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श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद – 00 – प्रस्तुति

In History, Spiritual, Translation by Arvind KumarLeave a Comment

 

ब्रह्म विद्या योग शास्त्र

 

 

अब गीता

पढ़ना आसान

समझना आसान

 

अनुवादक

अरविंद कुमार

 

 

 

 

 

इंटरनैट पर प्रकाशक

अरविंद लिंग्विस्टिक्स प्रा. लि.

कालिंदी कालोनी

नई दिल्ली


प्रस्तुति

कुल सात सौ श्लोकोँ वाली गीता या श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत का एक छोटा सा अंश है, पर स्वतंत्र ग्रंथ भी. गीता की पुष्पिकाओँ मेँ इसे उपनिषद  और ब्रह्म विद्या योग शास्त्र  कहा गया है. इस लिए केवल इंटरनैट पर उपलब्ध होने वाले इस अनुवाद का नाम श्रीमद् भगवद् गीता उपनिषद – ब्रह्म विद्या योग शास्त्र  रखना मैँ ने उचित समझा.

गीता मेँ तत्कालीन वैदिक चिंतन की प्रमुख धाराओँ को शामिल किया गया है. इसे विद्वान लोग उपनिषदोँ का सार भी कहते हैँ. आज की भाषा मेँ हम गीता को भारतीय दर्शन का उत्कृष्ट डाइजेस्ट कह सकते हैँ. सृष्टि रचना, संसार, दर्शन, मनोविज्ञान, कर्म आदि विषयोँ पर इस के कई विवेचन और विचार आधुनिकतम वैज्ञानिक चिंतन के समकक्ष हैँ.

वेदोँ और उपनिषदोँ से भी ऊपर…

वेदोँ के मंत्र ऋषियोँ ने नहीँ रचे थे, बल्कि भगवान ने ऋषियोँ पर प्रकट किए. इस के विपरीत गीता के श्लोक किसी ऋषि पर प्रकट नहीँ हुए, बल्कि भगवान कृष्ण ने अपने मुँहसे कहे थे. संजय गवाही देता है कि व्यास की कृपा से स्वयं उस ने साक्षात कृष्ण को यह उपदेश देते देखा और सुना.

उपनिषदोँ मेँ गुरुओँ और शिष्योँ के बीच संवाद वनोँ और आश्रमोँ के एकांत मेँ हुए. गीता मेँ गुरु कृष्ण और शिष्य अर्जुन का संवाद अट्ठारह अक्षोहिणी सेना के सामने स्वयं भीष्म पितामह की उपस्थिति मेँ हुआ. सारा जग इस संवाद को देख और सुन रहा था. आश्चर्य नहीँ कि तमाम प्राचीन धर्म ग्रंथोँ मेँ से हिंदुओँ के लिए गीता सर्वोच्च धर्म ग्रंथ है. इस का पारायण कर के व्यक्ति अपना निजी धर्म और कर्तृत्व का निर्धारित कर सकता है.

खेद की बात यह है कि अनगिनत अनुवादोँ के बावजूद आज गीता के ऐसे संस्करण उपलब्ध नहीँ हैँ जो आम आदमी को गीता पढ़ने मेँ और उस के उपदेशोँ को समझने मेँ सहायता दे सकेँ. कारण है अधिकतर अनुवादोँ की उलझी भाषा. इसी लिए हम जैसा आदमी आसानी से पढ़ना तो दूर गीता का अर्थ तक समझ मेँ नहीँ आता.

यह संस्करण पाठकोँ को कठिनाइयाँ दूर करने के लिए एक साथ दो काम करता है :

1.    संस्कृत पाठ को आम आदमी की सुविधा मात्र के लिए एक बिलकुल नई और आसान शैली मेँ लिखा गया है. इस शैली के कारण संस्कृत के श्लोकोँ का पढ़ना काफ़ी हद तक सहज हो गया है, कहीँ भी गीता के प्रवाह मेँ व्यवधान नहीँ आया है और न कहीँ किसी प्रकार संस्कृत व्याकरण की हानि हुई है.

2.     अनुवाद सीधे सादे और छोटे छोटे वाक्योँ मेँ किया गया है. भाषा आसान, आधुनिक और ग़ैर-पंडिताऊ है.

संस्कृत पाठ

गीता एक ऐसा मधुर गीत है जो स्वयं भगवान कृष्ण ने गाया था. इस के श्लोक गाने के लिए रचे गए हैँ. गाना तो दूर आज आम गीता प्रेमी उस के श्लोकोँ का सही पाठ तक नहीँ कर पाते. बहुत से भक्तोँ ने गीता का नित्य पाठ करने का नियम बना रखा है. मुँह ही मुँह वे अगड़म बगड़म ध्वनियाँ निकालते रहते हैँ.

इस मेँ दोष उन का नहीँ है.

