clip_image002.jpg

राज कपूर देह थे तो शैलेंद्र उन की आत्मा

In Art, Cinema, Friendship, People, Poetry by Arvind KumarLeave a Comment

–अरविंद कुमार

चौदह दिसंबर – शैलेंद्र के प्रयाण और राज कपूर के जन्म दिवस पर विशेष

clip_image002

‘माधुरी’ का संपादक बन कर मैँ जब 1963 मेँ बंबई पहुँचा तो मेरी पसंद तो कई थे. कुल दो मेरे हीरो थे. लोककवि शैलेँद्र और अभिनेता-निर्देशक-निर्माता राज कपूर. दोनोँ ने मेरी आधुनिक मानसिकता के विकास मेँ योगदान किया था. एक पत्रकार मित्र ने मुझे मिलाया शैलेंद्र से जो उम्र मेँ मुझ से आठ साल बड़े थे. उन्हीँ ने लिखा था – “अगर कहीँ है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर”, और ‘आवारा’ मेँ उन्हीँ का मारक गीत था – “ज़ुलम सहे भारी जनक दुलारी.” समाज की दुत्कृता नारियोँ के असम्मान के विरोध का गूँजता विरोध. और राज कपूर ने ‘आवारा’ मेँ इसे बड़े जतन से सही सिचुएशन पर फ़िल्माया था. पहली ही मुलाक़ात मेँ न जाने कैसे अबोले बड़े भाई बन गए. उन्होँ ने कहा – “राज से तुम्हेँ मैँ मिलवाऊँगा.” अंधा क्या चाहे दो आँखेँ. पूछ पूछ और नेक नेक. तो दो तीन सप्ताह मेँ समय तय कर के वह ले गए आर.के. स्टूडियो. उस दिन से आर.के. के दरवाज़े मेरे लिए हमेशा के लिए खुल गए.

अगर राज कपूर देह और दिमाग़ थे तो शैलेंद्र उन की आत्मा थे. राज शैलेंद्र को ‘कविराज’ कहते थे. जब किसी फ़िल्म की किसी सिचुएशन पर कोई गीत तत्काल लिखना हो शैलेंद्र को काटेज मेँ बैठा दिया जाता. स्टूडियो मेँ राज के बैठने और आराम करने के लिए यह काटेज बनाई गई थी. मैँ कभी आर.के. किसी और काम से जाता और राज फ़्री होँ तो मुझे वहीँ बुला लिया करते थे. काटेज मेँ शैलेंद्र जिस भी मुद्रा मेँ होँ, लेटे होँ या बैठे होँ, सोच रहे होँ – थोड़ी थोड़ी देर मेँ राज जासूस भेजते. कविराज ने क़लम उठाया या नहीँ, कुछ लिख रहे हैँ क्या? एक भी शब्द शैलेंद्र लिखते तो राज का चेहरा खिल उठता, शंकर या जयकिशन सजग हो जाते.

यह जो राज और शैलेँद्र का संगम था, उस ने कई अमर फ़िल्मोँ और गीतोँ को जन्म दिया. इस लेख मेँ मैँ बस दोनोँ की दो अपनी पसंद की फ़िल्मोँ के बारे मेँ लिखूँगा. ‘श्री चार सौ बीस’ मेँ शैलेंद्र से उबरते, निर्धन, संघर्ष करते, आगे बढ़ते भारत की आत्मा का गीत लिखवाया गया – “मेरा जूता है जापानी” जिसे गायक मुकेश ने आवाज़ दी. वह भारत जो सारी दुनिया से कुछ न कुछ ले रहा था. जापान से सस्ते जूते, इंगलैंड से पहनावा, रूस से क्रांति का संदेश पर पूरी तरह देसी था. अपना भविष्य बनाने के लिए वह सीना तान कर निकल कर खुली सड़क पर निकल पड़ा है. उस के दिल मेँ तूफ़ानी इरादे हैँ. जो तटस्थ बैठे हैँ वे नादान लोग बस राह पूछ रहे हैँ. जो सड़क पर निकल पड़े हैँ वे बिगड़े दिल शहज़ादे हैँ जो एक न एक दिन सिंहासन पर जा विराजेँगे. इस प्रकार 1955 मेँ बनी यह फ़िल्म हमारे देश की कशमकश की प्रतीक बन गई. (यह हमारी पंच-वार्षिक योजनाओँ के आरंभ होने का काल था.)

