ से प्रभूत सहायता ली थी. अमरसिंह के विरोधियोँ ने तो उन्हेँ साहित्य चोर तक की उपाधि से मंडित कर रखा था. इस से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि हमारे यहाँ वैदिक काल से ही शब्द के अध्ययन की और कोश संग्रह की अक्षुण्ण धारा प्रवाहित थी. यह अलग बात है कि उस धारा के अनेक मोती अब हमेँ प्राप्य नहीँ हैँ.
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अब जब हम एक बार फिर अपने समाज और देश के नवनिर्माण मेँ लगे हैँ, जब हमारे सामने सारे संसार के संपूर्ण ज्ञान को एकदम समो लेने की चुनौती आ खड़ी हुई है, तो हमेँ उस ज्ञान को अभिव्यक्त करने के लिए एक विशाल शब्द संपदा की भी ज़रूरत है.
हमारे राजनेताओँ और विचारकोँ ने इस बात को बड़ी अच्छी तरह समझ लिया था कि अपनी भाषा के औज़ार को सक्षम किए बिना हम देश को बहुत आगे नहीँ ले जा पाएँगे. उन्होँ ने इस के लिए अनेक प्रकार के संस्थात्मक और आर्थिक साधन उपलब्ध कराए. उस का जो परिणाम निकला, वह अगर बहुत आशाजनक नहीँ था, तो इतना निराशाप्रद भी नहीँ रहा. आज से चालीस साल, फिर तीस साल, और फिर बीस साल पहले की हिंदी पढ़ कर देखिए, विशेषकर हिंदी के दैनिक पत्र. आप एक साथ अनेक नए शब्दोँ के संपर्क मेँ आएँगे. इन मेँ से अधिकांश शब्द ऐसे हैँ जो इन पत्रोँ मेँ काम करने वाले संपादकोँ ने वक़्त वक़्त पर गढ़े हैँ, और बहुत सारे शब्द ऐसे हैँ, जो सरकारी समितियोँ ने गढ़े हैँ. ऐसे जिन शब्दोँ मेँ रचना सौष्ठव था, उन्हेँ बहुजन समाज की स्वीकृति भी मिल गई.
यह काम और भी बेहतर और जल्दी हो सकता था अगर उन लोगोँ के पास कोई थिसारस होता – एक ऐसा थिसारस जो चयन के लिए उन के सामने शब्दोँ के समूह खड़े कर देता. लेकिन था नहीँ. और आधुनिक समाज के लिए हिंदी थिसारस बनाना इतना आसान है भी नहीँ – यह मैँ अपने निजी अनुभव से कह सकता हूँ.
जैसा कि मैँ ने पहले कहा, थिसारस के मुख्य कलेवर की संरचना का आधार होता है – उस का भावक्रम. और भावक्रम का सीधा संबंध होता है उस समाज से जो उस का प्रयोक्ता है. हर जीवित भाषा अपनी जीवित संस्कृति की चेरी होती है. अनेक अवयवोँ से सज्जित भाषा उस समाज मेँ संप्रेषण का और उस समाज की संस्कृति के पालन पोषण और विकास का माध्यम होती है. इस माध्यम के एक महत्वपूर्ण और सशक्त उपकरण की भूमिका अदा करता है थिसारस. उस के भावक्रम मेँ उस समाज का चिंतन, उस का राजनीतिक और सामाजिक गठन, और उस समाज की आकांक्षाएँ परिलक्षित होती हैँ.
यहीँ से खड़ी होती हैँ वे समस्याएँ जो आधुनिक हिंदी के मुझ जैसे किसी भी प्रथम थिसारसकार को सुलझानी होँगी.
अमर कोश का भावक्रम
पहले हम अपने प्राचीन अमरकोश का ही उदाहरण लेते हैँ. उस का भावक्रम आज की हिंदी के लिए न केवल अनुपयुक्त है, बल्कि अवांछनीय भी. उस के प्रथम कांड वाले शब्द समूहोँ को थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ इधर उधर कर के हम अपना काम चला सकते हैँ. इस कांड मेँ सब से पहले है स्वर्ग वर्ग – यानी देवीदेवताओँ के नाम और पर्यायवाची. फिर व्योम वर्ग – इस छोटे से वर्ग मेँ कुल दो शब्द समूह हैँ: आकाश और तारापथ. दिग्वर्ग, काल वर्ग आदि पर होते इस कांड की यात्रा नरक वर्ग के बाद वारि वर्ग पर समाप्त होती है.
द्वितीय कांड मेँ जब तक भूमि आदि नामोँ की गणना है कोई कठिनाई आरंभ नहीँ होती. वह आरंभ होती है मनुष्य वर्ग पर पहुँचते ही, जिस का समाज रचना से सीधा संबंध है, जो मानवीय क्रियाकलाप को व्याख्यायित करता है और इस कारण किसी भी थिसारस का सब से महत्वपूर्ण अंश है. अमरकोश मेँ मानवीय क्रियाकलापोँ का वर्गीकरण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों के आधार पर किया गया है. विद्वत्ता ही नहीँ, कुआँ खुदवाना आदि की गणना भी ब्रह्मवर्ग मेँ है. क्रमबद्धता और क्रमहीनता भी ब्रह्मवर्ग मेँ आते हैँ.