क्या आप नीचे लिखी हिंदी की दो अत्यंत प्रसिद्ध काव्य पंक्तियाँ पढ़ और समझ सकते हैँ?

अयिदयामयिदेविसुखदेसारदे

इधरभीनिजवरदपाणिपसारदे

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Figure 1 प्राचीन हस्तिलिखित पुस्तक. आप देख सकते हैँ कि दो शब्दोँ के बीच मेँ कोई ख़ाली जगह नहीँ है, जिसे आजकल स्पेस कहते हैँ.

 

इस लिए नहीँ कि आप को हिंदी नहीँ आती, बल्कि इस लिए यहाँ शब्दोँ को अलग अलग नहीँ बल्कि मिला कर लिखा गया है.

पुराने ज़माने मेँ शब्दोँ के बीच ख़ाली जगह छोड़ने का चलन नहीँ था. कोई पुरानी हस्तलिखित पोथी खोलिए. आप पाएँगे कि एक पंक्ति के सब शब्दोँ को आपस मेँ मिला कर लिखा गया है. पता ही नहीँ चलता था कि एक शब्द कहाँ ख़त्म हुआ और दूसरा कहाँ शुरू.

ऊपर वाली दानोँ पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त के अत्यंत लोकप्रिय काव्य साकेत के प्रथम सर्ग की ये पहली दो पंक्तियाँ हैँ :

अयि दयामयि देवि सुखदे सारदे

इधर भी निज वरद पाणि पसार दे

कितनी आसानी से ये पढ़ी जा रही हैँ! शब्दोँ के बीच ख़ाली जगहेँ न होँ तो हिंदी पढ़ना संस्कृत पढ़ने से कोई बहुत ज़्यादा आसान नहीँ है.

शब्दोँ को मिला कर लिखने की शैली, संधि और समास की समस्या

संस्कृत भाषा मेँ समस्या ख़ाली जगह न होने भर की नहीँ है. जटिल संधि और समास संस्कृत को दुरूह भाषा बना देते हैँ. संधि मेँ पहले शब्द की अंतिम और दूसरे शब्द की आरंभिक ध्वनियाँ आपस मेँ मिल जाती हैँ और अकसर उन का एक नया रूप बन जाता है. यह परिवर्तन या विकार व्याकरण के कुछ सुनिश्चित नियमोँ के अधीन होता है. ये नियम संस्कृत और हिंदी मेँ एक से हैँ. हिंदी मेँ संधि और समास का प्रचलन कम होता जा रहा है, इस लिए हम इन नियमोँ को भूलते जा रहे हैँ.

गीता मेँ से ही संधि के दो तीन आसान से उदाहरण देखिए :

विषय+इन्द्रिय            =          विषयेन्द्रिय

आत्मनि+एव              =          आत्मन्येव

तत्+श्रुत्वा                  =          तच्छ्रुत्वा

समास मे दो या अधिक शब्दोँ के अर्थों के बीच संबंध स्थापित करने के लिए उन के बीच मेँ से विभक्तियाँ निकाल दी जाती है और शब्दोँ को मिला कर लिख देते हैँ. जैसे

कुरुओँ का क्षेत्र                        =          कुरुक्षेत्र

धर्म का क्षेत्र                            =          धर्मक्षेत्र

अनन्य है चेतना जिस की          =          अनन्यचेता

सुख और दुःख                        =          सुखदुःख

ऊपर शब्दोँ को मिला कर लिखा गया है. लेकिन उन के बीच की ध्वनियोँ मेँ संधि की आवश्यकता नहीँ पड़ी.

कई बार ऐसा होता है कि समास करते समय संधि भी करनी पड़ती है. गीता मेँ दो उदाहरण :

शीत और उष्ण                                =         शीतोष्ण

जीत लिया है आत्मा को जिस ने        =         जितात्मा

संधि और समास के कारण संस्कृत मेँ शब्दोँ की लंबी लंबी शृंखलाएँ बनती चली जाती हैँ :

शीत और उष्ण मेँ, सुख और दुःख मेँ =    शीतोष्णसुखदुःखेषु

ज्ञान और विज्ञान से तृप्त हो गई है आत्मा जिस की = ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा

ये शब्द शृंखलाएँ लंबी और लंबी होती चली जाती हैँ :

युञ्ज्यात्+योगं+आत्म+विशुद्धये = युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये

बढ़ते बढ़ते यह शृंखला कई बार पूरी एक पंक्ति या वाक्य बन जाती है. गीता के अठारहवेँ अध्याय के अड़तीसवेँ श्लोक की पहली पंक्ति देखिए :

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोमम्

मस्तिष्क ऐसी पंक्ति को ग्रहण करने से इनकार कर देता है क्योँ कि वह इस के अनेक घटकोँ को स्वतंत्र रूप से ग्रहण नहीँ कर पाता.