clip_image004

पढ़िए पूरे गीत के बोल – “मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी/ सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी/ निकल पड़े हैं खुली सड़क पर/ अपना सीना ताने/ मंज़िल कहाँ कहाँ रुकना है/ ऊपर वाला जाने/ बढ़ते जायें हम सैलानी, जैसे एक दरिया तूफ़ानी/ ऊपर नीचे नीचे ऊपर
लहर चले जीवन की/ नादाँ हैं जो बैठ किनारे पूछें राह वतन की/ चलना जीवन की कहानी, रुकना मौत की निशानी/ होंगे राजे राजकुँवर हम बिगड़े दिल शहज़ादे/ हम सिंहासन पर जा बैठेँ जब जब करें इरादे/ सूरत है जानी पहचानी, दुनिया वालों को हैरानी/ सर पे लाल…”

इसी फ़िल्म मेँ शैलेंद्र ने अपने कवित्व की परिभाषा इन शब्दोँ मेँ की थी - “सीधी सी बात न मिर्च मसाला, कह के रहेगा कहने वाला.” 
राज और शैलेंद्र के संगम के सिलसिले मेँ आर.के. की एक और फ़िल्म ‘आवारा’ की बात कर यह लेख समाप्त करूँगा. लेकिन ‘आवारा’ से पहले इन दोनोँ की मुलाक़ात कैसे हुई – यह बताता हूँ.
किसी कवि सम्मेलन मेँ राज कपूर ने शैलेंद्र की कविता सुनी – “जलता है पंजाब”. तत्काल उन से संपर्क किया, लेकिन उन्होँ ने फ़िल्मोँ मेँ लिखने से इनकार कर दिया – “मेरी कविता बिकाऊ नहीँ है.” पर राज ने हार नहीँ मानी. कहा – “जब चाहो मेरे स्टूडियो आ जाना.” हुआ यह कि शैलेंद्र की पहली संतान होने वाली थी. पैसा चाहिए था. वह चले स्टूडियो की ओर. बरसात का मौसम था. दरवाज़े पर ही दोनोँ मिल गए, आँखेँ चार हुईं, चमकीँ. शैलेँद्र ने मिसरा पढ़ दिया – “तुम से मिले हम हम से मिले तुम बरसात मेँ.” राज ने यह गीत तत्काल ख़रीद लिया फ़िल्म ‘बरसात’ के लिए.

आवारा से अगर ये तीन गीत निकाल दिए जाएँ तो वह आवारा नहीँ रहेगी. पहला है ज़ुलम सहे भारी जनक दुलारी. आप ध्यान से देखेँ तो कथाकार-द्वय ख़्वाजा अहमद अब्बास और वी.पी. साठे ने बड़े कमाल से सीता बनवास और लवकुश की कहानी को जज रघुनाथ के घर से जोड़ दिया था. जज रघुनाथ सीता को बनवास देने वाला राम भी है और अपने अपनी पालिता बेटी नरगिस (सीता) से अपने आवारा बेटे राजु का विवाह कराने वाला बाप जनक भी है…

जज की पत्नी लीला चिटणीस को जग्गा डाकू ने अग़वा कर लिया और चार दिन बाद छोड़ दिया. कुछ मास बाद वह गर्भवती होती है. जज साहब के मन मेँ अंतर्द्वंद्व व्याप जाता है. भरी बरसात और कड़कती बिजली वाली रात वह लीला को घर से निकाल देता है, वह इधर उधर भटक रही है. बाज़ार मेँ किसी दूकान के थड़े पर भक्त भजन कर रहे हैँ – जनक दुलारी राम की प्यारी/ फिरे मारी मारी जनक दुलारी/ जुलुम सहे भारी जनक दुलारी/ गगन महल का राजा देखो/ कैसा खेल दिखाए/ सीप का मोती, गंदे जल मेँ/ सुंदर कँवल खिलाए/ अजब तेरी लीला है गिरधारी.