युद्ध तथा शस्त्रास्त्र और राजनीति संबंधी शब्द क्षत्रवर्ग मेँ हैँ, तो व्यापार और व्यापार मेँ निष्ठा और अनिष्ठा संबंधी शब्द वैश्योँ के पल्ले पड़े, और जितने भी उद्योगधंधे हैँ, सेवा कर्म हैँ – उन की जगह शूद्रवर्ग के अलावा और हो ही कहाँ सकती थी! स्पष्ट है कि यह भावक्रम आज के किसी हिंदी थिसारस मेँ नहीँ रखा जा सकता.
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औद्योगिक और प्रजातांत्रिक समाज होने के नाते आधुनिक इंग्लैंड और आधुनिक भारत मेँ काफ़ी समानताएँ हैँ. हम दोनोँ की भाषाओँ का मूल स्रोत भी एक ही है – सुदूर इतिहास की कोई अज्ञात भारोपीय भाषा. अत: एक हद तक हमारी शब्द संपदा भी समान है. ऊपरी तौर पर यह शब्द संपदा समान न भी हो, तो थोड़ा सा गहराई मेँ जाते ही यह समानता स्पष्ट होने लगती है. भ्रातृ और ब्रदर तो बड़े स्पष्ट से उदाहरण हैँ. साउंड और स्वन भी एक ही हैँ. लेकिन भूगोल और काल ने इन शब्दोँ के रंग और ध्वनि मेँ कई जगह बड़े परिवर्तन कर दिए हैँ. अपनी तमाम समानताओँ के बावजूद, कई हज़ार वर्षों की दूरी और कई हज़ार मीलोँ के कटेपन ने हमारे भावोँ के संदर्भों का क्रम भी बदल दिया है.
मैँ ने कई बार कई तरह कोशिश की कि रोजेट के थिसारस का भावक्रम अपने हिंदी के थिसारस के लिए अपना लूँ. लेकिन बात बन कर ही नहीँ दी. एक अजीब सा संकलन बन जाता था, एक अजीब सी संरचना, एक अजीब सी भूलभुलैयाँ, एक बेशक़मती रत्नोँ का भंडार जिस मेँ प्रवेश की कुंजी पा लेने के बाद पाठक को अपने मनचाहे कोष्ठक तक पहुँचने मेँ तकलीफ़ उठानी पड़ती. प्रवेश पाने वाले कोष्ठक के पास वाला कोष्ठक पाठक को अपरिचित सा लगेगा – ऐसा मुझे बार बार लगा और अगर ऐसा हुआ तो थिसारस का होना या न होना बराबर हो जाएगा.
भावक्रम के निर्धारण मेँ एक अन्य समस्या भी आती थी. अँगरेजी और हिंदी की शब्द संपदा मेँ एक अंतर है. अकसर पदार्थों, कल्पनाओँ और भावोँ के लिए अँगरेजी मेँ बस एक या दो शब्द होते हैँ. ‘आम’ के लिए एक ‘मैंगो’, ‘गुलाब’ के लिए एक ‘रोज़’. यही नहीँ, अकसर अँगरेजी का एक शब्द एक सुनिश्चित धारणा का अभिवक्ता होता है. हमारे यहाँ एक चीज़ के अनेक नाम हो सकते हैँ, तो ‘आम’ जैसे फल के लिए तो सैकड़ोँ भी. और एक शब्द के हमारे यहाँ दर्ज़नोँ अर्थ भी हो सकते हैँ. उदाहरण के लिए ज़्यादा दूर जाने की आवश्यकता नहीँ है. अपना शब्दकोश उठाइए. उस मेँ पहले ही शब्द ‘अंक’ के कितने सारे अर्थ और संदर्भ हैँ. हिंदी के थिसारस को इस से भी जूझना होगा.
इस सब का थिसारस के क्रम पर किस प्रकार और क्या प्रभाव पड़ता है यह मैँ आप को अगले अंक मेँ बताऊँगा. अभी तो मुझे बस यह कहना है कि मेरे लिए किसी सहज उपयोगी भावक्रम तक पहुँचना आसान सिद्ध नहीँ हुआ. चौदह पंदरह साल तक इस समस्या से जूझने के बाद भी मैँ इसे पूरी तरह हल नहीँ कर पाया हूँ. हाँ, एक मोटा सा हल शायद तभी निकलेगा, जब मेरे कार्डों की सेनाएँ भावक्रम के अनुसार एक दूसरे के सामने खड़ी होने लगेँगी. अभी तक इन कार्डों की संख्या लगभग साठ हज़ार है.
मेरे पास कोई बड़ा कंप्यूटर होता और उस पर काम करवाने के लिए पैसे होते, तो शायद यह काम इतना कठिन सिद्ध नहीँ होता. लेकिन जो है नहीँ, उस के इंतज़ार मेँ हाथ पर हाथ रखे बैठा तो नहीँ रहा जा सकता. यही क्या कम है कि किसी के सामने हाथ फैलाने की आवश्यकता पड़े बग़ैर मैँ अपने काम मेँ जुटा रह सकता हूँ – समाज की अफ़रातफ़री और गहमागहमी से दूर.
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