व्याकरण की ऐसी ही पेचीदगियोँ ने संस्कृत भाषा को जन साधारण से दूर कर दिया. परिणाम यह हुआ कि संस्कृत मेँ ज्ञान विज्ञान का जो विशाल भंडार है, वह जनता की पहुँच से बाहर होता चला गया.

संस्कृत को एक बार फिर पाठक के नज़दीक पहुँचने का एक रास्ता यह हो सकता है कि संस्कृत आज के पाठक के पास किसी सहज सुलभ रूप मेँ पहुँचे. लेकिन सहजीकरण की किसी भी प्रकिया मेँ हम संस्कृत की शब्दावली और उस के व्याकरण को नहीँ बदल सकते. न ही हम संधि और समास के नियमोँ से छुट्टी पा सकते हैँ. वे संस्कृत की रचना प्रक्रिया का अभिन्न अंग हैँ.

अब अगर संस्कृत की ऐसी पंक्तियोँ को आम आदमी से पढ़वाना है तो उन्हेँ नागरी लिपि मेँ इस तरह लिखना होगा कि जहाँ तक संभव हो वहाँ पांच छः वर्णोँ के बाद पाठक की आँख को कोई राहत मिल जाए–या तो दो शब्दोँ के बीच ख़ाली जगह हो या कोई ऐसा चिह्न आ जाए कि

ü  आँख को टिकने का अवसर मिल जाए और शब्द आसानी से पढ़े जा सकेँ.

ü  मूल संस्कृत पाठ की ध्वनियोँ मेँ कहीँ परिवर्तन न हो

ü  व्याकरण के नियमोँ का सही सही पालन हो

ü  संस्कृत की शब्द संपदा के साथ खिलवाड़ न हो.

एक रास्ता यह है कि हम इस की संधियोँ और समासोँ का विग्रह कर देँ. तब हमेँ यह ऐसी मालूम पड़ेगी :

विषय इन्द्रिय संयोगात् यत् तत् अग्रे अमृत उपमम्

(विषय और इंद्रिय के संयोग से जो है वह आरंभ मेँ अमृत के समान है.)

यह पंक्ति पढ़ने मेँ आसान है, लेकिन गीता के मूल श्लोक मेँ अनेक दोष पैदा हो जाते हैँ.

कविता की हर पंक्ति का अपना एक वज़न होता है, भार होता है, एक तरन्नुम होता है, उतार चढ़ाव होता है. महाकवि महर्षि वेद व्यास का काव्य सौष्ठव गीता मेँ भगवान कृष्ण के मुख से निकले शब्दोँ मेँ चरमोत्कर्ष पर है. एक भी शब्द को बदलने या ध्वनि क्रम मेँ परिवर्तन लाने से बड़ा अनर्थ हो सकता है. अतः आज के पाठक के लिए गीता के श्लोकोँ का सहज संस्करण करने के नाम पर न तो इस के किसी शब्द का रूप बिगाड़ा जा सकता है न इस के उतार चढ़ाव मेँ परिवर्तन किया जा सकता है.

ऊपर संधि समास विच्छेद कर के गीता की पंक्ति को जिस प्रकार लिखा गया है वह पढ़ने मेँ कितनी ही आसान हो, उस से छंद को बहुत भारी नुक़सान पहुँचा है. आप स्वयं देखेँ :

मूल ध्वनि                  विकृत ध्वनि      

विषयेन्द्रिय                विषय इंद्रिय     

संयोगाद्यत्                 संयोगात् यत्     

तदग्रेऽमृतोपमम्          तत् अग्रे अमृत उपमम्     

गीता के श्लोक के प्रवाह मेँ इतना परिवर्तन पूरी तरह अस्वीकार्य है.

इस का एक और तरीक़ा हो सकता है. संधि तो हो लेकिन संधिगत ध्वनियोँ को आपस मेँ मिला कर लिखने की जगह फ़्राँसीसी भाषा के समान शब्द इस तरह अलग अलग लिखे जाएँ कि उन की मूल ध्वनियाँ जैसी की तैसी बनी रहेँ, छंद के प्रवाह मेँ कहीँ परिवर्तन न हो, और संस्कृत के व्याकरण और उस की शब्द संपदा के साथ खिलवाड़ न हो, फिर भी बोलते समय पाठक संधिगत ध्वनियोँ का यथावत् उच्चारण करता रहे.

अब हम उसी पंक्ति को इस तरह लिखते हैँ :

विषयेन्द्रिय-संयोगाद् यत् तद् अग्रेऽमृतोपमम्

इस मेँ संधि और समास का वैयाकरणिक विग्रह नहीँ किया गया है, बल्कि उन के आधार पर यथासंभव तथा उचित स्थानोँ पर समीचीन ध्वनि विच्छेद किया गया है. इस ध्वनि विच्छेद का, और कहीँ कहीँ बीच मेँ डाले गए हाइफ़न आदि चिह्नोँ का उद्देश्य मात्र इतना है कि शब्दोँ के बीच मेँ ख़ाली जगह छोड़ने की गुंजाइश निकाली जा सके. जहाँ यह गुंजाइश न मिले, वहाँ आधुनिक पाठक की आँख को राहत देने के लिए कोई चिह्न डाला जा सके.