दूसरा गीत है विश्व प्रसिद्ध आवारा हूँआवारा हूँ, आवारा हूँ/ या गर्दिश मेँ हूँ, आसमान का तारा हूँ/ घरबार नहीँ, संसार नहीँ, मुझ से किसी को प्यार नहीँ…”

और जो तीसरा है वह ‘आवारा’ के स्वप्न दृश्य का है – नौ मिनिट का न-भूतो-न-भविष्यति दृश्य और गीत. गाया है मन्ना डे और लता मंगेशकर ने. पहले कथानक मेँ इस की पृष्ठभूमि.

clip_image006

आवारा राजू अपराध के जीवन से निकलना चाहता है. वह स्वप्न देखता है – प्रेमिका रीता (नरगिस) किसी स्वर्ग जैसी जगह से उसे पुकार रही – तेरे बिना – आग – ये चाँदनी, तू आ जा/ तेरे बिना – बेसुरी बाँसरी, ये मेरी ज़िंदगी – दर्द की रागिनी/ तू आ जा, तू आ जा.”

clip_image008

नीचे धरती पर या नरक मेँ फँसा राजू तड़प रहा है – “ये नहीँ है, ये नहीँ है – ज़िंदगी – ज़िंदगी/ ये नहीँ ज़िंदगी/ ज़िंदगी की ये चिता – ज़िंदा जल रहा हूँ, हाय/ साँस के, ये आग के – ये तीर – चीरते हैँ – आरपार – आरपार…/ मुझ को ये नरक ना चाहिए/ मुझ को फूल, मुझ को गीत, मुझ को प्रीत चाहिए/ मुझ को चाहिए बहार, मुझ को चाहिए बहार…”

उधर स्वर्ग मेँ मधुर घंटियाँ टनटना रही हैँ, रीता गा रही है – “घर आया मेरा परदेसी, प्यास बुझी मेरी अँखियन की/ घर आया मेरा परदेसी, प्यास बुझी मेरी अँखियन की…/ तू मेरे मन का मोती है, इन नैनन की ज्योती है/ याद है मेरे बचपन की, घर आया मेरा परदेसी../ अब दिल तोड़ के मत जाना, रोती छोड़ के मत जाना/ क़सम तुझे मेरे अँसुअन की, घर आया मेरा परदेसी/ घर आया मेरा परदेसी, प्यास बुझी मेरी अँखियन की/ घर आया मेरा परदेसी, प्यास बुझी मेरी अँखियन की.. / तू मेरे मन का मोती है, इन नैनन की ज्योती है/ याद है मेरे बचपन की, घर आया मेरा परदेसी../ अब दिल तोड़ के मत जाना, रोती छोड़ के मत जाना/ क़सम तुझे मेरे अँसुअन की, घर आया मेरा परदेसी.”

पर राजू बच नहीँ पाता. करुण हृदयद्रावी संगीत. जग्गा (के.एन. सिंह) उसे बुला रहा है…

clip_image010

इस पूरे स्वप्न दृश्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि मेँ हैँ उदय शंकर आदि के अनेक नृत्यमंडलोँ की तत्कालीन मंच प्रस्तुतियाँ. इस स्वप्न दृश्य की नृत्य निर्देशिका थीँ उदय शंकर की फ़िल्म ‘कल्पना’ की नृत्य निर्देशिका फ़्राँसीसी मूल की मैडम सिमकी.

पूरे दृश्य मेँ जितने शब्द हैँ सब शक्तिशाली हैँ. परदे पर जो दिख रहा है वह और भी शक्तिशाली है. ऐसे गीत और उन के बोल स्क्रीनप्ले (नाट्यालेख) के आधार पर लिखे जाते हैँ. बार बार सोच कर, मन मेँ बार बार घुमा फिरा कर, मन ही मन उन की ध्वनि सुन कर लिखे जाते हैँ. और जब एक बार शुरूआत हो जाती है, तो अकसर एक साथ लिखे भी जा सकते हैँ. मुझे पता नहीँ शैलेंद्र ने ये शब्द कैसे लिखे, कितनी बार लिखे, काटे, लिखे. निश्चय ही उन का जन नाट्य संघ के अनेक नृत्यनाट्योँ का अनुभव भी काम आया होगा. वह स्वयं सक्रिय कलाप्रेमी थे, और उदय शंकर की कई मंच प्रस्तुतियाँ भी उन्होँ ने देखी होँगी. 60-65 साल पहले मैँ ने जो कुछ परदे पर देखा, वह फिर कई बार देखा, और बाद मेँ फिर कई बार देखा.

मेरे लेख से आज की पीढ़ी को इनका आभास मात्र ही मिल सकता है. चाहेँ तो यू ट्यूब पर देख कर वे हिंदी फ़िल्मोँ के स्वर्ण युग की बानगी ले सकते हैँ.

 
 
 

Comments