सिर्फ़ उच्चारण की सहजता का ध्यान रखना हो तो किसी भी शब्द को कहीँ से भी मन माने तौर पर तोड़ कर ध्वनि विच्छेद किया जा सकता है. लेकिन वैसा करना भाषा के साथ खिलवाड़ करना होगा.

उदाहरण के लिए विषयेन्द्रिय या तच्छ्रुत्वा को लीजिए. इन्हेँ विषय् एन्द्रिय या तच् छ्रुत्वा लिखेँ तो हम छंदोँ का सही सही पाठ कर सकते हैँ. पर संस्कृत भाषा के शब्दोँ को इस प्रकार बिगाड़ कर हम कुछ भी हासिल नहीँ कर सकते.

संस्कृत मेँ न तो किसी प्रकार विषय् बन पाता है (विषयशब्द के किसी भी रूप मेँ या किसी भी संधिगत विकार से ‘‘विषय् प्राप्त नहीँ होता), न ही कोई एन्द्रियशब्द बनता है. के साथ संधि होने पर तत् के त् का च् और श्रुत्वा के श् का छ् अवश्य हो जाता है लेकिन छ्रुत्वा का कोई स्वतंत्र आधार नहीँ है. एन्द्रिय और छ्रुत्वाशब्दोँ को किसी सहज पाठ मेँ देख कर अनभिज्ञ पाठक को संस्कृत शब्द संपदा के बारे मेँ ग़लत अनुमान होगा, और संस्कृत ज्ञाताओँ की भावनाओँ को ये विकृत और आधारहीन शब्द ठेस पहुँचाएँगे. इन मेँ से कोई भी प्रतिक्रिया हमेँ वांछनीय नहीँ है. हमारी इच्छा तो बस यही है कि आज पाठक संस्कृत से कतराना बंद कर दे. वह संस्कृत के नज़दीक आए, उसे पसंद करे, उस के ग्रंथोँ का आनंद ले, और धीरे धीरे शास्त्रीय संस्कृत की ओर आकर्षित हो.

 श्रीमद् भागवद् गीता उपनिषद मेँ ध्वनि विच्छेद बस वहीँ किया गया है जहाँ वह पूरी तरह व्याकरणसम्मत था, जहाँ केवल पहले शब्द की अंतिम ध्वनि के संधिगत विकार को बरक़रार रख कर काम चल सकता था, और जहाँ दूसरे शब्द की पहली ध्वनि मेँ विकार नहीँ होता. एक दो उदाहरण प्रस्तुत हैँ.

गीता के पहले अध्याय के २1 वेँ श्लोक मेँ यह शब्द समूह आता है :

सेनयोरुभयोर्मध्ये

इस का संधि विग्रह और ध्वनि विकार क्रमशः इस प्रकार है :

सेनयोः + उभयोः + मध्ये

सेनयोर् + उभयोर् + मध्ये

संधि करते समय सेनयोः और उभयोःके विसर्गोँ का रेफ अर्थात र् हो जाता है, जिसे हम हिंदी मेँ आधा र कहते हैँ. यह र् अपने सामने वाले शब्दोँ की प्रारंभिक ‘=’ ध्वनियोँ के साथ मिल कर पहली बार रु बन जाता है, और दूसरी बार के ऊपर का जा कर र्म लिखा जाता है. हम इस विकार यानी विसर्ग के नए रूप र् को यथावत् स्वीकार कर लेते हैँ, क्योँ कि यहाँ समास के लिए उन मेँ संबंध स्थापना की आवश्यकता नहीँ है, और उन्हेँ अलग लिखना व्याकरण के नियमोँ के अनुरूप भी है. अब हमेँ इस शब्द समूह का निम्न रूप मिलता है :

सेनयोर् उभयोर् मध्ये

इसे पढ़ने मेँ कोई दिक़्क़त नहीँ है. इस रूप से न शब्द ग़लत ढंग से टूटते हैँ, न व्याकरण को चोट पहुँचती है, न छंद भंग होता है.

इस प्रकार के कुछ और उदाहरण देखिए :

मूल गीता मेँ                 संधि विग्रह               श्रीमद् भागवद् गीता उपनिषद मेँ    

पाण्डवाश्चैव                       पाण्डवाः च एव                पाण्डवाश् चैव

प्राणांस्त्यक्त्वा                    प्राणान् त्यक्त्वा                 प्राणांस् त्यक्त्वा

पापादस्मान्निवर्तितुम्           पापात् अस्मात् निवर्तितुम् पापाद् अस्मान् निवर्तितुम्

प्रवदन्त्यविपश्चितः              प्रवदन्ति अविपश्चितः         प्रवदन्त्य् अविपश्चितः   

ये सब उदाहरण ऐसे हैँ जहाँ शब्द शृंखलाओँ को सहज पठनीय शब्दोँ या शब्द समूहोँ मेँ विभाजित करने के लिए ध्वनि विच्छेद करना अपेक्षाकृत आसान था. इन मेँ समास और संधि एक साथ उपस्थित नहीँ थे.

संस्कृत मेँ अकसर विशेषण और विशेष्य को मिला कर एक शब्द बना दिया जाता है. फिर उसे एक शब्द मान कर उस के रूप चलाए जाते हैँ. ऐसे स्थलोँ पर अगर हम उन शब्दोँ को, विशेषण और विशेष्य को, अलग अलग कर देँ, तो संस्कृत के व्याकरण की हानि होती है : क्योँ कि अलग अलग रखे होने पर विशेषण मेँ अपनी विभक्ति का लगना आवश्यक होता है. इसी प्रकार की कई अन्य व्याकरणीय समस्याएँ हैँ जिन के कारण समास का विच्छेद करना अनुचित हो जाता है. अगर विच्छेद न करेँ तो कई बार इतने सारे वर्ण इकट्ठा हो जाते हैँ कि हिंदी पाठक के लिए उन से जूझना कठिन हो जाता है.

इस संकट से उबरने के लिए आजकल हमारे पास हाइफ़न का चिह्न है. इसे समासोँ के बीच मेँ डाल कर हम किसी भी लंबी शब्द शृंखला को छोटे छोटे सहज खंडों मेँ विभक्त कर सकते हैँ. इस से पाठक की आँख को राहत के स्थान मिल जाते हैँ और व्याकरण की आत्मा की भी रक्षा हो जाती है.

इस प्रकार के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैँ :

पाण्डु-पुत्राणाम्

द्रुपद-पुत्रेण

नाना-शस्त्र-प्रहरणाः

कुल-क्षय-कृतम्

उत्सन्न-कुल-धर्माणाम्

राज्य-सुख-लोभेन

संस्कृत के अपने कई ऐसे चिह्न स्वाभाविक रूप से शब्दोँ के बीच उपस्थित होते हैँ. इस से भी हमारा काम आसान हो जाता है.

इन मेँ से एक चिह्न है विसर्ग (ः). विसर्ग का उपयोग संस्कृत मेँ महाप्राण उच्चारण के संकेत के तौर पर किया जाता है. जैसै : सर्वः. इस मेँ हमेँ सर्व के के बाद का हल्का सा पुट देना होता है. कई बार यह चिह्न समासगत शब्दोँ के बीच मेँ आ जाता है :

नभःस्पृशम्

यहाँ बीच मेँ हाइफ़न डालना न तो उचित है, न संभव ही. अगर डालेँगे तो यह कोलन डैश जैसा मालूम पड़ेगा :- . इस की ज़रूरत भी नहीँ है, क्योँ कि विसर्ग के ये दो बिंदु हमारी आँखोँ को कुछ राहत तो दे ही रहे हैँ.

इसी प्रकार का एक चिह्न है प्लुत या गुरु का चिह्न (ऽ). संस्कृत मेँ यह या की मात्राओँ वाले उन शब्दांतोँ मेँ मिलता है जहाँ अगला शब्द से शुरु हो रहा हो, लेकिन का लोप दर्शाना अभिप्रेत हो. जैसे :

अग्रेऽमृतोपमम्

ईश्वरोऽपि

यह चिह्न भी हम जैसे पाठकोँ की आँखोँ को राहत देने का काम करता है. कई बार तो यह बड़े आड़े वक़्त काम आता है. एक उदाहरण देखिए :

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो

इन चिह्नोँ के बावजूद कभी कभी लंबे शब्द समूह उपस्थित हो जाते हैँ. उन्हेँ घटकोँ मेँ बाँटने का कोई सहज और स्वीकार्य रास्ता नज़र नहीँ आता. अगर उन शब्द शृंखलाओँ को टुकड़ोँ मेँ न बाँटेँ, तो पढ़ने मेँ सहजता प्राप्त नहीँ होती. यह समस्या अधिकतर ऐसी जगहोँ पर पैदा होती है जहाँ एक से दो स्वर आपस मेँ मिल कर एक संयुक्त दीर्घ स्वर को जन्म देते हैँ

इन्द्रियाणि + इन्द्रियार्थेभ्यः = इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः

वर्त्म + अनुवर्तन्ते = वर्त्मानुवर्तन्ते

इन्द्रियस्य + इन्द्रियार्थे = इन्द्रियस्येन्द्रियार्थे

यज्ञेनैव + उपजुह्वति = यज्ञेनैवोपजुह्वति

ऐसी संधि वाले शब्द समूहोँ को टुकड़ोँ मेँ बाँटने के लिए हमेँ ध्वनि विच्छेद से कोई ऐसी सहायता नहीँ मिलती जो हमारी मूल आवश्यकता को पूरा कर सके, जो गीता की मूल ध्वनियोँ की और छंद की रक्षा करे और इन्हेँ पढ़ने मेँ सहज बना सके.

ऐसे स्थलोँ पर आँखोँ को राहत देने के लिए मैँ ने डबल प्लुत के चिह्न (ऽऽ) का उपयोग किया है. यह प्रयोग कोई नया नहीँ है. दीर्घ अकार (आ) वाली संधियोँ के अवसर पर इस का प्रयोग पहले से चला आता है. उदारणार्थ : शंकराचार्य का गीता भाष्य और स्वामी दयानंद सरस्वती का सत्यार्थ प्रकाश. मैँ ने इस डबल प्लुत के उपयोग क्षेत्र का विस्तार कर दिया है, और अनेक अवसरों पर इस की सहायता ली है. जैसे :

वर्त्माऽऽनुवर्तन्ते

इन्द्रियाणीऽऽन्द्रियार्थेम्यः

जहाँ तक संभव था वहाँ शब्दोँ के बीच ख़ाली जगह छोड़ने का, और जहाँ यह संभव नहीँ था, वहाँ आवश्यकता पड़ने पर शब्दोँ के बीच मेँ कोई चिह्न लगाने का उद्देश्य बस इतना है कि पाठक संस्कृत भाषा से कतराना बंद कर दे. वह गीता जैसे अपने प्रिय ग्रंथोँ को स्वयं पढ़े, शौक़ से पढ़े. लंबी लंबी शब्द शृंखलाएँ आएँ तो डरे नहीँ, ऊबे नहीँ, उन्हेँ पढ़ ले.

इसी उद्देश्य से गीता से इस सहज संस्करण मेँ गीता के तमाम श्लोकोँ को इस शैली मेँ उतारा गया है. देखिए :

ü  कहीँ किसी श्लोक की किसी ध्वनि मेँ कोई दोष नहीँ आया है.

ü  किसी श्लोक का छंद नहीँ टूटा है, प्रवाह और उतार चढ़ाव नहीँ बदला है.

ü  कहीँ किसी शब्द का आरंभिक रूप नहीँ बदला है.

ü  संस्कृत की शब्द संपदा के साथ खिलवाड़ नहीँ हुई है.

ü  व्याकरण का कोई नियम भंग नहीँ हुआ है.

मुझे पूरा विश्वास है कि इस शैली की सहायता से आप गीता के मधुर श्लोकोँ का पाठ अपने आप स्वयं वैसा ही कर सकेँगे जैसा कि महाकवि महर्षि वेद व्यास ने उन्हेँ रचा है.

हिंदी अनुवाद

गीता ही नहीँ, सभी प्राचीन दार्शनिक और धर्म ग्रंथोँ के, ऐसे अनुवाद बहुत कम मिलते हैँ जिन मेँ व्याख्या न हो, भाष्य न हो. जो मात्र अनुवाद होँ, शुद्ध अनुवाद होँ. सच्चे होँ और खरे होँ. ऐसे अनुवाद होँ जो महान ऋषियोँ, दार्शनिकोँ, पैग़ंबरोँ की वाणी को तोड़ेँ मरोड़ेँ नहीँ, बल्कि जैसे का तैसा सामने रख देँ! सच्चे दुभाषिए की तरह. और इस साथ ही साथ वे एक ऐसी आधुनिक और सहज भाषा मेँ होँ जिसे आज का आम आदमी आसानी से समझ सके.

गीता का यह सहज संस्करण इस दिशा मेँ एक प्रयास है.

इस संस्करण के लिए गीता के श्लोकोँ का हिंदी अनुवाद करते समय मुख्य उद्देश्य यह रहा है कि पाठक

ü  हिंदी वाक्योँ की लंबाई मेँ न उलझ जाए.

ü  गीता के मूल भाव को आसानी से ग्रहण कर सके.

गीता के अर्थ को वैसा ही पेश करने की कोशिश की गई जैसी कि मूल रचनाकार ने लिखा है. अनुवादक की किसी निजी मान्यता को अनुवाद पर हावी नहीँ होने दिया गया है. अनुवादक मात्र दुभाषिए का काम करता है–न इस से अधिक और न इस से कम.

हिंदी मेँ गीता के बहुत सारे अनुवाद हुए हैँ. उन मेँ कुछ पद्य मेँ हैँ, अधिकांश गद्य मेँ हैँ. उन सब ने गीता को जन साधारण तक पहुँचाने मेँ महत्वपूर्ण योगदान किया है. फिर भी मुझे हमेशा से यह लगता रहा है कि गीता के अनुवादोँ मेँ कुछ और भी होना चाहिए था जो पाठक को और अधिक संतोष दे सके.

पद्य मेँ अनुवाद के लिए गीता एक बहुत कठिन काव्य है. उस के श्लोक सुगठित हैँ. एक एक श्लोक मेँ बड़े संक्षेप के साथ और आकर्षक ढंग से बहुत सारी बातेँ कह दी गई हैँ. श्लोकोँ मेँ एक अनोखी मार्मिकता है. रहस्यपूर्ण विरोधाभास है. इन श्लोकोँ की टक्कर के छंदोँ मेँ, जिन की संख्या कुल सात सौ तक सीमित हो, गीता के श्लोकोँ की मार्मिकता और संक्षिप्तता की रक्षा करते हुए उस का काव्य अनुवाद कर पाना नितांत असंभव है. और अगर एक श्लोक का अनुवाद कई कई छंदोँ मेँ किया जाए, तो वह सुगठितता ख़त्म हो जाएगी जिस के लिए गीता उल्लेखनीय है.

यही कारण है कि अनेक अच्छे पद्यानुवादोँ के बावजूद, कोई भी जन सम्मत नहीँ हो पाया है.

इस से भी अधिक खेद की बात यह है कि गीता के अधिकांश गद्य अनुवाद वांछित संतोष नहीँ दे पाते. इस के अनेक कारण हैँ.

कई अनुवाद दार्शनिकोँ, विचारकोँ, समाज सुधारकोँ या राष्ट्रनेताओँ ने किए. वे अनुवाद कम हैँ, भाष्य अधिक हैँ. उन मेँ अनुवादक अनुवाद कम करता है, अपने निजी मत का प्रचार और प्रसार ज़्यादा. वह गीता के श्लोकोँ मेँ अपने मत का समर्थन ढूँढ़ता नज़र आता है. उस के शब्दोँ के अर्थ को ताड़ मरोड़ कर वह अपने मत को गीता का मत सिद्ध करने पर तुल जाता है. अंततः होता यह है कि वह गीता पर अपना मत आरोपित कर देता है. वह अपना जीवन दर्शन वासुदेव कृष्ण पर थोप देता है. महर्षि वेद व्यास और पाठक के बीच पुल बनने के बजाए वह दीवार बन कर खड़ा हो जाता है.

कई बार अनुवादक अपने की अच्छा हिंदू मानता है, और गीता को विश्व के अन्य सब धर्म ग्रंथोँ से बेहतर सिद्ध करने पर तुल जाता है, या वह अन्य धर्म वालोँ को यह बताने मेँ लग जाता है कि तुम्हारे और हमारे धर्म मेँ अमुक समानता है. वह बस एक काम नहीँ करता! वह ऐसा कुंठाहीन अनुवाद नहीँ करता जो प्राचीन को आधुनिक के समक्ष खड़ा कर सके.

मैँ समझता हूँ कि अनुवाद बस अनुवाद रहना चाहिए, उसे भाष्य या टीका नहीँ बन जाना चाहिए. आज ज़रूरत इस बात की है कि गीता जैसे प्राचीन और महान ग्रंथोँ के भाव उसी भावना के साथ आम आदमी तक पहुँचेँ जिस भाव के साथ मूल लेखक ने उन्हेँ अभिव्यक्त किया था. तभी आज का पाठक उन्हेँ अपनी बुद्धि या श्रद्धा की कसौटी पर कस कर अपने निजी अर्थ निकाल सकता है. महर्षि व्यास जैसे रचेताओँ को न किसी की पैरवी की ज़रूत होती है, न किसी समर्थन की.

 श्रीमद् भागवद् गीता उपनिषद  मेँ अनुवाद मात्र अनुवाद तक सीमित रखा गया है, अपनी किसी धार्मिक या दार्शनिक मान्यता को, किसी समर्थन या विरोध को, गीता और पाठक के बीच मेँ नहीँ आने दिया है.

गीता के बहुत से हिंदी अनुवाद तब हुए थे जब खड़ी बोली की आधुनिक गद्य शैली का विकास आरंभ हुआ था. इन मेँ से अनेक अनुवाद उन लोगों ने किए थे जो पेशेवर धार्मिक प्रवचनकर्ता, पंडित और पुरोहित थे. आज का हिंदी पाठक पुराने ज़माने का धार्मिक कथा प्रवचन सुनने वाला नहीँ है. उसे उन पुराने अनुवादोँ की भाषा पंडिताऊपन के बोझ से दबी मालूम पड़ती है.

अधिकांश अनुवादोँ मेँ एक और बड़ी कमी खलती रही है. उन मेँ संस्कृत के एक वाक्य को हिंदी के एक वाक्य मेँ उतारने की नाकाम कोशिश की जाती रही है. अनुवादक यह भूल जाता है कि संस्कृत और हिंदी वाक्य रचना मेँ बहुत अंतर है. संस्कृत मेँ एक विशेषण या क्रिया विशेषण कई बार उतना सब बड़ी आसानी से कह देता है जो बोलचाल की हिंदी मेँ कोशिश करने पर एक वाक्य मेँ नहीँ कहा जा सकता. कोशिश करो तो एक वाक्य मेँ अनेक उपवाक्य बनाने पड़ते है. अनेक उपवाक्योँ से लदी भाषा बोझिल बन जाती है. ऐसे उलझे वाक्योँ को पढ़ना और समझना कठिन हो जाता है.

संसार मेँ कोई भी पाठक ऐसा नहीँ है जो अपनी भाषा के सब शब्दोँ के अर्थ जानता हो. शब्दोँ का अर्थ मालूम करना कठिन नहीँ होता, कठिन होता है कठिन वाक्योँ को पढ़ना. मेरा अपना अनुभव है कि भाषा की बोझिलता, विशेषकर हिंदी की बोझिलता तथाकथित कठिन या संस्कृतनिष्ठ शब्दोँ से नहीँ होती. वह दुरूह वाक्य रचना से होती है.

किसी संस्कृत रचना का ऐसा हिंदी अनुवाद पढ़ कर पाठक को यह भ्रम हो जाना स्वाभाविक है कि मूल संस्कृत रचना भी इतनी ही बोझिल होगी. गीता के अनेक हिंदी अनुवादोँ मेँ यही कमी पाई जाती है.

इस अनुवाद मेँ वाक्योँ को सहज और सरल रखने की कोशिश की गई है. यह ध्यान रखा गया है कि एक ही वाक्य मेँ बहुत सारे भाव न पिरोए जाएँ. अगर कभी ऐसा करना पड़े तो वाक्य विन्यास इस प्रकार किया जाए की एक के बाद एक भाव को पाठक आसानी से ग्रहण कर सके.

गीता के किसी श्लोक मेँ विचार के उद्घाटन और विकास का जो क्रम है, श्रीमद् भागवद् गीता उपनिषद मेँ यथासंभव उसी का अनुपालन किया गया है. कोशिश की गई है कि किसी श्लोक मेँ जो पहला विचार है, वह हिंदी अनुवाद मेँ भी पहला विचार हो, और संस्कृत  श्लोक का अंतिम विचार अनुवाद मेँ भी अंतिम हो, ताकि अगले श्लोक के अनुवाद से उस की संगति बैठ सके.

गीता एक दार्शनिक ग्रंथ है. उस मेँ भारतीय दर्शन के अनेक पारिभाषिक शब्द भरे पड़े हैँ. उन मेँ से बहुत से शब्द ऐसे हैँ जो आज रोज़मर्रा की हिंदी मेँ बोले जाते हैँ. लेकिन समय के प्रवाह मेँ उन का अर्थ थोड़ा बहुत बदल गया है. यह अर्थांतर स्पष्ट किए बिना ग़लतफ़हमी की संभावना रहती है. ऐसे पारिभाषिक शब्दोँ का अभीष्ट अर्थ स्पष्ट करने के लिए मैँ ने कई बार एक वाक्यांश या आवश्यकता पड़ने पर एक पूरा वाक्य लिख दिया है. उन का अर्थ और अधिक स्पष्ट करने के लिए कई बार अनेक पर्यायवाची या समांतर शब्द लिख दिए हैँ. लेकिन ऐसे पारिभाषिक शब्दोँ की व्याख्या कहीँ पर भी फ़ुटनोट मेँ नहीँ की है. फ़ुटनोट पढ़ना कोई आसान काम नहीँ होता, और उसे पढ़ने से विचार क्रम टूट जाता है.

जहाँ किसी एक श्लोक या शब्द के कई अर्थ संभव थे, वहाँ वे सब लिख देने से पाठक के भ्रमित होने की संभावना थी. ऐसे अवसरोँ पर केवल वही एक अर्थ लिखा गया है जिसे महान विद्वानोँ ने संस्कृत भाषा के कोशोँ मेँ स्वीकृति दी है या जो संदर्भ विशेष मेँ मुझे सही लगा.

गीता मेँ कई स्थानोँ पर (जैसे, तेरहवेँ और सोलहवेँ अध्यायोँ मेँ) बहुत सी चीज़ेँ गिनवाई गई हैँ. ऐसे स्थलोँ पर पाठक की सहायता के लिए मैँ ने क्रम संख्या डाल दी है. यह इस लिए किया है कि इन स्थलोँ पर उन चीज़ों के अर्थ स्पष्ट करने के लिए कई बार अनेक पर्यायवाची शब्द लिखने पड़े हैँ. अगर क्रम संख्या न डाली जाती तो पाठक के भ्रमित होने की संभावना थी.

–अरविंद कुमार

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